पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-48
वर्ष 1954 में अपनी चीन यात्रा से पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की बाबत एक शासकीय आदेश जारी कर सीमांकन को स्पष्ट रूप से चिहत करने के निर्देश दिए थे। भारतीय नक्शों में मैकमोहन रेखा को आधार बनाते हुए अक्साई-चीन को भारत में दर्शाया गया लेकिन तब भी चीन ने इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। ‘1956 में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-इन-लाई ने एक बार फिर से भारत को आश्वस्त किया कि चीन की किसी भी भारतीय इलाके पर कोई दावेदारी नहीं है। हालांकि इस समय पर प्रकाशित चीन के नक्शों में भारत के 120,000 वर्ग किलोमीटर इलाके को चीन का हिस्सा बताया गया था।’ अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के गोपनीय दस्तावेजों के अनुसार नेहरू को बर्मा के प्रधानमंत्री बा स्वे (Ba swe) ने तब चाओ-इन-लाई पर भरोसा न करने की सलाह दी थी जिसे नेहरू ने नजरअंदाज कर दिया था। इन दस्तावेजों के अनुसार चाओ-इन-लाई ने नेहरू को भरोसा दिलाया था कि भारत संग चीन का कोई सीमा संबंधी विवाद नहीं है। नेहरू हालांकि चीन के इन आश्वासनों से पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे लेकिन उनको चीन द्वारा भारत में आक्रमण किए जाने की भी कतई आशंका नहीं थी। 1958 में उन्होंने चीन में भारत के राजदूत जी पार्थासार्थी से कहा था कि चीन पर पूरी तरह भरोसा कतई न किया जाए और उनकी गतिविधियों की बाबत हर रिपोर्ट रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के बजाए सीधे उन्हें भेजी जाएं। नेहरू के इस कथन के पीछे 1956 में चीन द्वारा तिब्बत से सटे अपने शिनक्यांग (Sinkiang) शहर से अक्साई-चीन तक गुपचुप तरीके से सड़क बनाया जाना था। ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के दौर में बगैर भारत को विश्वास में लिए चीन ने इस सड़क का निर्माण शुरू कर अक्टूबर, 1957 तक यह मार्ग पूरा कर अपनी सेनाओं के आवागमन का रास्ता तैयार कर डाला था। इस जानकारी के बाहर आने के बाद से ही दोनों देशों के मध्य तनाव बढ़ने लगा जो मार्च, 1959 में तब अपने चरम पर जा पहुंचा जब भारत ने तिब्बतियों के शीर्ष धर्म गुरु दलाई लामा को भारत में राजनीतिक शरण देने का निर्णय लिया।
भारत और चीन की सेनाओं में छिटपुट टकराहट 1959 की शुरुआत के साथ ही होने लगी थी। अक्साई-चिन इलाके में विशेषकर चीनी और भारतीय सेनाओं के मध्य तनाव गहराने लगा। ऐसे में 31 मार्च, 1959 के दिन गुपचुप तरीके से तिब्बत छोड़ भारत पहुंचे दलाई लामा को नेहरू द्वारा राजनीतिक शरण दिए जाने का ऐलान चीन संग तनाव को तेजी से बढ़ाने का कारण बन गया। 1950 में चीन द्वारा तिब्बत में अपनी सेना तैनात किए जाने के बाद से ही वहां चीन का भारी विरोध स्थानीय तिब्बतियों द्वारा किया जा रहा था। 1958 में पूर्वी तिब्बत के खम्पास ;ज्ञींउचेंद्ध क्षेत्र में सशक्त संघर्ष ने चीन की सेना को बड़ा नुकसान पहुंचाने का काम किया। हालांकि इस विद्रोह पर जल्द ही चीन ने काबू पा लिया लेकिन तिब्बती धर्म गुरु को लेकर उसकी आशंकाएं बढ़ गईं। जुलाई, 1958 में चीन की सरकारी पत्रिका ‘चायना पिकटोरियल’ में एक नक्शा प्रकाशित किया गया जिसमें लद्दाख और नेफा (नॉर्थ-ईस्ट फंट्रियर एरिया) के बड़े हिस्से को चीन का भू-भाग दर्शाया गया था। सीमा विवाद, विशेषकर चीन द्वारा गुपचुप तरीके से