अठारहवीं लोकसभा के लिए जनप्रतिनिधियों को चुनने का महोत्सव चुनाव आयोग द्वारा आम चुनाव की तारीखें घोषित किए जाने के साथ ही शुरू हो चुका है। 543 जनप्रतिनिधियों को देश की शीर्ष पंचायत के लिए चुना जाना है। यह पंचायत जिसे लोकसभा कहा जाता है, केंद्र की सत्ता की कुंजी है। जाहिर है सत्ता पर बने रहने के लिए सत्तारूढ़ दल और सत्तारूढ दल को बेदखल कर खुद सत्तासीन होने के लिए विपक्षी दल इस महोत्सव के मुख्य किरदार हैं और इन्हें चुनने वाला लोक मूक तमाशबीन। लोकतंत्र में लोक का मूक तमाशबीन बन रह जाना हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी है। ऐसी कमजोरी जिसके जाल में वह स्वयं जा फंसा है और अब पिचहत्तर बरस की आजादी बाद के भारत में उसमें इतनी समझ और शक्ति नहीं कि वह इस जाल को तोड़ सके, सही अर्थों वाले लोकतंत्र के लिए लड़ सके। यह सच है कि उसे इस जाल में फंसाने वाले बहेलिए हैं हमारे राजनेता, हमारे देश की राजनीति, लेकिन उससे भी बड़ा सच यह कि इस जाल में फंसने वाला लोक इसी के योग्य था और है। इस जाल को जाति और धर्म के ताने-बाने में बुना गया। विशाल विविधता वाले समाज को इसी विविधता की ओट में बांटने का काम आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो चला था। पिचहत्तर बरस की यात्रा के दौरान ‘बांटो और राज करो’ की राजनीति जमकर फली-फूली और लोकतंत्र की बुनियाद को दरकाती चली गई। इस बांटने की राजनीति के खेला को कांग्रेस ने जमकर परवान चढ़ाया था और वर्तमान में इसे ही सफलता की कुंजी मान भाजपा अपना खेला सफलतापूर्वक कर रही है। आजादी उपरांत नेहरू और शास्त्री के प्रधानमंत्रित्वकाल के दौरान राजनीति में शुचिता और आदर्शवाद काफी हद तक जीवित नजर आता है। लंबे समय तक अंग्रेज सत्ता से लड़ने वाले, बरसों जेल में रह चुके आजादी के मतवालों में सत्ता के प्रति असीम प्रेम और सत्ता से मिलने वाले सुखों के प्रति अनियंत्रित भूख भले ही 1947 के तुरंत बाद जगने लगी थी किंतु आदर्शवादिता और महात्मा गांट्टाी के मूल्यों का असर इस भूख को काफी हद तक नियंत्रित करने का बड़ा कारक बना हुआ था। शास्त्री की मृत्यु पश्चात हालात इस तेजी से बदले कि सार्वजनिक जीवन से आदर्शवाद को हवा होते देर नहीं लगी। इस देश के महानायक जवाहर लाल नेहरू की एकमात्र संतान इंदिरा गांट्टाी ने इस कुसंस्कारी राजनीति को प्रश्रय देने का काम जमकर किया था। शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा अपने पिता के ठीक विपरीत तानाशाह प्रवृत्ति की थीं। उन्हें यह मुगालता था कि भारत देश उनके हाथों ही सुरक्षित रह सकता है। यह मुगालता हरेक तानाशाह के डीएनए का हिस्सा होता है। इंदिरा गांधी में यह कूट- कूट के भरा था। चीनी मूल के अमेरिकी विचारक लुसियन पाई राजनीतिक संस्कृति की बाबत कहते हैं-‘Political culture is the set of attitudes, beliefs, and sentiments, which give order and meaning to a political process and which provides there underling assumptions and rules that govern behavior in the political system’ (राजनीतिक संस्कृति दृष्टिकोण, विश्वास और भावनाओं का समूह है, जो राजनीतिक प्रक्रिया को आदेशित करते हैं और उसे निश्चित अर्थ देते हैं जिससे धारणाएं और नियम बनते हैं जो राजनीतिक व्यवस्था में व्यवहार को नियंत्रित करते हैं।) इंदिरा गांट्टाी ने ऐसी राजनीतिक संस्कृति को परवान चढ़ाया जो उनके सत्ता में बने रहने में प्रभावशाली सहायक का काम करती थी। आज जब चौतरफा बुद्धिजीवियों और चैतन्य नागरिकों का एक बड़ा वर्ग देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के कमजोर होने और अघोषित तानाशाही होने पर लगातार अपनी चिंता सामने रख रहा है, मुझे रघुवीर सहाय की दशकों पहले लिखी कविता याद आ रही है जो मेरे इस कथन को पुष्ट करती है कि वर्तमान हालात उस राजनीतिक अपसंस्कृति के चलते मजबूत हुए हैं जिन्हें साठ-सत्तर के दशकों में इंदिरा जी ने परवान चढ़ाया था। सहाय ने लिखा-‘…पूरब-पश्चिम से आते हैं नंगे-बूचे नरकंकाल/सिंहासन पर बैठा उनके तमगे कौन लगता है/कौन-कौन है वह जन-जण-मन अधिनायक वह महाबली/डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज बजाता है।’ कवि के भाव यह स्पष्ट करने के लिए काफी हैं कि इस मुल्क का लोकतंत्र आज नहीं, दशकों पहले से ही बर्बादी की राह पकड़ चुका था, यह जरूर कहा जा सकता है कि पहले उसने बर्बादी की पगडंडी पकड़ी, आपातकाल के दौर में पगडंडी से हाइवे में आ गया और फिर लंबे समय तक इस हाइवे में चलते-चलते अब वह एक्सप्रेस वे पर चढ़ चुका है। इस यात्रा मार्ग का निर्माण अवश्य ही हमारी राज व्यवस्था ने किया लेकिन चढ़े हम अपनी मर्जी, अपनी समझ के आधार पर हैं। ऐसे में जो वर्तमान समय में लोकतंत्र को खतरे में मान रहे हैं और अघोषित आपातकाल की बात कह रहे हैं, मेरा प्रश्न उनसे है कि इस अवस्था के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या अकेले हमारे राजपुरुष? या फिर इस मुल्क का लोक भी? यह यक्ष प्रश्न है, कटु सत्य है जिस पर चिंतन-मंथन किया जाना सबसे ज्यादा जरूरी है। संकट यह कि हम विचारधाराओं की गोलबंदी में इतना गहरा घंसे-फंसे रहते हैं कि सच से मुंह चुराने का काम करते रहने के आदी हो चले हैं। ठीक वैसे ही जैसे बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को हम संविधान निर्माता के रूप में दिन-रात याद करते हैं, हमारे राजनेता पार्टी लाइन से हटकर उन्हें प्रतिदिन सराहते हैं लेकिन कोई भी यह सच कहने का साहस नहीं करता कि आजादी की लड़ाई में अंबेडकर अंग्रेजों के साथ खड़े साफ-साफ दिखाई देते हैं। इतिहास की यात्रा कीजिए सच मुंह बांए सामने खड़ा नजर आ जाएगा। आज का भारत पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मोहपाश में बंध चुका है। चौतरफा संघ के राष्ट्र प्रेम की चर्चा इस देश का आम और खास करता रहता है लेकिन इस सच से हर कोई मुंह चुराता है कि आजादी के संग्राम में संघ ने कभी भी कोई सकारात्मक भूमिका अदा नहीं की थी। राजनीति और राजनेताओं का चरित्र विश्वभर में एक समान होता है। उनका लक्ष्य जन की सेवा से कहीं अधिक स्वसेवा और सत्ता संग हर कीमत बने रहना है। फिर चाहे पश्चिमी उन्नत मुल्क हों या फिर एशियाई देश। फर्क जन की समझ का है। जहां कहीं भी जन जागरूक है या जागरूक हो जाता हैं वहां की व्यवस्था खुद-ब-खुद ठीक हो जाती है। जहां का जन मुर्दा समान होता हैं, उस समाज का हश्र ठीक वैसा ही है