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Editorial

वंदे मातरम् विवाद और जिन्ना

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-24

द्वितीय विश्व युद्ध में बगैर भारतीय पक्ष से सलाह-मशविरा किए ब्रिटिश भारत को युद्ध में शामिल किए जाने का पुरजोर विरोध करते हुए कांग्रेस नेतृत्व वाली सभी आठ प्रांतों की सरकारों का इस्तीफा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए ब्रिटिश हुक्मरानों संग निकटता बनाने का अवसर लेकर आया। दशकों तक हिंदू-मुस्लिम एकता की प्रबल पैरोकारी करने वाले जिन्ना 1940 आते-आते तक एक कट्टरपंथी नेता में बदल चुके थे। प्रांतीय सभाओं के चुनावों में मिली करारी हार ने जिन्ना की पूरी सोच को बदल डाला था। अब उनका पूरा ध्यान खुद को भारतीय मुसलमानों का एक मात्र रहनुमा स्थापित करने पर केंद्रित हो गया। 1937 से 1940 तक जिन्ना ने अपनी पूरी ताकत मुस्लिम लीग की सदस्यता बढ़ाने और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए खुद को कट्टरपंथी राजनीति के सबसे बड़े पैरोकार बनाने में झोंक डाली। 1937 में जिन्ना की अध्यक्षता में लीग का लखनऊ में वार्षिक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में कांग्रेस को निशाने पर रखते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिनमें ‘वंदे मातरम्’ को प्रांतीय सरकारों द्वारा राजकीय गीत बनाए जाने की निंदा करते हुए इसे मुस्लिम धर्म के खिलाफ करार दिया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि ‘वंदे मातरम् न केवल इस्लाम के खिलाफ है बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता की राह में बाधक भी है।’ जाहिर है इस प्रकार के प्रस्ताव को जिन्ना की सहमति थी। ‘वंदे मातरम्’ को लेकर लीग के प्रस्ताव की पृष्ठभूमि आजादी के आंदोलन से अर्सा पहले की है। बंगाल के ख्याति प्राप्त लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी ने इस गीत की रचना की थी। ब्रिटिश सरकार में डिप्टी कलेक्टर रहे चटर्जी ने सरकारी सेवा से सेवानिवृत्ति के बाद 1892 में ‘आनंदमठ’ नाम से उपन्यास लिखा। राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले इस उपन्यास की कहानी 1770 वाले बंगाल की है, जब ईस्ट इंडिया कंपनी की शह पर बंगाल के नवाब ने अपनी प्रजा से जबरन कर वसूली का अभियान शुरू कर दिया था। नवाब के अत्याचारों से त्रस्त हिंदू संन्यासियों और मुस्लिम फकीरों ने मिलकर नवाब के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया। इस ‘फकीर-संन्यासी’ आंदोलन के चलते ही नवाब को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी थी और बंगाल पर पूरी तरह से ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो गया था। चटर्जी का उपन्यास इसी ‘फकीर-संन्यासी’ आंदोलन के ईद-गिर्द लिखा गया था। इस उपन्यास में मुख्यतः मुसलमान नवाब द्वारा गरीब हिंदू प्रजा के शोषण का वर्णन है। चटर्जी ने उस दौरान बंगाल में पड़े अकाल को हिंदुओं का दुर्भाग्य बताते हुए इस अकाल के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार दिखाया। नवाब द्वारा प्रताड़ित मुस्लिमों की बाबत यह उपन्यास खामोश रहा। चटर्जी ने मातृभूमि की तुलना मां दुर्गा से करते हुए अपने गीत ‘वंदे मातरम्’ का इस उपन्यास में उपयोग किया। देश अथवा जन्मभूमि की तुलना एक हिंदू भगवान (देवी) से किया जाना और उपन्यास में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के लिए मुसलमानों को दोषी चिÐत करना, इस गीत के विरोध का कारण बना, जो इसके प्रकाशन बाद ही शुरू हो गया था। 1886 में कांग्रेस के दूसरे वार्षिक अधिवेशन में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इस गीत के लिए संगीत तैयार कर इसे गाया था। धीरे-धीरे यह गीत अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ तैयार हो रहे जनमत का हिस्सा बनने लगा। 1905 में लॉर्ड कर्जन ने जब बंगाल को दो हिस्सों में विभाजित किया, तब इस विभाजन के विरोध में शुरू हुए आंदोलनों में इस गीत को पूरे जोश- खरोश के साथ गाया जाने लगा। मुस्लिम लीग की स्थापना (1906) के समय से ही लीग मुस्लिम नेताओं ने इसे राष्ट्र गीत बनाए जाने पर ऐतराज करना शुरू कर दिया था। 