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Editorial

बिहार की राह पर उत्तराखण्ड

मेरी बात

बिहार और उत्तराखण्ड में कई ऐसी समानताएं हैं जो इन दो राज्योें को बेहद समृद्ध और यहां के मूल निवासियों को अपनी-अपनी जन्मभूमि पर गर्व करने का कारण बनती हैं तो दूसरी तरफ कई ऐसी समानताएं भी हैं जो इन्हीं नागरिकों को शर्मसार करती हैं और उपहास-उपेक्षा का पात्र बनाती है। बिहार का समृद्ध अतीत रहा है। अभी कुछ दिन पूर्व ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा विश्वविद्यालय परिसर के नए कैम्पस का उद्घाटन किया था। नालंदा विश्वविद्यालय बिहार ही नहीं पूरे भारत की शान हुआ करता था। वर्तमान पटना शहर से लगभग 86 किलोमीटर दूर स्थित रहे इस विश्वविद्यालय की बाबत कहा जाता है कि इसकी स्थापना प्राचीन भारत के प्रभावशाली गुप्त राजवंश ने 450 ई. में की थी। प्रसिद्ध चीनी यात्री ९ेनत्सांग 7वीं शताब्दी में भारत बतौर छात्र और शिक्षक एक वर्ष तक यहां रहे थे। नालंदा विश्वविद्यालय की इतनी ख्याति थी कि यहां पड़ोसी देशों के विद्यार्थी भी अध्यन करने आते थे। अनेकों महत्वपूर्ण साम्राज्यों का केंद्र बिहार रहा है जिनमें मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य, पाल साम्राज्य शामिल हैं। अनादिकाल की बात करें तो भगवान राम का ससुराल मिथिला बिहार में ही थी। जैन धर्मगुरु भगवान महावीर बिहार के वैशाली में ही जन्मे थे। आचार्य चाणक्य इसी धरती में जन्मे। भगवान बुद्ध को जहां ज्ञान प्राप्त हुआ वह स्थान बौद्ध गया बिहार में ही है। कहने का आशय इतना भर कि बिहार का इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है। एक से बढ़कर एक राजनेता, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, लेखक, पत्रकार बिहार में जन्मे। आज लेकिन बिहार को ‘बीमारू’ राज्य कह पुकारा जाता है और बिहारी शब्द उपहास बन चुका है। ठीक इसी प्रकार उत्तराखण्ड का भी गौरवशाली अतीत रहा है। इसका उल्लेख प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों में मिलता है जिस कारण हम अत्यंत गर्व से इसे देवभूमि कह पुकारते हैं। भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक केदारनाथ यहीं है। महाभारत युद्ध के पश्चात आत्मग्लानि से पीड़ित पांडवों ने शिव से क्षमा याचना चाही थी। भगवान उनसे मिलना नहीं चाहते थे। इसलिए कहा जाता है कि वे एक बैल (नंदी) का रूप धारण कर हिमालय में जा छिपे। पांडवों ने उनको लेकिन खोज ही निकाला। अंततः शिव ने उन्हें दर्शन दे माफ कर दिया। शिव पांच अलग-अलग स्थानों पर प्रकट हुए जिन्हें पंच केदार कह पुकारा जाता है। पांचों केदार उत्तराखण्ड में ही हैं। 8वीं शताब्दी के रहस्यवादी, दार्शनिक और भारतीय दर्शन वेदांत के जनक आदिगुरु शंकराचार्य की समाधि केदारनाथ में ही है। कहा जाता है कि उन्हें ज्ञान की प्राप्ति बदरीनाथ में हुई थी और देवभूमि के देव तत्व से प्रभावित आदि शंकराचार्य ने इसी पवित्र धरा देवभूमि में केदारनाथ को अपना समाधि स्थल चुना था। इस धरा ने भी एक से बढ़कर एक राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, लेखक-पत्रकार इत्यादि इस देश को दिए हैं। आज लेकिन बिहार ‘बीमारू’ बन चुका है और उत्तराखण्ड तेजी से ‘बीमारू’ बनने की राह पकड़ चुका है। बिहार से देवभूमि की तुलना मैं यूं ही नहीं कर हा हूं। बिहार की औद्योगिकगति से पूरा देश परिचित है। जानवरों के चारा तक को जिस राज्य के राजनेता हजम कर गए और डकार तक नहीं ली, जहां भ्रष्टाचार ने शिष्टाचार का स्थान ले लिया हो, जहां के मुख्यमंत्री खुद को ‘सुशासन बाबू’ कह पुकारा जाना पसंद करते हों और सुशासन के नाम पर जिनके राज्य में एक के बाद एक कुशासन के उदाहरण सामने आते हों उस राज्य का ‘बीमारू’ कहलाया जाना तो बनता है। बीते हफ्ते ही मात्र 17 दिनों के भीतर यहां 12 पुल ढह गए, एक के बाद एक। जिस राज्य के कुल क्षेत्रफल का 73.06 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ प्रभावित रहा हो, वहां पुलों का गिरना पूरी शासन व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है। यहां भ्रष्टाचार केवल आर्थिक ही नहीं है, नैतिक आचरण में भी यहां इसकी पकड़ खासी मजबूत हो चुकी है। कभी महान विचारकों और दार्शनिकों की जन्म और कर्म भूमि रहे बिहार में अब विचार और दर्शन अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और इनकी बात करने वाला कोई यहां बचा नहीं है। नैतिक भ्रष्टाचार के लिए राजपुरुष ही अकेले दोषी नहीं हैं, आमजन भी पूरी तरह से इसकी चपेट में आ चुका है। यदि ऐसा न होता तो बार-बार अपनी वैचारिकता संग समझौता करने वाले नीतीश कुमार को जनता लगातार सत्ता नहीं सौंपती। उत्तराखण्ड का हाल ईमानदारी से कहूं तो बिहार से भी बदतर है। लम्बे संघर्ष के बाद अस्तित्व में आए इस प्रदेश का बंटाधार उन्हीं ने कर डाला जिनसे अपेक्षा थी, उम्मीद थी कि वे पहाड़ी सरोकारों को, जरूरतों को, संवेदनाओं को और पारिस्थितिकी की समझ रखते हैं इसलिए नवगठित राज्य के लिए इन्हीं सबको समेट एक ऐसा विकास पथ तैयार करेंगे जिसकी राह लम्बे अर्से से उत्तर प्रदेश के उपेक्षित पहाड़ देख रहे थे। 1971 में केंद्र शासित प्रदेश के स्थान पर पूर्ण राज्य बने हिमालय प्रदेश का यह सौभाग्य रहा कि उसे पहले मुख्यमंत्री के रूप में ऐसा व्यक्ति मिला जो पहाड़ के दर्द, पहाड़ की जरूरत, उसके सरोकार और उसकी आर्थिकी को समझता था। यशवंत परमार ने हिमालय की मजबूत नींव रखी। हमारे प्रदेश को पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बतौर ‘विकास पुरुष’’ ख्याति प्राप्त नारायण दत्त तिवारी मिले। निश्चित रूप से तिवारीजी ने नवगठित राज्य को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए बड़े कदम उठाए। सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र उन्हीं की बदौलत अस्तित्व में आया। तिवारी लेकिन उत्तर प्रदेश की अपसंस्कृति को भी अपने साथ लेकर आए जिसने भ्रष्टाचार रूपी पौधे को देवभूमि में शिष्टाचार बतौर बोया। यह पौंध अब विशाल वृक्ष में तब्दील हो राज्य की बुनियाद दरकराने का काम कर रही है।

