बचपन से ही हमारी कंडीशनिंग शुरू कर दी जाती है। मां को प्रथम शिक्षक कहा गया है। तो हमारी, हम सबकी, पहली गुरू मां हुई। वह हमें अपनी समझ अनुसार अच्छे-बुरे भेद समझाने का काम हमारे जन्म लेती ही शुरू कर देती है। इसी को अंग्रेजी में ब्रेन कंडीशनिंग कहा जाता है। अभी हम कुछ समझ पाने की स्थिति में होते भी नहीं कि अच्छा और गंदा हमारे दिमाग में रोप दिया जाता है। थोड़ा बड़े होते हैं तो जीवन लक्ष्य तय करने का प्रेशर शुरू हो जाता है। अभी समझ नहीं विकसित हुई कि समझ सकें जीवन आखिर क्या बला है, बचपन से ही महत्वाकांक्षा की अंधी रेस में धकेल दिया जाता है। लक्ष्य निर्धारित भला क्या करेंगे? यह अंधी दौड़ महत्वाकाक्षाओं को जन्म देती है और इससे ईर्ष्या, हिंसा और विद्वेष जन्म लेते हैं। इस सबके बीच आता है धर्म। धर्म जो मानवीय संवेदनाओं के सरंक्षण और मर्यादित जीवन देने की नीयत से जन्मा अपना लक्ष्य भूल इन सभी के नाश का कारण बन जाता है। मैं जो अब तक समझ पाया हूं उसकी बिना पर निसंकोच कह सकता हूं कि मनुष्य के अमानुष बनने के यही दो असल कारण हैं, बीज हैं- धर्म और महत्वाकांक्षा।
राजा जनक और अष्टावक्र का संवाद इसलिए मुझे कृष्ण की गीता से कहीं अधिक प्रभावित करता है। जनक से अष्टावक्र कहते हैं- ‘महत्वाकांक्षा प्राणघातक है। जब तक महत्वाकांक्षा है मनुष्य धार्मिक हो ही नहीं सकता।’ इसे वर्तमान के संदर्भ में देखिए। 1980 में जनता परिवार के टूटने के बाद जनसंघ के नए रूप में भाजपा सामने आई। देश को आजाद हुए तब मात्र 33 बरस हुए थे और विभाजन के जख्म हल्के-फुल्के भरने लगे थे। कांग्रेस की अदूरदर्शिता ने सिख समाज को अलग-थलग करने का काम शुरू किया था। जय प्रकाश नारायण ‘इंदिरा हटाओ’ और ‘संपूर्ण क्रांति’ की व्यर्थता का दंश भोग भाजपा के जन्म से पहले दिवंगत हो चुके थे। बेलछी कांड के सहारे एक बार फिर इंदिरा गांधी सत्ताशीन हो चुकी थीं। धर्म को अपनी राजनीति का केंद्र बिंदु बना भाजपा ने पहले से ही नाना प्रकार के खानों में बंटे समाज को हिंदू-मुस्लिम में विभाजित करना शुरू किया।
एक तरफ भाजपा राम मंदिर के सहारे आगे बढ़ रही थी, कांग्रेस, सपा और अन्य कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें अपने-अपने वोट बैंक का तुष्टिकरण करने में लगी थीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह भ्रष्टाचार को मुद्दा बना अपनी निजी महत्वाकांक्षा को हवा देने में जुटे थे। मंडल के सहारे कमंडल की राजनीति को कड़ी टक्कर मिलनी शुरू हो गई थी तो दूसरी तरफ चीन धर्म से दूर अपनी सामरिक और आर्थिक क्षमता को लगातार आगे बढ़ाने में जुटा था। जब अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी राम मंदिर स्थापना के एजेंडे को आगे रख अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मार्ग तैयार कर रहे थे तब भारत की अर्थव्यवस्था 183.43 बिलियन अमेरिकी डालर थी। चीन की अर्थव्यवस्था 305.53 बिलियन और अमेरिका की 2.86ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी। पचास साल बाद चीन की अर्थव्यवस्था 13.41 ट्रिलियन, अमेरिका की 20.58 ट्रिलियन पहुंच गई तो मंदिर मस्जिद, मंडल-कमंडल के चक्कर में हम आज मात्रा 2 .72 ट्रिलियन अमेरिका डॉलर की इकॉनामी लिए ये खड़े हैं।
स्पष्ट है हमारे राजनेताओं की निज महत्वाकांक्षा ने हमें आगे बढ़ने से रोका और हमारे मानवीय सरोकारों को धर्म के नाम पर समाप्त करने का काम किया है। धर्म का खेल अद्भुत है। हमारे साधु-संतों, मुल्ला-मौलवियों, पादरियों के ठाट-बाट देखने लायक हैं। कहलाते सभी संत, पीर हैं। सभी बड़े त्यागी बताएं जाते हैं, लेकिन रहन-सहन सबका राजा-महाराजाओं सरीखा है। थोड़ा चिंतन करिएगा मेरी बात पर। स्वामी चिन्मयानंद संत हैं, लेकिन राजनीति भी करते हैं। वे बड़े भोगी भी निकले। ऐसे कितने ही संत हमारे समाज में हैं। इस त्यागियों के शिष्य सबसे बड़े भोगी होते हैं। वही संत सबसे बड़ा, सबसे ज्ञानी, जिसके शिष्य बड़े उद्योगपति, बड़े राजनेता होते हैं। क्या शानदार गणित है। त्यागी समक्ष भोगी शीश नवाता है और बदले में आशीर्वाद पाता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जो जितना बड़ा भोगी, उतना ही बड़ा त्यागी कहलाता है। ईश्वर के घर में भी भोगी का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है।
मुकेश अंबानी बदरी-केदार में सोना चढ़ाते हैं इसलिए गर्भगृह में पूजा करने का पहला हक उनका है। बाकी जो असल भगवान भक्त हं उनके लिए न तो ईश्वर, न ही ईश्वर के नुमाइंदों के पास समय है। साला कितना बड़ा गोरखधंधा है भाई। त्यागी-भोगी का यह गठजोड़ दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है। हर कोई इस गठजोड़ का हिस्सा बनने की जुगत में है। कोई अल्लाह के नाम पर उसके अनुयायियों को बरगला रहा है, तो कोई ईश्वर के नाम पर। गौर से समझने का प्रयास कीजिए कि कैसे महत्वाकांक्षा और धर्म के चलते हमारे भीतर अमानुषिकता का विकास दिनोंदिन हो रहा है। राजनेता और धर्मगुरु की बाद में सोचिए, पहले खुद के भीतर झांकने का प्रयास करिए। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि यदि आप स्वयं का ईमानदार विश्लेषण करेंगे तो ग्लानि भाव से भर जाएंगे। मुड़कर जरा देखिए पीछे, जो कुछ अब तक किया उसमें कितना छद्म कितना फरेब अपने को, अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किया?