1908 में लीग के तत्कालीन अध्यक्ष सर सैय्यद अली इमाम ने ‘वंदे मातरम्’ को लेकर कठोर टिप्पणी करते हुए कहा था ‘मैं नहीं कह सकता कि आप क्या सोचते हैं लेकिन जब मैं देखता हूं कि भारत के सबसे प्रगतिशील राज्य द्वारा एक धर्म विशेष के गीत ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रीय पुकार कहना और एक धर्म विशेष के त्योहार रक्षा बंधन को राष्ट्रीय त्योहार कह पुकारा जा रहा है तो मेरा हृदय दुःख और आशंकाओं से ग्रसित हो उठता है कि कहीं राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदू राष्ट्रवाद को तो स्थापित नहीं किया जा रहा है।’ आगे चलकर ‘वंदे मातरम्’ को लेकर हिंदू और मुसलमान के मध्य मतांतर गहराता गया। 1937 में इस विवाद का हल तलाशने के प्रयास शीर्ष कांग्रेस नेताओं के स्तर पर देखने को मिलते हैं। इतिहासकार सब्यसाची मुखर्जी अपनी पुस्तक ‘वंदे मातरम्’ में लिखते हैं कि सुभाष चंद्र बोस, रवींद्र नाथ टैगोर और जवाहरलाल नेहरू के मध्य इस गीत को लेकर लगातार पत्राचार हुआ। सुभाष का मानना था कि यदि कांग्रेस इस गीत पर अपने कार्यक्रमों में प्रतिबंध लगाती है तो इसका खासा नकारात्मक असर बंगाल की जनता पर पड़ेगा। 1937 में टैगोर को एक पत्र में नेहरू ने लिखा कि ‘आनंदमठ’ की पृष्ठभूमि किसी भी मुसलमान को चिढ़ाने के लिए काफी है। टैगोर नेहरू के इस कथन से सहमत थे। इस मुद्दे पर उनके और कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के मध्य कई बार पत्राचार हुआ। नेहरू को लिखे अपने एक पत्र में टैगोर ने कहा ‘To me the spirit of the tenderness and devotion express in its first portion, the emphasis it give to beautiful and benficient aspects of our mother land made a special appeal, so much that I  found no difficulty in dissociating it from the rest of the poem and from those  portions of the book of which it is a part.’ (मेरे लिए कोमलता और भक्ति की जो भावना इस गीत के पहले दो छंदों में व्यक्त की गई है, वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसमें हमारी मातृभूमि की खूबसूरती की बाबत एक विशेष अपील है जो इतनी सुंदर है कि मुझे इस गीत के पहले भाग को पूरे गीत से और उस पुस्तक जिसका यह हिस्सा है, से अलग करने में कोई दिक्कत नहीं हुई है।)सुभाष चंद्र बोस को भेजे अपने पत्र में टैगोर ने ज्यादा स्पष्ट हो अपनी बात कही ‘ The core of ‘Vande Matram’ is a hymn to goddess Durga, this is so plain that there can be no debate about it. of course Bankim does show Durga to be inseparably united with Bengal in the end, but no Mussalman can be expected patriotically to worship the ten handed deity as Swadesh…The novel Anandmath is a work of literature and so the song is appropriate in it. But parliament is a place of union for all religious groups, and there the song can not be appropriate. When Bengali Mussalmans show signs of stubborn fanaticism, we regard them as intolerable. When we too copy them and make unseasonable demands, it will be self defeating.’ (‘वंदे मातरम्’ का मूल मंत्र देवी दुर्गा का स्तुतिगान है। यह इतना स्पष्ट है कि इसको लेकर किसी प्रकार की बहस संभव नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि बंकिम इस गीत के अंत में दुर्गा को बंगाल का अविभाज्य रूप बताते हैं लेकिन किसी भी मुसलमान से यह अपेक्षा करना गलत होगा कि वह देश भक्ति के नाम पर दस हाथों वाली देवी की पूजा करे। उपन्यास ‘आनंदमठ’ एक साहित्यिक कृति है जिसमें इस गीत का उपयोग किया जा सकता है। संसद लेकिन सभी धर्मों के लोगों का मिलन स्थल है। वहां इस गीत को गाया जाना उपयुक्त नहीं है। जब बंगाल के मुसलमान कट्टरता का प्रदर्शन करते हैं तो हम उन्हें असहिष्णु करार देते हैं। ठीक ऐसे ही यदि हम भी उनके समान असहिष्णु हो अनुचित बात कहेंगे तो यह आत्म-पराजय समान होगा।)

