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Editorial

तिब्बत चलते दरके चीन से रिश्ते

 पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-46

निगुर्ट आंदोलन इन दोनों संधियों से इतर उन देशों का आंदोलन था जो किसी भी खेमे, ‘वारसो-नाटो’ का सदस्य नहीं बनना चाहते थे। इस आंदोलन के जनक नेहरू, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुर्कणो, युगस्वालिया के राष्ट्रपति जोजेफ बरोज, मिश्र के राष्ट्रपति गेमस नासीर और घाना के राष्ट्रपति क्वामे एन्क्रूमाह थे। नेहरू की निगुर्ट नीति को अमेरिका संदेह की दृष्टि से देखता था जिस चलते उसका झुकाव तेजी से पाकिस्तान की तरफ होने लगा। आर्थिक दृष्टि से खस्ताहाल पाकिस्तान हर कीमत पर अमेरिकी मदद का तलबगार था। नेहरू इस दौर में चीन के साथ भारत की मित्रता प्रगाढ़ करने का प्रयास कर रहे थे। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन को स्थाई सदस्य बनाए जाने के पक्षधर नेहरू से अमेरिका की दूरी तेजी से बढ़ने लगी थी। सुरक्षा परिषद में चीन की पक्षधरता ने इस दूरी को ज्यादा बढ़ाने का काम कर डाला।

