आखिरकार केंद्र की सरकार को झुकना ही पड़ा। झक मार कर ही सही, प्रधानमंत्री मोदी को कृषि क्षेत्र के लिए एक बरस पूर्व लाए गए तीन कानूनों को बगैर शर्त वापस लेने का ऐलान करना पड़ा। यकीन मानिए बहुत अर्से बाद असीम आनंद की अनुभूति हुई। साथ ही लोकतंत्र बचा रहेगा का एहसास भी हुआ। 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक की एक बड़ी बात जनता का, विश्व भर की जनता का, अपने शासक के खिलाफ सड़क पर उतरना रहा है। किसान आंदोलन ने ऐसा ही कुछ हमारे यहां करने का साहस किया जिसके लिए वे तहेदिल से सलामी के हकदार हैं।
वर्तमान समय में विश्व भर की सत्ताओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपने नागरिकों की वाजिब मांगों का हल तलाशना है। जहां कहीं भी सत्ता का तानाशाही स्वरूप है, वहां तो जनता आक्रोशित हो अपनी आवाज बुलंद कर ही रही है, उन मुल्कों में भी आम नागरिक खासा मुखर है जहां लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी गई सरकारें हैं। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि लोकतंत्र पर खतरे से कहीं ज्यादा लोक को संतुष्ट रखने में असमर्थ होती सत्ता पर खतरा बढ़ता जा रहा है। 2015 में अफ्रीकी राष्ट्र इथोपिया का सत्तातंत्र चौतरफा संकट में आया। वहां के ‘ओरोमो’ आदिवासी समाज ने अपनी बदहाल आर्थिक स्थिति के खिलाफ आंदोलन शुरू किया जो आगे चलकर पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के विशाल आंदोलन में तब्दील हो गया। 2018 में वहां की सरकार को सत्ता छोड़नी पड़ी और नई सरकार को ‘आंदोलनजीवियों’ के आगे नतमस्तक होना पड़ा। नतीजा बड़े पैमाने पर सुधार लागू किए गए, हजारों गिरफ्तार आंदोलनकारियों की रिहाई हुई। सबसे महत्वपूर्ण बात नारी शक्ति की जीत के रूप में सामने आई। नई सरकार में आधे मंत्री पद महिलाओं को दिए गए। 2018 में ही सूडान में बढ़ती महंगाई को लेकर जनता सड़कों पर उतर आई। महंगाई से त्रस्त जनता एक बार सड़क पर उतरी तो फिर घर लौटी नहीं। आंदोलन का विस्तार हुआ। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार इस आंदोलन को ताकत देने लगा। सरकारी दमन का चक्र चला लेकिन जनता डटी रही। नतीजा 29 सालों से सत्ता पर काबिज निरंकुश राष्ट्रपति ओमर-अल-बशीर को हटना पड़ा। बशीर के त्याग-पत्र के बाद भी आंदोलन तब तक जारी रहा जब तक वहां के अंतरिम सैन्य शासक ने इस अंतरिम सरकार में आंदोलनकारियों को शामिल नहीं किया। बाद में चुनाव हुए जिसने सिविल सरकार का मार्ग प्रशस्त किया। अक्टूबर, 2021 में सेना ने निवार्चित सरकार का तख्ता पलटा तो जनता फिर से सड़क पर आ गई। नतीजा जन दबाव में घबरा कर सेना ने सरकार की बहाली का ऐलान कर डाला। पश्चिमी एशियाई देश अरमेनिया में भी साल 2018 खासा उथल-पुथल भरा रहा। भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता ने सत्ता बदल डाली। 2019 में दक्षिण अमेरिकी देश बोसिविया में तत्कालीन राष्ट्रपति ने जब चुनावों में धांधली कर सत्ता में बने रहने का प्रयास किया तो उसे भारी विरोध का सामना करना पड़ा। तमाम हथकंडे अपनाने के बाद भी उसकी सत्ता बच न सकी। 