शिनक्यांग और तिब्बत के मध्य सड़क जो लद्दाख के पूर्वी इलाके से होकर गुजरती है, को लेकर भारतीय और चीनी प्रधानमंत्री के मध्य 1958 में कई बार हुए पत्राचार से स्पष्ट होता है कि चीन ने अपनी घोषित नीति में बड़ा बदलाव करते हुए भारत संग अपनी सीमाओं का विस्तार करना शुरू कर दिया था। दिसंबर, 1958 में चाऊ-इन-लाई को लिखे अपने पत्र में नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि ‘वे स्वयं इस बात को कह चुके हैं कि दोनों देशों के मध्य कोई सीमा विवाद नहीं है। इसके बावजूद ‘चायना पिकटोरियल’ में चीन की सीमा भारत के भीतर दर्शाई गई है। जनवरी, 1954 में नेहरू को इस पत्र का उत्तर देते हुए चाऊ-इन- लाई ने लिखा ‘ऐतिहासिक दृष्टि से भारत और चीन के मध्य सीमाओं को लेकर कभी कोई संधि अथवा समझौता नहीं हुआ है। मैकमोहन रेखा ब्रिटिश सत्ता की आक्रामक नीति का परिणाम थी। जिस सड़क की बात भारतीय कर रहे हैं, वह दरअसल हमेशा से ही चीन अधिपत्य वाला इलाका है।’ नेहरू ने इसके प्रति उत्तर में मार्च, 1959 में विस्तारपूर्वक कई समझौतों और संधियों का हवाला देते हुए चीन के प्रधानमंत्री को लिखा कि हमारे पास इस इलाके के भारत में होने के बहुत से प्रमाण मौजूद हैं। इस पत्र का कोई जवाब चीन ने नहीं दिया। इसी बीच मार्च, 1959 में दलाई लामा भारत आ गए और उन्हें नेहरू ने राजनीतिक शरण दे डाली। इससे कुपित चीन ने भारत पर मैत्री तोड़ने और अमेरिकी दबाव में आकर तिब्बती विद्रोहियों को उकसाने का आरोप लगा डाला।
नेहरू हालांकि देश और कांग्रेस के सर्वमान्य नेता इस दौर में भी बरकरार थे लेकिन उनकी नीतियों को लेकर उनके विरोधी अब मुखर होने लगे थे। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू का टकराव प्रथम राष्ट्रपति डॉ ़राजेंद्र प्रसाद संग बढ़ रहा था। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन संग भी नेहरू के रिश्तों में तनाव रहने लगा था। 1951 में टंडन की नीतियों को दक्षिणपंथी करार देते हुए आचार्य जेपी कृपलानी ने कांग्रेस से त्याग पत्र दे किसान मजदूर प्रजा पार्टी का गठन कर लिया। नेहरू ने कृपलानी के कांग्रेस छोड़ने को मुद्दा बना पुरुषोत्तम दास टंडन के खिलाफ मोर्चा खोल डाला जिसका नतीजा रहा सितंबर, 1951 में टंडन का इस्तीफा और नेहरू का फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनना। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के साथ भी नेहरू के संबंध खास सौहार्दपूर्ण कभी नहीं रहे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही दोनों के मध्य परस्पर अविश्वास का भाव पनपने लगा था। राजेंद्र प्रसाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और आचार्य कृपलानी ने तीस के दशक से ही नेहरू की समाजवादी नीतियों का विरोध कांग्रेस भीतर करना शुरू कर दिया था। यह विरोध राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपतिकाल के दौरान लगातार बना रहा। 