अमेरिका को लगने लगा कि नेहरू उसकी हर नीति के खिलाफ हैं और एशियाई देशों को भी ऐसा करने के लिए उकसा रहे हैं। शायद ऐसा था भी। मई, 1954 में उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला को लिखे नेहरू के एक पत्र से इसकी पुष्टि होती है। नेहरू ने लिखा-‘I do not think that there are many examples in history of a succession of wrong policies being followed by a country as by the United States in the far east during the past five or six years. They have taken one wrong step after another…They think they can solve any problem with money and arms. They forget the human element. They forget the nationalist urge of people. They forget the strong resentment of people in Asia against imposition’ (मुझे नहीं लगता कि किसी देश द्वारा एक के बाद एक गलत नीतियों को लागू करने का उदाहरण इतिहास में संयुक्त राज्य अमेरिका के सिवाय कोई और है। उसने लगातार गलत कदम उठाए हैं …उसे लगता है कि वह धन और हथियार के बल पर किसी भी समस्या का समाधान कर सकता है। वह मानवीय तत्व को अनदेखा कर देता है। वह लोगों के राष्ट्रवादी आग्रह को भूल जाता है। वह एशियाई देशों की आक्रांताओं के खिलाफ गहरे आक्रोश को भी भूल जाता है।)
नेहरू से अमेरिका की नाराजगी इस कदर बढ़ती जा रही थी कि उसने गोवा पर पुर्तगाल के शासन तक को जायज ठहराने में देर नहीं लगाई। गोवा तीसरी शताब्दी में मौर्य साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। कालांतर में 1312 में यह मुगल साम्राज्य के अधीन हो गया था। 1510 में गोवा के तत्कालीन शासक बीजापुर के सुल्तान यूसुफ आदिल शाह को परास्त कर पुर्तगाल ने गोवा पर अपनी सत्ता स्थापित कर डाली। 1947 में आजादी मिलने के पश्चात् भारत ने पुर्तगाल से गोवा को भारत के हवाले करने की मांग उठाई जिसे पुर्तगाल ने नकार दिया। नेहरू से नाराज अमेरिका ने इस मुद्दे पर पुर्तगाल का साथ दे नेहरू सरकार के प्रति अपनी दुराग्रह पूर्ण नीति को उजागर करने का काम किया था। यह दीगर बात है कि नेहरू इस मुद्दे पर अमेरिकी दबाव में नहीं आए और दिसंबर, 1961 में भारतीय फौजों ने ‘ऑपरेशन विजय’ के जरिए गोवा को पुर्तगाल के कब्जे से मुक्त करा भारत का हिस्सा बना डाला था। अमेरिका इस दौरान लेकिन पूरी तरह से भारतीय हितों के खिलाफ रहा। फिर चाहे वह कश्मीर का मुद्दा हो, पाकिस्तान हो या फिर गोवा। अमेरिका की बनिस्पत सोवियत संघ के साथ आजाद भारत के रिश्ते शुरुआती सालों में ज्यादा तनावपूर्ण रहे तो इसके पीछे एक बड़ा कारण हैदराबाद के भारत में विलय होने के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका है जिसे प्रत्यक्ष तौर पर सोवियत संघ का समर्थन रहना था। निजाम के खिलाफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने रियासत के तेलंगाना इलाके में समांतर सरकार का गठन 1946 में कर डाला था। बड़े पैमाने पर जमींदारों की जमीन भूमिहीनों को बांटी गई। यह व्रिदोह 1948 में अपने चरम पर जा पहुंचा था। 17 सितंबर, 1948 को हैदराबाद रियासत के भारत में विलय पश्चात् नेहरू सरकार ने इस विद्रोह को अपनी सैन्य शक्ति के बल पर समाप्त कर वहां भारत की सत्ता स्थापित करने का काम किया। 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को सोवियत संघ ने प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से मदद दी। ताशकंद रेडियो स्टेशन से प्रसारित बुलेटिनों के जरिए कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय मतदाताओं संग संवाद स्थापित करने का प्रयास तब किया था। अन्य राजनीतिक दलों के पास दूर संचार के माध्यम न होने के चलते कम्युनिस्टों को अकेले यह सुविधा सोवियत संघ से नजदीकी चलते मिली थी। 1951 में जब भारत ने अन्न संकट के चलते विदेशी राष्ट्रों से मदद की अपील करी तब अमेरिकी रुख नकारात्मक रहा लेकिन सोवियत संघ ने तत्काल 50 हजार टन गेहूं भारत को भेज नेहरू सरकार संग मित्रता का हाथ आगे बढ़ाया। 1955 में बतौर प्रधानमंत्री सोवियत संघ की यात्रा पर गए नेहरू इस मदद को भूले नहीं थे। जून, 1955 में सोवियत संघ पहुंचे नेहरू का विश्व के दो  शक्तिशाली राष्ट्रों में से एक द्वारा किया गया अभूतपूर्व स्वागत अंतरराष्ट्रीय पटल पर उनके कद को दर्शाता है। ‘Reception he received on arrival in Moscow was unprecedented-some thing no visiting head of state or Government has received after him. The Russians went all out to fete Nehru. Before his arrival a special study was made of his diets and habit. Nehru travelled in a open car, something unheard of in the Soviet Union and Bulganin and khrushchev had to sit or stand with him in it. Thousands of roses were showered on them by the onlookers. The entire Politbureau of the Soviet Communist Party came to dine with Nehru at the Embassy. Proposing a toast, Khrushchev said: ‘some say Nehru is a Communist. I