बिहार संग उत्तराखण्ड की तुलना इस समय इसलिए क्योंकि दोनों ही राज्यों की स्थिति दिनोंदिन बदतर होती जा रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले ही खुद को सुशासन बाबू कहलाना पसंद करते हों, बीते पंद्रह वर्षों के दौरान बिहार की प्रगति कैसी रही, कितने घोटाले, कितनी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र वहां लीक हुए और वहां की राजनीति का स्तर कितना गिरा, इससे हम सभी भलीभांति परिचित हैं। अभी वर्षा ऋतु का आगमन हुआ ही है कि एक के बाद  एक पुल वहां ध्वस्त होने लगे हैं। ऐसा केवल इस बार ही नहीं, प्रत्येक वर्ष वहां होता है। इसी तर्ज पर उत्तराखण्ड चल रहा है। परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक हो रहे हैं, उद्यान विभाग किसानों की सब्सिडी को खुलेआम लूट रहा है, अंकिता भंडारी कांड सरीखे जघन्य अपराध बढ़ने लगे हैं, मानसून की दस्तक के साथ ही पहाड़ों का दरकना, पुलों का टूटना शुरू हो चला है। एक भी सरकारी विभाग ऐसा नहीं है जहां भ्रष्टाचार न हो। ऐसा तब जबकि बीते दस वर्षों से राज्य और केंद्र में एक ही दल भाजपा की सरकार है जो दावा करती है कि वह डबल इंजन की ताकत से काम कर रही है। वह यह भी दावा करती है कि उसका लक्ष्य भय, भूख और भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र का निर्माण करना है। हकीकत लेकिन इससे कोसों दूर है। बीते दस वर्षों के दौरान सबसे ज्यादा ह्नास राजनीति में देखने को मिला है। हर कीमत पर सत्ता पाने की चाह ने हमारे राजनेताओं को हर प्रकार की प्रतिबद्धता, चाहे वैचारिक हो या फिर राजनीतिक दल विशेष संग, से दूर कर डाला है। धर्मनिरपेक्षता की कसमे खाने वाले भगवामयी होने में देर नहीं लगा रहे हैं और भ्रष्टाचारियों को दंडित करने का संकल्प करने वाले हर भ्रष्टाचारी को अपना बनाने में तनिक गुरेज नहीं कर रहे। यही हाल रहा तो वह समय दूर नहीं जब उत्तराखण्ड देश के सबसे बर्बाद और भ्रष्ट राज्यों की सूची में प्रथम स्थान पर आ जाएगा।