अपने गिरेबान में झांकना सही में बेहद कठिन, दुष्कर कार्य है। लेकिन जो कोई यह कर पाए, उसको भविष्य में कुछ सार्थक करने का मार्ग इसी कठिन मार्ग में चलकर मिलता है। मैं इसलिए बार-बार चेतने का समय आ गया कह रहा हूं कि मनुष्य योनि में जन्मे हैं तो कुछ तो ऐसा करें जिससे थोड़ा ही सही, अजुंली में भरे जल समान ही सही, एक बूंद जल समान ही सही, कुछ ऐसा कर पाएं जिसका हमारी महत्वाकांक्षाओं से कुछ लेना-देना न हो। यही मेरी समझ से सबसे बड़ा पुण्य, सबसे बड़ा धार्मिक अनुष्ठान है। अष्टावक्र ने राजा जनक को जीवन जीने की सही समझ दी। जनक जो महाबली, महापरोपकारी, प्रजानिष्ठ प्रतापी राजा थे, एक बारह बरस के बालक से जीवन साधने, उसे सार्थक करने की कला जानना चाहते हैं। निश्चित ही जनक को अष्टावक्र समझ आ गए होंगे। वे आत्मवान पुरुष थे। उन्होंने बालक के आठ स्थानों से निकले कूबड़ को न देख उसकी आत्मा को देख लिया। समझ गए यही बालक उनको तारेगा।
अष्टावक्र ने जो ज्ञान गंगा बहाई उसका सार था, दो से मुक्ति पा लो। राग और विराग ताकि वीतरागी हो जाओ। कितनी बड़ी बात, कितने सरल शब्दों में उन्होंने कह डाली। हमारे दुखों के मूल में राग ही तो है। चाहे वह धन के प्रति हो, प्रेमिका के प्रति हो, पत्नी बच्चे के प्रति हो या फिर कुछ पाने के प्रति हो। यह राग हमारे भीतर विद्वेष का कारक बनता है। अष्टावक्र कहते हैं वीतरागी हो जाओ। जान लो कि न तुम्हारा कोई मित्र है, न शत्रु है, तुम अकेले हो असंगत हो। इस अवस्था को मैं समझता हूं पाना बेहद कठिन है। प्रयास तो लेकिन हम कर ही सकते हैं ताकि कुछ कूड़ा जो जन्म से ही हमारे भीतर समाहित है, हम उसे जला सकें। कुछ तो अपने भीतर की अशुद्धि का इलाज कर सकें ताकि मनुष्य होने का कर्ज तो चुके। इसे ही मैं चेतने का समय कह रहा हूं। जब जागो तभी सवेरा। यदि मुड़कर, थोड़ा कष्ट सहकर अपनी आज तक की जीवन यात्रा का ईमानदार एनालिसिस कर पाए तो पहले ग्लानि भाव पकड़ेगा, बाद में यही करक्शन की तरफ ले जाएगा। इतना ही नहीं यह करक्शन न केवल आंतरिक शांति को जन्म देगा, बल्कि जिन चीजों को पाने के लिए व्यर्थ की दौड़-धूप करते जीवन बीता दिया, षड्यंत्र किए धोखेबाजी की, झूठ का सहारा लिया। वे सब महत्वाकांक्षाएं, इच्छाएं स्वतः ही प्राप्त हो जाएगी।
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कोरोना का कहर अपने चरम पर है। पूरा विश्व इसके भय से थर-थर कांप रहा है। हमारे मुल्क में भी इसका असर है, लेकिन यूरोप और अमेरिका से कहीं बेहतर स्थिति में हम हैं। केंद्र सरकार, विशेषकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन को साधुवाद उनकी सक्रियता के लिए, समय रहते विदेशों में फंसे भारतीयों को सुरक्षित देश वापस लाने के लिए। निजी सफाई के मामले में हम भारतीय यूरोपीय देशों से कहीं ज्यादा साफ-सुथरे हैं। हालांकि इन्हीं कारणों के चलते, हमें हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है, कोरोना ने साबित कर दिया कि हमारे तौर-तरीके यूरोपीय, अमेरिकी तरीकों से श्रेष्ठ हैं। कोरोना अपने विस्तार के तीसरे चरण में हमारे यहां तेजी से फैल सकता है। इसे रोकने के लिए सरकारी प्रयासों से कहीं ज्यादा समाज में स्व चेतना की जरूरत है। स्थिति की भयावहता को समझते हुए हमने भी सरकार की गाइडलाइंस का पालन करते हुए अगले कुछ दिनों तक अपने कार्यालय में अवकाश रखा है। इस संक्रमण को रोकने में निश्चित ही मानव सभ्यता की विजय होगी, ऐसा मेरा विश्वास, मेरी कामना है। कोरोना से कहीं ज्यादा चिंता मुझे देश की अर्थव्यवस्था, न्यायपालिका, कार्यपालिका, एक शब्द में कहूं तो पूरे समाज में धर्म और भ्रष्टाचार के संक्रमण की है। इस पर विजय मिलना नितांत जरूरी है। देश की सर्वोच्च न्यायपालिका तक इस संक्रमण की जद में है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा में मनोनीत किया जाना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस पर चर्चा अगले हफ्ते।