सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ अपनी प्रगतिशील सोच के चलते खासे विख्यात हैं। गत् 2 नवंबर को ‘विधि जागरूकता के जरिए महिलाओं का सशक्तीकरण’ कार्यक्रम में वे बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित थे। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ का इस कार्यक्रम में दिया गया वक्तव्य खासा महत्वपूर्ण है। खासकर ऐसे समय में जब राजनीति और धर्म का घालमेल असहिष्णुता को बढ़ावा देने का मार्ग बन चुका हो। चन्द्रचूड़ ने डाबर कंपनी के एक विज्ञापन का जिक्र करते हुए जनता के मध्य तेजी से बढ़ रही इन्टालरेंस पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि इस असहिष्णुता के चलते ही समलैंगिक जोड़े को प्रदर्शित करने वाले ‘करवा चौथ’ का विज्ञापन कंपनी को वापस लेना पड़ा। अपनी नाराजगी जताते हुए विद्वान न्यायाधीश ने पुरुषों और महिलाओं की मानसिकता बदलने की बात कही। उनके वक्तव्य को पढ़ इच्छा जगी इस पूरे मामले को समझने की।
गूगल बाबा को खंगाला तो पता चला कि डाबर कंपनी ने ‘करवा चौथ’ के अवसर पर एक विज्ञापन जारी किया था जिसमें दो महिलाएं को एक दूसरे के लिए व्रत की तैयारी करते दिखाया गया था। यह विज्ञापन कंपनी ने अपनी एक क्रीम ‘गोल्ड ब्लीच’ के लिए जारी किया था। 22 अक्टूबर को लांच इस विज्ञापन पर मध्य प्रदेश के ‘यशस्वी’ गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा को खासी आपत्ति हुई। उन्होंने इसे हिंदू धर्म के अपमान से जोड़ते हुए डाबर कंपनी को तत्काल माफी मांगने और विज्ञापन हटाने का आदेश दे डाला। कंपनी ने ऐसा ही किया भी। नरोत्तम मिश्रा ने एक अन्य कंपनी पर भी कार्यवाही की धमकी तब दे डाली थी जब इस कंपनी ने मशहूर फैशन डिजाइन सब्यसाची मुखर्जी के नए डिजाइन पर आधारित आभूषण लांच किए थे। सब्यसाची ने अपने इस्टाग्राम पेज पर इसकी कुछ तस्वीर जारी की थी जिनमें एक तस्वीर में एक महिला को ब्रा के साथ मंगलसूत्र पहने दिखाया गया था तो दूसरी तस्वीर में एक महिला एक टापलेस आदमी के साथ खड़ी नजर आ रही थी। इतने भर से नरोत्तम मिश्रा आहत हो गए। भारतीय संस्कृति की दुहाई देने लगे। कंपनी को विज्ञापन वापस लेना पड़ा। ऐसे एक नहीं कई मामले इन दिनों सामने आए हैं जिनमें धार्मिक कट्टरवाद का वर्चस्व उभरते देखा जा सकता है। हम अपनी ‘गंगा-जमुनी’ संस्कृति पर नाज करने वाले देश के नागरिक हैं। आप हैं या नहीं, आप जाने, मैं तो हूं। मुझे गर्व है कि मैं एक धर्म और पंथनिरपेक्ष संविधान मानने वाले राष्ट्र का नागरिक हूं। ऐसे मुल्क में धार्मिक कट्टरता को मिलता राजनीतिक संरक्षण बेहद दुखद और भयभीत करने वाला है। पिछले दिनों ‘फैब इंडिया’ कंपनी ने अपने कपड़ों के विज्ञापन को ‘जश्न-ए-रिवाज’ का नाम देकर लांच किया तो उस पर भी भारी ऐतराज बहुतों को हो गया। दिवाली के अवसर पर लांच किए गए इस विज्ञापन का नाम चूंकि ऊर्दू भाषा से लिया गया था इसलिए धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों को भारी आपत्ति हो गई। उन्होंने बेतुका और बेहुदा तर्क दे डाला कि इस विज्ञापन के चलते हिन्दूओं की दिवाली को नुकसान पहुंच रहा है। चूंकि सत्ता ऐसों को संरक्षण दे रही है इसलिए इस विज्ञापन का हश्र भी पहले वालों के समान रहा। कंपनी ने इसे विड्रा कर डाला। सितंबर महीने में लोकप्रिय फिल्म तारिका आलिया भट्ट एक विज्ञापन में नजर आईं। ‘मान्यवर ब्रांड’ के कपड़ो का विज्ञापन करते आलिया कहती सुनी गईं कि विवाह में ‘कन्यादान’ के बजाए ‘कन्यामान’ रस्म होनी चाहिए। उनका कहने का अर्थ मात्र इतना था कि कन्या दहेज में दी जाने वाला ‘दान’ नहीं वह जीती जागती प्राणी है। इससे भी हिंदू धर्म के कथित पहरेदारों की भावना आहत हो गई। इस विज्ञापन को हिंदू धर्म के खिलाफ बताते हुए एक महान आत्मा ने आलिया भट्ट के खिलाफ मुंबई के सांताक्रूज थाने में बकायदा एफआईआर करा दी है। मुझ सरीखों का संकट यहीं से शुरू होता है। हमारी धार्मिक पुस्तकांे में चाहे जो भी लिखा हो, वह अंतिम सच नहीं है, उसे अंतिम रूप मानना मूर्खता है, रूढ़िवादिता है। फिर चाहे ऐसा कुछ कुरान शरीफ में कहा गया हो, हमारे वेदों में लिखा हो, गुरु ग्रंथ साहिब में हो या फिर ईसाई धर्म की पुस्तकों में वर्णित हो। कन्यादान को ही ले लीजिए। समाज निर्माण की प्रक्रिया के दौरान