don’t want him to be a Communist. I want Nehru to be Nehru. So I propose a toast to Nehru’ (नेहरू का मास्को में अभूतपूर्व स्वागत किया गया। ऐसा जो किसी भी राष्ट्राध्यक्ष का अथवा सरकार के प्रमुख का फिर कभी नहीं हुआ। रूसी पूरे जोश -खरोश के साथ नेहरू का सत्कार करने में जुट गए। उनके आने से पहले उनके खान-पान का विशेष अध्ययन किया गया। नेहरू एक खुली जीप में घूमे। ऐसा सोवियत संघ में पहले कभी नहीं सुना गया था। बुलगानिन, (निकोलाई बुलगानिन, सोवियत प्रधानमंत्री) और खु्रचेव (निकिता खु्रचेव, कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव) उनके साथ जीप में सवार रहे। हजारों ने नेहरू पर गुलाब के फूल बरसाए। शाम को भारतीय दूतावास में आयोजित भोज में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सभी महत्वपूर्ण नेता शामिल हुए। खु्रचेव ने नेहरू के नाम जाम पेश करते हुए कहा ‘लोग कहते हैं कि नेहरू वामपंथी हैं मैं नहीं चाहता वे वामपंथी बने, मैं चाहता हूं नेहरू, नेहरू ही बने रहें इसलिए मैं उन्हें एक जाम पेश करता हूं)। नेहरू की इस अतिस्मणीय यात्रा ने दोनों देशों के मध्य आपसी विश्वास और मित्रता की बुनियाद रखी। सोवियत संघ की पंचवर्षीय योजनाओं में निजी क्षेत्र के बजाय भारी उद्योगों को सरकार के अधीन रखना भी नेहरू के आकर्षण का केंद्र बना। आजाद भारत की आर्थिक नीतियों को नेहरू ने इसी तर्ज पर आगे बढ़ाया भी। नेहरू की इस ऐतिहासिक यात्रा के छह माह बाद बुलगानिन और ख्रुचेव नवंबर 1955 में भारत आए। दोनों सोवियत नेताओं की इस यात्रा ने सोवियत संघ और भारत के मध्य रिश्तों को और प्रगाढ़ करने का काम किया। नेहरू अपने पड़ोसी देश चीन के साथ भी संबंधों को मैत्रीपूर्ण रखने के पक्षधर थे। 1928-49 तक यहां की सत्ता गुओमिंदांग (Kuomintang) अथवा चीन राष्ट्रवादी पार्टी के हाथों में थी। गुओमिंदांग चीन का अकेला राजनीतिक दल था। इसके नेता सुनयात सेन (Chiang kai-shek) और कांग्रेस के मध्य रिश्ते सौहार्दपूर्ण थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान चीन ने ब्रिटिश हुकूमत से भारत को स्वतंत्रता दिए जाने का आग्रह किया था। दिसंबर 1949 में एक लंबे चले गृह युद्ध पश्चात् चीन की सत्ता पर कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया। नेहरू सरकार ने चीन के नए सत्ताधारी दल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चीन के संग भी मित्रतापूर्ण संबंध बनाने की पहल की। 1 अक्टूबर 1949 को चीन की लाल क्रांति के नेता माओ ते संग ने चीनी जनवादी गणराज्य की नींव रखी। अमेरिका ने इस गणराज्य को मान्यता देने से इनकार कर दिया था लेकिन भारत ने सबसे पहले माओ सरकार को मान्यता दे, दोनों देशों के मध्य संबंध प्रगाढ़ करने की शुरुआत करी। चीन की नई सरकार संग तनाव का पहला कारण बना तिब्बत। तिब्बत विश्व में सबसे ऊंचाई पर स्थित इलाका है जो समुद्र तल से 14,000 फीट हिमालयी क्षेत्र में स्थित है। माउंट एवरेस्ट, विश्व का सबसे ऊंचा पर्वत (29,032 फीट समुद्र तल से) इसी क्षेत्र में है। बौद्ध धर्म के अनुयायियों वाले तिब्बत ने 1913 में स्वयं को चीन के गुओमिंदांग शासन से मुक्त घोषित कर अपनी सरकार स्थापित कर ली थी। तभी से चीन और तिब्बत के मध्य तनावपूर्ण रिश्ते बने हुए थे। चीन की नई सरकार ने अपने गठन के तुरंत बाद ही स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि वह तिब्बत को अपना इलाका मानती है और जरूरत पड़ने पर उसके द्वारा तिब्बत में सैन्य हस्तक्षेप किया जा सकता है। नेहरू लेकिन आश्वस्त थे कि चीन ऐसा कुछ करने नहीं जा रहा है। चीन की विस्तारवादी प्रवृत्ति को समझने में नेहरू से भारी चूक हो गई। सरदार वल्लभ भाई पटेल हालांकि विदेशी मामलां के विशेषज्ञ नहीं थे किंतु चीन को लेकर उनकी समझ नेहरू की बनिस्पत कहीं ज्यादा सही थी। कम्युनिस्ट सरकार के गठन से लगभग चार माह पहले ही पटेल ने नेहरू को तिब्बत की बाबत अपनी आशंकाओं से अवगत कराते हुए 4 जून, 1949 को एक पत्र लिखा-‘We have to strengthen our position in Sikkim as well as in Tibet. The farther we keep away the communist forces, the better. Tibet has long been detached from China. I anticipate that as soon as the communist have establised themselves in the rest of China, they will try to destroy its autonomous existance. You have to consider carefully your policy towards Tibet in such circumstances  and prepare from now that eventuality’ (हमें सिक्किम में अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी और साथ ही तिब्बत में भी। कम्युनिस्ट ताकतों संग हम जितनी दूरी बनाएं उतना ही बेहतर है। तिब्बत चीन संग लंबे अर्से से अलग-थलग है। मुझे लगता है कि कम्युनिस्ट चीन में अपनी सत्ता स्थापित करते ही तिब्बत की सम्प्रभुता को नष्ट करेंगे। आपको तिब्बत के विषय में अपनी नीति को इसी आधार पर तैयार करना होगा।)

क्रमशः

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