अंततः कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 26 अक्टूबर, 1937 को कोलकता में हुए पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास कर यह व्यवस्था दी कि जब कभी भी राष्ट्रीय कार्यक्रमों के दौरान इस गीत को गाया जाएगा तो उसके केवल पहले दो छंद ही उपयोग में लाए जाएंगे। जैसा रवींद्र नाथ ठाकुर ने नेहरू और बोस को लिखे अपने पत्रों में कहा था इस गीत के पहले दो छंद मातृभूमि की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं जिन्हें गाए जाने को लेकर किसी भी धर्म के अनुयायियों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन राजनीतिक कारणों से इस मुद्दे को बार-बार उठाया जाता रहा। आज भी राजनीतिक कारणों और पूर्वाग्रहों के चलते इसे समय-समय पर सामने लाया जाता है। जून, 2018 में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो कांग्रेस द्वारा 1937 में इस गीत के केवल दो ही छंदों को गाए जाने के निर्णय को भारत विभाजन का मुख्य कारण करार दे दिया था। कोलकाता में बंकिम चंद्र चटर्जी के 180वीं जन्मोत्सव के कार्यक्रम में अमित शाह ने यह उद्गार व्यक्त किए थे। बहरहाल 1937 में आयोजित अपने वार्षिक अधिवेशन में ‘वंदे मातरम्’ के जरिए हिंदू-मुस्लिम विवाद को धार देने की कवायद को जिन्ना ने रोकने के बजाए उसे ज्यादा तेज करने की मुहिम छेड़ दी थी। जिन्ना के इस नए हिंदू विरोधी अवतार ने कांग्रेस की चिंताओं में भारी इजाफा कर डाला। गांधी, नेहरू और बोस समेत सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं ने इस दौरान जिन्ना को बातचीत के जरिए आपसी मसलों को सुलझाने और एक होकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए लगातार प्रस्ताव भेजे लेकिन जिन्ना टस से मस नहीं हुए। शायद तब तक उन्होंने मन बना लिया था कि यदि वे भारत के सर्वमान्य नेता नहीं बन सकते तो कम से कम एक कौम विशेष के तो आलाकमान बन ही सकते हैं। जिन्ना के मन में मुसलमानों को लेकर एक अलग राष्ट्र बनाने का विचार भी अब अपनी जड़े जमा चुका था। नेहरू और उनके मध्य इस दौरान हुए पत्राचार से स्पष्ट होता है कि वे अब हिंदू-मुस्लिम एकता को लेकर कांग्रेस संग बातचीत के पक्ष में नहीं थे। अप्रैल 1938 में कोलकाता के बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा करते हुए जिन्ना ने कहा  ‘The Congress is a Hindu body mainly. Muslims have made it clear more than once that, besides the question of religion,  culture, language and personal laws, there is another question, equality of life and death for them…They will fignt for it till the last ditch, and all the dreams and notions of Hinduraj must be abandoned.’ (कांग्रेस एक हिंदू संगठन है। मुसलमानों ने अनेक बार यह स्पष्ट कर दिया है कि धर्म, संस्कृति, भाषा और व्यक्तिगत कानूनों के अतिरिक्त भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न उनके लिए समानता से जीने और मरने का है…. ़जिसके लिए वे निरंतर संघर्ष करते रहेंगे ताकि हिंदू राष्ट्र की धारणा का सपना कभी साकार न हो सकें।)
क्रमश :

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