जैसा दशकों से हमारा बना हुआ है। बेल्जियम के लेखक और विचारक एरिक पेवेर्नगी का कथन यहां पर सटीक बैठता है कि ‘In the land of ostriches, the blind are king. When politicians bury their head in the sand, ignorance rules the country’ (शुतुरमुर्गों के देश में अंधे राजा बन जाते हैं। जब राजनेता अपना सिर रेत में छिपा लेते हैं तो देश पर अज्ञानता हावी हो जाती है।) अपने मुल्क का यही हाल है जिन इंदिरा जी ने तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रख आपातकाल लगाया उन्हीें को मात्र ढ़ाई बरस सत्ता से बाहर रख एक बार फिर से सत्ता सौंप दी थी। बहुत सारे कह सकते हैं कि विकल्पहीनता के अभाव में जनता के पास कोई चारा नहीं था। मैं लेकिन मानता हूं कि विकल्प हमेशा मौजूद था, आज भी हैं लेकिन जाति, धर्म और वर्तमान में मुफ्त का राशन आदि ने जन को अंधा बना डाला है, नतीजा चौतरफा हो रहा नैतिक मूल्यों का, लोकतांत्रिक आदर्शों का क्षरण है और इसके लिए हमारे राजपुरुषों से कहीं ज्यादा हम यानी देश का लोक जिम्मेदार है।
अठारहवीं लोकसभा के चुनाव बाद सत्ता में यदि निरंतरता बनी रहती है तो भी और यदि परिवर्तन होता है तो भी बदलने वाला कुछ नहीं है क्योंकि बुनियादी तौर पर हमारा समाज पूरी तरह से और हर दृष्टि से भ्रष्ट हो चला है। यही कारण है कि हमारी सोचने-विचारने की क्षमता समाप्त हो चली है और हम उन ‘जादूगरों’ के हाथ की कठपुतली बन चुके हैं जिन्हें हर कीमत सत्ता में आने रहने का हुनर हासिल है। एरिक पेवेर्नगी का ही एक और कहा हमारे वर्तमान समय को सटीक बयां कर देता है-‘Many politicians are tentalizing storytellers, as they mix facts with fiction, grab our emotions and tell things, they want us to believe, Their factoids are unremittingly reiterated, take a life on their own and in the end become the very truth…untill the bubble bursts’ (कई राजनेता शानदार कहानीकार हैं क्योंकि वे तथ्यों को कल्पना के साथ मिला हमारी भावनाओं को पकड़ते हैं और ऐसी बातें कहते हैं जिन पर वे चाहते हैं कि हम विश्वास करें। वे अपने कहे को लगातार दोहराते रहते हैं जब तक वह सच न मान लिए जाएं…तब तक जब यह बुलबुला फूट न जाए) जो समझदार हैं वे अवश्य ही सहमत होंगे कि ऐसा ही कुछ हमारे लोकतंत्र का सच है। यह सच बना रहेगा तब तक जब तक यह बुलबुला फूट न जाए। हालांकि एक सच और भी है। यह बुलबुला कभी न कभी फूटेगा तो अवश्य लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि नए सत्ताधीश इस मुल्क में सच्चा लोकतंत्र स्थापित कर पाऐंगे। यह ऐतिहासिक और स्थापित सत्य है कि हर क्रांति अंततः दमन का नया मुखौटा बन रह जाती है। रूस की बोल्शेविक क्रांति से इसे समझा जा सकता है। हमारे समय में अन्ना आंदोलन के गर्भ से जन्मी आम आदमी पार्टी का सच भी हमारे सामने है। देश को आजादी दिलाने वाली गांधी की कांग्रेस का सच हो या फिर अपने चाल-चरित्र और चेहरे को पाक साफ बता उच्च आदर्शों की बात करने वाली भाजपा, सभी की चाल-ढाल टेड़ी है। इस सच को समझते हुए भी कि कुछ खास इस मुल्क में बदलने वाला नहीं, परिवर्तन होना चाहिए ताकि जैसा भी है, कम से कम उतना तो लोकतंत्र बचा रह सके।