बहुतों को मेरी बात नागवार गुजर सकती है। सच लेकिन यही है कि बीते 24 बरसों में उत्तराखण्ड का हाल बदहाल ही हुआ है। आज भी यहां का पानी और यहां की जवानी बर्बाद हो रही है। रोजगार के अवसर न पहले थे, न अब हैं। नशा पूरे प्रदेश को अपनी चपेट में ले चुका है। अवैध खनन की चपेट में आ मां गंगा समेत राज्य की सभी छोटी-बड़ी नदियां कराह रही हैं और चूंकि उनकी पीड़ा सुनी नहीं जा रही है इसलिए उनका कहर नाना प्रकार की आपदा को जन्म दे रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं का भारी टोटा उत्तर प्रदेश के समय में भी था, आज भी यथावत है। प्रदेश को यूं तो ‘ऊर्जा प्रदेश’ कह पुकारा जाता है लेकिन ऊर्जा की कमी का संकट भी हमेशा बना रहता है। न तो हम आयुष प्रदेश इन बीते 24 बरसों में बन पाए और न ही पर्यटन प्रदेश। पूरी व्यवस्था यहां एड्हॉक मैनेजमेंट की शिकार हो चुकी है। राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए दीर्घकालिक योजनाओं का सर्वथा अभाव है। कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है और इस कर्ज से प्राप्त होने वाली धनराशि की बंदरबांट विकास कार्यों की राह में सबसे बड़ी बांधा बन चुकी है।

मैं बीते 24 बरसों से उत्तराखण्ड की दशा-दिशा पर नजर रखने और उस पर अपने विचार रखने का काम करता आया हूं। अब पूरी तरह से मुझे यकीं हो चला है कि जिन सपनों को पूरा करने, जिन उद्देश्यों को प्राप्त करने, जिन संवेदनाओं को जिलाए रखने के लिए पृथक उत्तराखण्ड की मांग उठी थी, वह सब बर्बाद हो चला है और अब इस बर्बादी को रोक पाना वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत सम्भव प्रतीत नहीं होता है। कवि दुष्यंत ने ऐसे ही हालातों के दृष्टिगत् लिखा था –

कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहां दरख़्तों के साए में धूप लगती है
चलों यहां से चलें और उम्र भर के लिए…।

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