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Editorial

नेहरू राज में भूअतपूर्व तरक्की के मार्ग खुले

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-50
 

बीसवीं सदी के विचारक और दार्शनिक जॉन राल्स ऐतिहासिक मनुष्यों के मूल्यांकन का सही तरीका बताते हुए कहते हैं ‘Giants of the past had to be understood in the context of their times rather than ours’ (अतीत के महापुरुषों को उनके समय के अनुसार समझा जाना चाहिए, न की हमारे समयानुसार)। नेहरू को भी उनके समय, काल और परिस्थितियों अनुसार समझा जाना चाहिए। नेहरू की आर्थिक नीति उनके द्वारा शुरू की गई पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए परखी जा सकती है। इन योजनाओं के जरिए नेहरू सरकार ने औद्योगिकरण को बढ़ावा दे आय में बढ़ोतरी का लक्ष्य रखा। बड़े स्तर पर नेहरूकाल में भारी उद्योग के कल कारखानों पर सरकार ने पूंजी निवेश किया जिसका नतीजा रहा भाखड़ा नंगल, हीराकुंड और नागार्जुन सागर डैम का निर्माण, भिलाई, राउलकेला और दुर्गापुर में बड़े स्टील प्लांट, एचएमटी, एचईएम, सीमेंट कॉरपोरेशन, इंडियन ऑयल, ओएनजीसी, बीपीसीएल, एचपीसीएल, एनटीपीसी, बीएचईएल, पॉवर ग्रिड कॉरपोरेशन इत्यादि सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कंपनियों की स्थापना इत्यादि। 1947 में विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भारत का योगदान मात्र 3 प्रतिशत और विश्व की कुल कमाई में हमारा हिस्सा मात्र 3.8 प्रतिशत था। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ . मनमोहन सिंह के शब्दों में ‘The brightest jewel in the British crown was the poorest Country in the world in terms of per capita income at the begining of the 20th Century’ (ब्रिटिश ताज का सबसे जगमगाता हीरा प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व का सबसे गरीब देश बीसवीं सदी की शुरुआत में था।) नेहरू सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं में इसी गरीबी को मिटाने के लिए सबसे ज्यादा पूंजी निवेश भारी उद्योग के क्षेत्र में किया गया। भाखड़ा नंगल डैम एक करोड़ एकड़ की भूमि को सिंचित करता है और इससे 1500 मेगावाट बिजली का उत्पादन भी किया जाता है। नेहरू काल में निर्मित ऐसे बांधों से ही देश की कुल जल विद्युत ऊर्जा का 92 ़5 प्रतिशत उत्पादन होता है। नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था उस समय की दरकार थी। 1945 में चुनिंदा भारतीय उद्योगपतियों, जिनमें जेआरडी टाटा और घनश्यामदास बिड़ला शामिल थे, द्वारा आर्थिक नीतियों की बाबत एक योजना जिसे ‘बॉम्बे प्लान’ कहा जाता है, सरकार के समक्ष रखी गई थी जिसमें स्पष्ट तौर पर चिÐत किया गया था कि बगैर सरकारी सहभागिता के अर्थव्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जा सकता है। नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल पर इस प्लान का भारी प्रभाव देखने को मिलता है। नेहरू वैश्विक दृष्टि और वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति थे। विज्ञान और तकनीक पर उन्हें अटूट विश्वास था। उनकी इसी दृष्टि का परिणाम है कि हमारे पास एक से बढ़कर एक उच्चस्तरीय शिक्षण संस्थान, रिसर्च सेंटर और तकनीकी संस्थाएं हैं। अमेरिका के ख्याति प्राप्त मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी का नेहरू ने 1949 में दौरा किया था। उनकी इस यात्रा का परिणाम आईआईटी, खड़कपुर (1950) आईआईटी, बॉम्बे (1958) आईआईटी, मद्रास (1959) आईआईटी कानपुर (1959) और आईआईटी, दिल्ली (1961) के रूप में हमारे सामने हैं। ये सभी संस्थाएं केंद्र सरकार द्वारा स्थापित की गई विश्वस्तरीय संस्थाएं हैं जो नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था की ही देन हैं। 1941 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत की संभावित आजादी पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था ‘The wheels of faith will someday compel the English to give up their Indian Empire. What kind of India will they leave behind? what stark misery? when the stream of their centuries administration runs dry at last, what a waste of mud and filth will they leave behind them’ (भाग्य का चक्र किसी दिन अंग्र्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़ने पर मजबूर कर देगा। वे कैसा भारत छोड़ें़गे? कौन-सी घोर विपत्ति? जब सदियों की उनकी सत्ता की धारा सूख जाएगी तो अपने पीछे वे कितनी गंदगी और कितना कीचड़ छोड़ जाएंगे।)