2019 में ही उत्तरी अफ्रीकी देश अल्जेरिया के तानाशाह राष्ट्रपति को सत्ता छोड़ना पड़ी। 20 बरसों से पद पर काबिज राष्ट्रपति के निरंकुश शासन से बौखलाई जनता ने ऐसा प्रदर्शन किया कि फौज के दम पर टिकी तानाशाही धराशाई हो गई। इस दौरान कई अन्य अलोकतांत्रिक देशों में भी तानाशाहों को जनता ने नानी याद दिला दी। हैती, जार्डन, निकारागुआ, वेनिजुएला, हांगकांग आदि इसके ताजातरीन उदाहरण हैं। यहां तक कि कभी विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र रूस में भी पुतिन की सत्ता को लगातार जन आंदोलनों के जरिए चुनौती मिल रही है। हमारा नजदीकी देश मलेशिया हो या फिर मालद्वीप, सभी जगह जनता ने अपने अधिकारियों को लेकर आवाज बुलंद कर तानाशाहों की नींद हराम करने का काम किया है।
जहां कहीं भी जन आंदोलन हो रहे हैं, हुए हैं, वहां एक बात मुख्य रूप से सामने उभरी हैं। जनता का आक्रोश भ्रष्टाचार, लोकतांत्रिक अधिकारों इत्यादि में कहीं ज्यादा आर्थिक असमानता को लेकर देखने को मिला है। भ्रष्टाचार का मुद्दा भी ऐसे सभी आंदोलनों से जुड़ा रहा है लेकिन मूल में आर्थिक विपन्नता से छुटकारा पाने का लक्ष्य प्रमुख रहा है। हमारे देश में भी इस समय जनता-जनार्दन के मध्य भूख, भ्रष्टाचार, महंगाई, आर्थिक असमानता जैसे मुद्दों ने भारी कसमसाहट पैदा करनी शुरू कर दी है। प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में बैठाए गए प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा अब धुंधलाने लगा है। 2014 के बाद हर क्षेत्र में चाहे वह आर्थिक तरक्की हो, रोजगार के नए अवसर हों, सामाजिक समरसता हो, महंगाई हो या फिर भ्रष्टाचार से मुक्ति हो, मोदी सरकार की असफलता चीख-चीख कर सच से हमें रुबरु करा रही है। संकट लेकिन धर्म के चलते है जिसकी ऐसी दीवार हमारे मन-मस्तिष्क के चारों तरफ खड़ी कर पाने में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने ऐसी अपार सफलता पाई है कि हम सत्य से साक्षात्कार करने को ही तैयार नहीं। किसान आंदोलन इस दीवार को कुछ हद तक ध्वस्त कर पाने में सफल होता नजर आ रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस आंदोलन को धर्म के नाम पर तोड़ पाने में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बुरी तरह असफल रहा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव से ठीक पहले बड़े पैमाने पर धार्मिक धुव्रीकरण हुआ। नतीजा किसान बाहुल्य इस इलाके में किसान धर्म के नाम पर बंट गया जिसका बड़ा लाभ भाजपा को मिला। आजादी के बाद पहली बार यहां के बहुसंख्यक जाट मतदाता ने अपने नेता स्व ़ चौधरी चरण सिंह के परिवार की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल से मुंह मोड़ भाजपा को मत डाला था।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राज्य विधानसभा की 71 सीटें हैं। 2017 के चुनाव में यहां से भाजपा को 51 सीटें मिली थी। सपा को 16, कांग्रेस को दो और बसपा को एक सीट पर ही जीत हासिल हुई थी। भाजपा ने राष्ट्रीय लोकदल का आधार रहे जाट वोट बैंक को अपनी तरफ कर यहां के सारे राजनीतिक समीकरणों को गड़बड़ा दिया था। अबकी बार यह जाट वोट भाजपा से कृषि कानूनों के चलते छिटक गया है। 71 में से 25 सीटों में 25 पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक फैक्टर रहता आया है। इन 25 सीटों पर 29 प्रतिशत मुस्लिम के साथ, 7 प्रतिशत जाट मतदाता यदि मिल जाए तो भाजपा को भारी नुकसान हो जाएगा। किसान आंदोलन के चलते जाट और मुस्लिम वोटर एक होता नजर आने लगा है।