1951 में जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने गुजरात स्थित सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण बाद उसके विधिवत उद्घाटन कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनने के लिए अपनी सहमति दी तब यह विरोध सार्वजनिक तौर पर देखने को मिला। नेहरू ने प्रसाद को इस बाबत एक पत्र लिखकर इस कार्यक्रम में भाग न लेने की सलाह दी थी। प्रसाद ने अपने प्रधानमंत्री की सलाह दरकिनार कर सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन किया। नेहरू का मानना था कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधान को धार्मिक आयोजनों में शरीक नहीं होना चाहिए। प्रसाद लेकिन सर्वधर्म सम्मान के सिद्धात का हवाला दे ऐसे आयोजनों में शामिल होना जायज मानते थे। संविधान सभा के अध्यक्ष रहे राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर नेहरू सरकार के समक्ष कुछ महत्वपूर्ण बिंदू रख सरकार की चिंताओं में इजाफा और प्रधानमंत्री नेहरू संग टकराव का रास्ता खोल डाला। उनका मानना था कि बतौर राष्ट्रपति वे संसद द्वारा पारित किसी भी बिल को रोक सकते हैं, किसी भी राज्य सरकार अथवा मंत्री को बर्खास्त कर सकते हैं, आवश्यकता पड़ने पर कभी भी आम चुनाव करा सकते हैं और सेनाओं के प्रमुख होने के नाते रक्षा मामलों की जानकारी सीधे सेनाध्यक्षों से मंगा सकते है। नेहरू राष्ट्रपति द्वारा उठा गए इन बिंदुओं से इतने चिंतित हुए कि उन्होंने तत्कालीन महाअधिवक्ता एम.सी. सीतलवाड़ से विधिक राय देने को कहा। सीतलवाड़ ने राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर जो विधिक राय नेहरू सरकार को दी उससे इस मसले पर तो विराम लग गया लेकिन नेहरू और प्रसाद के मध्य तनाव और तकरार जारी रहा। सीतलवाड़ ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित कानूनों को रोक नहीं सकते हैं, किसी मंत्री को सीधे बर्खास्त नहीं कर सकते हैं, लेकिन किसी सरकार को बर्खास्त कर चुनाव कराए जाने की शक्ति राष्ट्रपति के पास निहित है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति सीधे सेनाध्यक्षों से रक्षा मामलों की जानकारी नहीं मांग सकते किंतु रक्षा मंत्री के जरिए ऐसा कर सकते हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के मध्य इस कदर तनाव इस दौर में रहा कि नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को दोबारा राष्ट्रपति न बनाए जाने का मन बना लिया। वे उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को 1957 में राष्ट्रपति बनाना चाहते थे लेकिन कांग्रेस भीतर प्रसाद की लोकप्रियता चलते ऐसा हो नहीं पाया था। नेहरू के करीबी नेताओं तक ने राजेंद्र प्रसाद को ही दोबारा चुने जाने पर बल दिया और इस तरह प्रसाद 1962 तक अपने पद पर बने रहे। इन दो दिग्गज नेताओं के मध्य ‘हिंदू कोड बिल’ भी मतभेद का एक बड़ा कारण था। संविधान निर्माण के दौरान ही नेहरू और अंबेडकर समान अचार संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) बनाए जाने के प्रबल पक्षधर थे। इस मुद्दे पर संविधान सभा में गरमागरमी हुई थी। सभा के मुस्लिम सदस्यों ने अपने धार्मिक कानूनों के स्थान पर संविधान प्रदत्त समान नागरिक कानून लाए जाने का घोर विरोध तब किया था। एक सदस्य के अनुसार ‘As far as the Mussalmans are concerned, their law of accession, inheritance and divorce are completely dependent upon their religion'(जहां तक मुसलमानों की बात है तो हमारे विरासत कानून, विलय और तलाक पूरी तरह हमारे धर्म पर निर्भर करते हैं।) डॉ ़ अंबेडकर ने इस तरह के (कु)तर्कों को खारिज करते हुए जोर दिया कि पुराने समय के समाज में धर्म का जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप था लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में इसे समाप्त अथवा कम किया जाना जरूरी है ताकि अपेक्षित सामाजिक सुधार लाए जा सकें।