वर्ष 1947 में जब यह धारा सूखी तो अंग्रेज ऐसा भारत भारतीयों के हवाले कर गए जिसमें चौतरफा हिंसा, भुखमरी, अकाल, अलगाववाद रूपी कीचड़ का साम्राज्य था। नेहरू ने इसे अपनी दूरदृष्टि, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति चरम आस्था और वैज्ञानिक सोच के सहारे साफ करने का काम किया। विज्ञान के प्रति उनका दृष्टिकोण भारत को आत्मनिर्भर बनाने की नींव बना। आर्थिक संकट का सामना कर रहे देश को नेहरू ने विज्ञान का महत्व समझते हुए 1948 में कहा ‘Science has no frontiers. nobody ought to talk about English science, French science, American science or Chinese science, science is bigger than Countries’ (विज्ञान सीमा रहित है। कोई भी यह नहीं कह सकता कि यह अंग्रेज विज्ञान है, फ्रैंच विज्ञान है, अमेरिकी विज्ञान है अथवा चीनी विज्ञान है। विज्ञान देशों से कहीं ज्यादा बड़ा है।) अपनी इसी सोच को नेहरू ने बतौर प्रधानमंत्री अपनी नीतियों में लागू कर आधुनिक भारत का निर्माण शुरू किया। विज्ञान के प्रति नेहरू की आस्था का ही परिणाम है भारत के वे कल-कारखाने और संस्थान जिन्हें नेहरू ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कह पुकारते थे। परमाणु ऊर्जा विभाग (1954), भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर (1954), नेशनल केमिकल लेबोरेटरी (1950), फिजिक्ल रिसर्च लेबोरेटरी (1947), इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो, 1962), नेशनल मेटलर्जिकल लैब (1950) आदि नेहरू काल की ही देन हैं। नेहरू ने केंद्र सरकार के बजट का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं के निर्माण में लगा एम्स सरीखे उच्च स्तरीय शोध संस्थानों और मेडिकल कॉलेजों की शुरुआत की। 1946 में देश में मात्र 15 मेडिकल कॉलेज थे जो 1965 में 81 हो गए। नेहरू ने ही 1952 में ‘नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ विरोलॉजी’ की नींव रखी जिसका महत्व कोविड-19 संक्रमण के दौर में देश समझ सकता है। 1951 में चेचक एक महामारी थी जिसकी चपेट में आकर 148,000 मौतें हुई थीं। दस बरस के भीतर एक वृहद अभियान चला इस महामारी पर काबू पाया गया। 1961 में मात्र 12,300 मौतें इस बीमारी के चलते रिकॉर्ड की गईं। प्लेग, कोढ़, टाइफाइड, निमोनिया, रैबीज, मैनिन्नजाइटिस आदि कई प्राणघातक बीमारियों का निदान सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं के जरिए इस काल में किया गया।
नेहरू सरकार की प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं (1951-1965) का असर औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिवर्ष 7 प्रतिशत की बढ़त से समझा जा सकता है। इन 16 वर्षों के दौरान उपभोक्ता वस्तु उद्योग में 70 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में अभूतपूर्व तरक्की के मार्ग खुले। 1947 में 90 प्रतिशत औद्योगिक वस्तुएं आयात की जाती थीं। 1960 आते-आते यह आयात घटकर 45 प्रतिशत रह गया। आजादी के समय भारतीयों के हाथों भारत के भविष्य को लेकर नाना प्रकार के पूर्वाग्रहों और आशंकाओं का बोलबाला था। भारत में ब्रिटिश सेवा के वरिष्ठ अधिकारी और लेखक सर पर्सिवल ग्रिफिथ्स ऐसों में शामिल थे जिन्हें आजादी बाद भारत के भविष्य को लेकर भारी शंकाएं थी। 1957 में उन्होंने भारत की खाद्य क्षमताओं पर लिखा- ‘स्वतंत्रता के बाद भारत का खाद्यान्न उत्पादन शानदार रहा और भारत वह कर पाने में सफल रहा जिसे मैं असंभव मान रहा था…यह महसूस किए बिना कि देश एक नए गतिशील चरण में प्रवेश कर चुका है, भारत की यात्रा करना असंभव था’। 1961 में ब्रिटिश अर्थशास्त्री बारबरा वार्ड ने लिखा ‘भारत में निरंतर विकास की प्रक्रिया जारी है…कृषि समेत सभी क्षेत्रों में पूंजी निवेश, पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं के मध्य लगभग दोगुना उत्पादन और बुनियादी ढांचे और उद्योग, दोनों में भारत रिकॉर्ड स्तर पर प्रगति पथ पर है…1900-1949 के बीच 40 से अधिक वर्षों की शून्य विकास दर से, भारत ने 1962 तक विकास दर को 4 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ते हुए देखा जो चीन और जापान से कहीं आगे है।’ अमेरिकी राजनीति शास्त्री माइकल ब्रेचर के शब्दों में ‘What ever progress has been achieved is primarily due to the efforts of the Prime Minister, indeed he is the heart and soul and mind of Indias heroic struggle to raise the living standards of its 390 million pepole’ (जो कुछ भी प्रगति हुई है वह मुख्य रूप से प्रधानमंत्री के प्रयासों के कारण है। वास्तव में वह भारत के 39 करोड़ लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए भारत के संघर्ष के दिल-दिमाग और आत्मा हैं)।
नेहरू की आर्थिक नीतियों के आलोचक भी इस बात को स्वीकारते हैं कि उनके शासनकाल के दौरान विभिन्न सेक्टरों में किया गया पूंजी निवेश मजबूत भारत की तरफ बढ़ा सबसे महत्वपूर्ण कदम था। अर्थशास्त्री राजकृष्ण के अनुसार ‘एक उपमहाद्वीपीय अर्थव्यवस्था में, एक विशाल बाजार, प्रचुर प्राकृतिक संसाधन, कुशल-अकुशल विशाल श्रम शक्ति होने के चलते आधारभूत ढांचे का निर्माण करना ऐतिहासिक आवश्यकता थी। यदि आज हम बड़े पैमाने पर आत्मनिर्भरता का दावा कर सकते हैं, तो इसका कारण है धातु उद्योग, यांत्रिकी, रसायन, बिजली और परिवहन के क्षेत्र में भारी क्षमता का निर्माण…नेहरू और उनके सभी योजनाकारों ने कृषि को विशेष महत्व दिया था। सार्वजनिक क्षेत्र के बजट का पांचवा हिस्सा लगातार कृषि उत्पादन और उस उत्पादन के प्रसंस्करण के लिए आवंटित किया गया था।’

क्रमशः

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