किसान आंदोलन ने धर्म की दीवार ध्वस्त कर डाली है। इस पूरे आंदोलन को किसान केवल किसान बन कर लड़ा। बांटने का षड्यंत्र खूब हुआ। सिख किसानों को खालिस्तानी कह पुकारा गया तो जाट किसानांे को मुस्लिम किसानों से दूर करने के लिए दंगों की याद दिलाई गई। यानी ‘खूब खेला’ खेलने का काम चला किंतु किसान इस बार झांसे में आया नहीं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण उसके आर्थिक आधार पर इन कानूनों के चलते चोट की आशंका थी। किसान केवल किसान बना रहा, नतीजा तीनों कानूनों की वापसी के रूप में सामने है। अब इस आंदोलन के नेता न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर सरकार से निर्णय लेने की बात कह रहे हैं। मुझे लगता है कि उत्तर प्रदेश में अपनी संभावित हार की आशंका से घबराई भाजपा को इस मुद्दे पर भी झुकना पड़ेगा। भाजपा झुकेगी तो केंद्र सरकार झुकेगी और नतीजा किसान के पक्ष में जाएगा। भाजपा उत्तर प्रदेश में विशेषकर बुरी तरह बैकफुट पर है। पिछले साढ़े चार सालों से सत्ता पर भारी बहुमत से काबिज योगी आदित्यनाथ सरकार प्रदेश को न तो भय मुक्त कर पाई, न ही भ्रष्टाचार मुक्त। अपने विरोधियों पर सरकारी तन्त्र के जरिए दमनचक्र जरूर इस सरकार ने चलाया। सीएए के खिलाफ हुए आंदोलन के दौरान इस दमनचक्र का नंगा नाच हम सभी ने देखा। महिलाओं संग बलात्कार के मामलों में वृद्धि हुई। अपराधियों को इस सरकार की ‘ठोको’ नीति का खास असर नहीं पड़ा। कानपुर का विकास दुबे प्रकरण इसका ज्वलंत उदाहरण है। कोविड महामारी के दौरान सरकार की अकर्मण्यता चौतरफा नजर आई। मां गंगा में हजारों की तादाद में तैरते शव इसका प्रमाण हैं। पूंजी निवेश के लिए भव्य इन्वेस्टर्स समिट बुलाई गईं लेकिन अपेक्षित निवेश हुआ नहीं। हालात हालांकि कुछ ऐसे ही उत्तराखण्ड के भी हैं जहां उत्तर प्रदेश के संग ही अगले वर्ष की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश किंतु राजनीतिक दृष्टि से भाजपा के लिए उत्तराखण्ड की बनिस्पत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा की सत्ता चली गई तो 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत का लक्ष्य साधे नहीं सधेगा।
कुल मिलाकर किसानों की इस लंबी लड़ाई और इस लड़ाई में उनको मिली जीत ने दो बड़े काम किए हैं। पहला निरंकुश होती सत्ता को स्पष्ट संदेश दे डाला है कि इस तानाशाही को देश स्वीकारेगा नहीं। दूसरा अंधभक्तों की भक्ति में कमी लाने का काम इस आंदोलन ने कर डाला है भक्ति करने से मुझे कोई एतराज नहीं, एतराज अंधभक्ति से है क्योंकि वह व्यक्ति, समाज, देश और समस्त मानवता के लिए अभिशाप है। जय हो देश के अन्नदाता की जिसकी बदौलत इस अंधभक्ति के जंजाल को तोड़ने का मार्ग प्रशस्त हुआ।