भारतीय राजनीति का वर्तमान दौर अजब-गजब किस्म के विरोधाभाषों का दौर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतरराष्ट्रीय मंच पर जवाहर लाल नेहरू की तर्ज पर टहलते नजर आ रहे हैं। हालिया संपन्न जी-20 समूह सम्मेलन के बाद निश्चित तौर पर भारत का और भारतीय प्रधानमंत्री का कद विश्व में बढ़ा है। दिल्ली घोषणा पत्र इसका उदाहरण है जिसमें रूस-यूक्रेन युद्ध की छाया मोदी की सफल कूटनीति ने नहीं पड़ने दी। भारतीय हितों को सर्वोपरि मानने की रणनीति इस घोषणा पत्र में स्पष्ट नजर आती है। यूक्रेन के मित्र राष्ट्रों की नापसंदगी को दरकिनार करते हुए भारत ने इसमें रूस के खिलाफ निंदा का एक शब्द भी शामिल नहीं होने दिया। यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दृष्टि से भारत की बड़ी जीत है। स्मरण रहे आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत को वैश्विक स्तर पर मजबूती के साथ खड़ा करने का काम किया था। तब हमारी गिनती निर्धन और अशक्त देशों में की जाती थी। विभाजन की त्रासदी चलते हम पूरी तरह अस्त-व्यस्त और त्रस्त मुल्क थे। चौतरफा हिंसा और भुखमरी पसरी हुई थी। इसके बावजूद नेहरू की दूरदृष्टि ने निर्गुट आंदोलन को जन्म दिया और शीतयुद्ध के दौर में दो महाशक्तियों-सोवियत संघ और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से इतर एक पृथक अंतरराष्ट्रीय मंच तैयार करने का साहस दिखाया। आज भारत के हालात बदल चुके हैं और वैश्वीकरण के दौर में भारत के बाजार की जरूरत विश्व के विकसित राष्ट्रों की मजबूरी बन चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस मजबूरी को भारत की ताकत में बदलने का काम बखूबी कर दिखाया है। चीन और रूस के राष्ट्रध्यक्षों की अनुपस्थिति के चलते ऐसी आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी थीं कि यह सम्मेलन बगैर सामूहिक घोषणा पत्र जारी हुए ही समाप्त हो जाएगा। मोदी सरकार की कुशल रणनीति और कूटनीति ने लेकिन ऐसा होने नहीं दिया। इस सम्मेलन की सफलता बाद भारतीय प्रधानमंत्री वैश्विक नेताओं की उस कतार का प्रमुख चेहरा बन उभरने में सफल रहे हैं जिनमें उनके बगलगीर विकसित देशों के राष्ट्र प्रमुख हैं। इस सम्मेलन की एक बड़ी उपलब्धि 55 देशों के समूह अफ्रीकन यूनियन का जी-20 में शामिल होना रहा है। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम को इसका श्रेय जाता है। वे चीन की असहमति के बावजूद ऐसा कर पाने में सफल रहे। कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेहरू की राह पर चल भारत को किसी भी खेमेबाजी से बचा पाने में सफल रहे हैं। जी-20 सम्मेलन की अध्यक्षता का पूरा लाभ उठाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के आर्थिक और कूटनीतिक महत्व को विश्व के सामने रखने का हरसंभव प्रयास किया और उनका यह प्रयास सफल भी रहा। इसी दौरान चंद्रयान-3 और उसके बाद सूर्य मिशन ने भी भारत की ताकत का एहसास विश्व को करा यह संदेश देने में सफलता पाई कि भविष्य भारत का है और हर क्षेत्र में भारत विश्व के विकसित राष्ट्रों को टक्कर देने का काम सफलतापूर्वक कर रहा है। दिल्ली घोषणा पत्र के जरिए प्रधानमंत्री ने यह भी संदेश देने का काम कर दिखाया कि वे जटिल मुद्दों पर भी आम राय बना पाने की योग्यता रखते हैं। लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का एक पक्ष है। ऐसा पक्ष जो आश्वस्त करता है कि वैश्विक पटल पर भारत की साख को बढ़ाने का जो काम नेहरू ने किया था, मोदी उसी को आगे बढ़ाने की दिशा में सफलतापूर्वक बढ़ रहे है। उनके व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष लेकिन आश्वस्तकारी नहीं है। वे धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर नेहरू के ठीक उलट नजर आते हैं। वे उस विचारधारा के पोषक और समर्थक हैं जो भारत को मूलतः हिंदू राष्ट्र मानती आई है। नेहरू ने लोकतंत्र को मजबूती देने वाले, स्थायित्व देने वाले संस्थानों का निर्माण किया था। मोदी सरकार पर इन संस्थाओं को कमजोर करने के आरोप बीते साढ़े नौ बरसों के दौरान लगातार लगते रहे हैं। नेहरू समन्वयवाद के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने आजाद भारत की पहली निर्वाचित सरकार में अपने धुर-विरोधियों डॉ. भीमराव अंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी को शामिल कर इस समन्वयवाद का आदर्श उदाहरण सामने रखा था। मोदी इस सिद्धांत पर यकीन नहीं रखते हैं। यहां पर उनके तेवर नेहरू की पुत्री और आजाद भारत की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मेल खाते हैं। इंदिरा गांधी 1971 में पाकिस्तान का दो फाड़ कराने बाद तेजी से तानाशाह बनने लगी थीं। उन्होंने अपने पिता द्वारा स्थापित संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने और अपने राजनीतिक विरोधियों को साम-दाम-दण्ड भेद की नीति अपना खामोश करने का काम आपातकाल के दौरान किया था। इंदिरा गांधी का मानना था कि वे ही अकेली ऐसी नेता हैं जिनके हाथों भारत का भविष्य सुरक्षित है। लोकतांत्रिक व्यवस्था पर खास भरोसा इंदिरा गांधी नहीं करती थीं। 1963 में ख्याति प्राप्त मानव विज्ञानी वेरियर एल्विन को लिखे एक पत्र में इंदिरा कहती हैं-