समय, काल और परिस्थिति के चलते यह परंपरा बनी होगी। नारी सशक्तीकरण के दौर में यह निहायत घटिया सोच, पुरातनपंथी सोच है जिसको त्याग देना जरूरी है, समसामयिक है। कन्या कोई वस्तु नहीं जिसे किसी को दान में दिया जाए। वेदों का हालांकि मैं कोई बड़ा जानकार अथवा विशेषज्ञ नहीं लेकिन जितना पढ़ा है उसके बिना पर कह सकता हूं कि हमारे वेदों में ऐसा कोई शब्द नहीं है। ‘पारस्कर गृह सूत्रम’ (यतुर्वेद के श्रोत सूत्र) में जरूर विवाह से लेकर अन्न प्राशन तक के संस्कारों का वर्णन मिलता है। इसमें पिता अपने होने वाले दामाद को भगवान विष्णु का रूप में मानते हुए अपनी पुत्री को उसे दान में देता है। उत्तर एवं दक्षिण भारत में यह विधि खासी प्रचलित है। चूंकि वेदों में ऐसे किसी दान का उल्लेख नहीं मिलता है इसलिए संभवतः किसी विशेष काल की परिस्थतियों के चलते लिखे गए धर्मग्रंथों में नारी को पुरुष के बरस्क हीन मानते हुए ‘कन्यादान’ की कुप्रथा जन्मी हो जिसे लकीर के फकीर समाज ने 21वीं शताब्दी तक अपनाया हुआ है। आज जब नारी और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक, एक-दूसरे से किसी तरह कमतर नहीं माना जाने लगा हो, ‘कन्यादान’ को शादी के विधि-विधान से हटाने की जो बात आलिया भट्ट ने कही, मैं उसका पूरजोर समर्थन करता हूं। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ के कथन से भी मेरी पूरी सहमति है कि इन सब पौंगापंथी बातों के कारण हमारा समाज इन्टालरेंट होता जा रहा है। स्मरण रहे आज जो लोग आलिया भट्ट का या फिर डाबर कंपनी के विज्ञापन का विरोध कर रहे हैं, इसे हिन्दू धर्म पर प्रहार बता रहे हैं, वे सब उसी कट्रपंथी सोच के हैं जिस सोच ने 1829 में सती प्रथा को राजा राम मोहन राय सरीखे समाज सुधारकों के प्रभाव में आकर प्रतिबंधित करने का पुरजोर विरोध किया था।
दरअसल जितना कुछ मैं पढ़ और समझ पाया हूं, लगभग सभी धर्मों की पुस्तकें इस प्रकार के कथनों से भरी पड़ी है। पिछले कुछ समय से मैं कुरान शरीफ का अध्ययन कर रहा हूं। इसे पढ़ते हुए साफ एहसास होता है कि समाज के शुरूआती विकास के समय जो कुछ उस समय के आलिमों को उचित लगा, उसे उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को दुरस्त करने के लिए फरमान जारी कर अमल में लाने का प्रयास किया। 21वीं सदी में इसमें से कई हिदायते ‘आउट ऑफ डेट’ हो चुकी है। उदाहरण के लिए इसका सूरः निशा अध्याय है जिसमें स्त्री को पुरुष के मुकाबिल कमतर बताया गया है। जैसे इसमें कहा गया है ‘अल्लाह तुम्हारी औलाद के बारे में तुम्हे हुक्म देता है कि मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।’ एक अन्य फरमान में लिखा है ‘तुम्हारी औरतों में से जो बदकारी का काम और जुर्म करे, उन पर अपने में से चार गवाह बना लो। चुनांचे अगर वे गवाह औरत की बदकारी की गवाही दें तो उन औरतों को घरों में रोक कर रखो। यहां तक कि उन्हें मौत उठा कर ले जाए या अल्लाह उनके लिए कोई और रास्ता पैदा कर दे।’ इतना ही नहीं ‘सूरः नूर’ में मर्द और औरत,दोनों के लिए जिना की सजा सौ कोड़े मुकर्रर कर दी गई है। गैर-शादी युवा औरत या मर्द को सौ कोड़े लगाए जायेंगे और शादी-शुदा को संगसार (यानी पत्थर मार-मार कर) हलाक किया जायेगा।’’ स्पष्ट है यह फरमान उस समय के बर्बर समाज को देख जारी किया गया था। आज इनका कोई अर्थ नहीं नजर आता है। धर्म किसी के लिए भी निजी आस्था का प्रश्न है। हरेक को स्वतंत्रता है कि वह अपनी आस्था अनुसार अपने धर्म का पालन करे। लेकिन तब तक ही जब तक उसको आस्था, उसका विश्वास किसी दूसरे की आस्था और विश्वास से न टकराए। होता लेकिन ठीक उलट है। धर्म अब आस्था के बजाए वर्चस्व का प्रतीक बन रह गया है। इस विकृति के चलते समाज में सर्कीणता, हिंसा और असहिष्णुता बढ़ रही है। रवायतों से आगे बढ़ने के बजाए हम उन्हें बगैर तर्क की कसौटी में परखे, मानने की जिद्द पाले बैठे हैं। न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्र चूड़ ने इसी के चलते भारतीय समाज के इन्टालरेंट होने की बात कही है। मैं भयभीत हूं, संशकित हूं कि धर्म को हथियार बना राजनीति करने के दौर में यह असहिष्णुता और बढ़ेगी जिससे कुछ भी सार्थक किसी धर्म के अनुयायी को हासिल नहीं होने वाला। देश और देश की सांस्कृतिक विरासत जरूर गर्त में जाती चली जाएगी।