विरोधाभाषी राजनीति के शिखर पुरुष
मेरी बात
‘लोकतंत्र न केवल औसत दर्जे के व्यक्ति को ऊपर उठाता है बल्कि सबसे मुखर व्यक्ति को ताकत देता है। भले ही उसमें ज्ञान और समझ की कमी हो।’ कुछ ऐसा ही वर्तमान प्रधानमंत्री की बाबत कहा-सुना जाता है। मोदी पर भी संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने और अपने विरोधियों को साम-दाम-दंड भेद के जरिए खामोश कराने के आरोप लगते रहते हैं। केंद्रीय जांच एजेंसियों का भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ दुरुपयोग होना, चुनाव आयोग और न्यायपालिका समेत लोकतंत्र के हरेक पहलू को कमजोर होते हम इन दिनों देख रहे हैं। मीडिया का पूरी तरह से सरकारी भोंपू बन जाना और विरोध के हर स्वर पर पहरे लगाना इत्यादि प्रधानमंत्री की उस छवि के ठीक विपरीत है जो वह अंतरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित कर रहे हैं। जी-20 की सफलता ने मोदी के कद को खासा बढ़ाया है। उन्होंने दिल्ली घोषणा पत्र के जरिए यह संदेश देने में सफलता पाई है कि कठिन मुद्दों पर भी वे बातचीत के जरिए आम सहमति बना पाने का कौशल रखते हैं। लेकिन जब बात खुद के देश की आती है तो प्रधानमंत्री समन्वयवाद से कोसों दूर नजर आते हैं। ख्याति प्राप्त लेखिका उमा वासुदेव ने इंदिरा गांधी की बाबत एक किताब लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘टू फेसेज् ऑफ इंदिरा गांधी’(Two faces of Indira Gandhi) । मोदी के भी उसी तर्ज पर दो चेहरे हम देख रहे हैं। एक चेहरा सफल अंतरराष्ट्रीय नेता का है तो दूसरा एक ऐसे प्रधानमंत्री का जो अपनी आलोचना सुनने को, दूसरे के विचारों को सुनने-समझने को कत्तई तैयार नहीं। देश की राजनीति में इतनी कड़वाहट पहले कभी देखने को नहीं मिलती है। यह कड़वाहट एक घातक जहर समान है जो लोकतंत्र की बुनियाद को तार- तार करने की ताकत रखती है। जी-20 के भोज में कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को आमंत्रित न किया जाना और कांग्रेस शासित प्रदेशों के कुछ मुख्यमंत्रियों का इस भोज में शामिल न होना लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं कहे जा सकते हैं।
लोकतंत्र की खूबसूरती ही मतभेदों का समाधान संवाद के जरिए किए जाना है। यह संवाद इन दिनों अपने न्यूनतम पर जा पहुंचा है। पक्ष और विपक्ष के मध्य संवादहीनता के संसद के सत्रों को अर्थहीन बना डाला है। मुझे तो कभी- कभी भय होता है कि कहीं हम दोबारा आपातकाल अथवा पूर्ण तानाशाही की तरफ तो नहीं बढ़ रहे हैं? भाजपा अथवा केंद्र सरकार भले ही लाख इनकार करे, केंद्रीय जांच एजेंसियों के जरिए विपक्षी दलों के नेताओं को टारगेट पर लिया जाना साफ-साफ नजर आता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ यदि ये एजेंसियां निष्पक्षतापूर्वक काम कर रही होती तो विपक्ष से भाजपा में शामिल हुए कई नेताओं को बख्शा नहीं गया होता। मध्य प्रदेश और असम सरकारों में शामिल कई दिग्गज जेल में होते। महाभ्रष्ट की सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाए गए अजीत पवार पर तो स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने भ्रष्टाचार के खासे संगीन आरोप लगाए थे। उन पर मुकदमें भी दर्ज किए गए लेकिन अब भाजपा में शामिल होने के बाद वे पाक-साफ करार दे दिए गए हैं। ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण हैं जहां भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप पहले विपक्षी नेताओं पर लगाए गए और फिर उन्हें भाजपा में शामिल करा माफी दे दी गई। कभी ममता के खासमखास रहे सुवेदु अधिकारी और असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा का नाम ऐसों में शामिल है। नाना प्रकार की विविधता और जटिलताओं वाले देश में समन्वयवाद के जरिए ही आगे बढ़ा जा सकता है। इस राह को त्याज्य मामने की भूल हमें भारी पड़ेगी। अंतरराष्ट्रीय पटल पर हमारी साख एक नेता के दम पर नहीं है बल्कि एक ऐसे मुल्क के बतौर है जो तमाम संकटों के बाद भी लोकतांत्रिक मूल्यों पर टिका रहा है। यदि इन मूल्यों में आ रही गिरावट को नहीं रोका गया तो इसका बड़ा खामियाजा हमें भुगतना होगा। प्रधानमंत्री को याद रखना चाहिए कि छवि गढ़ने में खासी मेहनत और खासा समय लगता है, दरकने में नहीं।