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Editorial

यह बादशाह का हुक्म है

संसद का मानसूत्र चल रहा है और लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में हर रोज एक नया तमाशा देखने को हम सभी अभिशप्त हैं। कोविड महामारी से अभी मुक्ति मिली है नहीं, लाखों जानें सरकारी तंत्र की लापरवाही से जा चुकी हैं। झूठ बोलते सरकारी आंकड़ों और गैर सरकारी आंकड़ों में मौत के आगोश में जा चुकों की संख्या का भारी अंतर इस सड़-गल चुके तंत्र की संवेदनहीनता का काला सच हमें चीख-चीखकर चेतने को कह रहा है। हम लेकिन शुतरमुर्ग की भांति रेत के ढ़ेर में मुख छिपाए बैठे हैं, अपनी बारी आने के इंतजार में। हमारी यही कायरता सरकार को साहस दे रही है कि वह जितना चाहे झूठ बोले, जितना चाहे उतना अत्याचार करे, कायरों का यह देश प्रतिकार करने का दुस्साहस कतई नहीं करने वाला। सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोविड के चलते आज तक 418,000 मौतें हो चुकी हैं। यह सरकारी आंकड़ा है। इनमें से एक भी मौत ऑक्सीजन की कमी के चलते नहीं हुई है, ऐसा दावा भी सरकार का है। राज्यसभा में कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल के एक प्रश्न पर यह दावा केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री भारती पवार ने किया है। इससे बड़ा झूठ शायद ही कभी संसद में बोला गया हो। इसी वर्ष, मात्र दो माह पूर्व ही, देश की राजधानी दिल्ली से लेकर देश के हरेक कोने से रोज ऑक्सीजन की कमी के चलते हुई मौतें होती हमने देखी। हालात इतने खराब, इतने भयावह हो चले थे कि कल जिंदा रहेंगे या नहीं तक बात पहुंच गई थी। सुप्रीम कोर्ट लगातार ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगा रहा था। देश भर के अखबार अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी के चलते हो रही मौतों के समाचारों से भरे थे। सरकार का पिट्ठू बन चुका इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया तमाम चालाकियों के बावजूद सच को छिपा नहीं पा रहा था। इसके बावजूद संसद में तकनीकी बाजीगरी के सहारे बड़ी आसानी से यदि सरकार इतना बड़ा झूठ, इतनी आसानी से बोलने का दुस्साहस करती है तो यह सिर्फ इसके चलते क्योंकि वह जानती है इस देश की जनता के निर्वीर्य होने का सच। इसलिए वह बेखौफ है। उसे पता है न केवल यह देश, इसका समाज वीर्यहीन भी है, नपुंसक है, बल्कि रीढ़विहीन भी है। इसलिए संसद में एक जूनियर मंत्री के जरिए वह झूठ बोलती है तो सड़क पर उसका शीर्ष नेतृत्व ऐसा करने से गुरेज नहीं करता। अपने संसदीय क्षेत्र बनारस में आम सभा को संबोधित करते प्रधानमंत्री का चेहरा गौर से देखिए, उनके भाषण को गौर से सुनिए। कितनी मासूमियत और कितने विश्वास के साथ वह राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पीठ इस महामारी से निपटने में ‘उल्लेखनीय’ सफलता के लिए थपथपा देते हैं। क्या वाकई प्रधानमंत्री सच से अनभिज्ञ हैं? उन्हें क्या हर मोर्चे पर विफल रही योगी सरकार का सच मालूम नहीं? यदि नहीं तो उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने का कोई हक नहीं। और यदि सच पता होने के बावजूद वे जनता संग छल कर रहे हैं तो भी वे इस पद के हकदार नहीं। हक लेकिन उन्हें जनता ने भारी बहुमत के साथ स्वयं सौंपा है। जिस जनता के दम पर वे सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं, उसी जनता संग छल करने का साहस भी तो उन्हें जनता ने ही दिया है। पिछले सात सालों से वे छल पर छल कर रहे हैं और जनता छली जाने के बावजूद उन्हें सराह रही है। तब भला दोषी कौन? मानसून सत्र में ही एक ओर बड़े सच का खुलासा हो गया। इस सच को झूठा साबित करने के लिए सरकार झूठ पर झूठ बोलती जा रही है। यह सच है हमारी निजता के अधिकार पर चोट का। ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए बड़े पैमाने पर अपने विरोधियों की जासूसी करने का सच भले ही सरकार नकारती रहे, इस सच ने उस आशंका को सच साबित कर डाला है जिसके खौफ में पिछले कुछ वर्षों से हम जी रहे हैं। इजरायल की एक कंपनी द्वारा तैयार किए गए इस सॉफ्टवेयर के जरिए हरेक उस व्यक्ति के फोन सरकार टेप कर रही है जिन्हें वह शंका की निगाहों से देखती है। इनमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी समेत कई बड़े नेता, कई पत्रकार, यहां तक कि भाजपा के नेताओं तक का नाम सामने आ चुका है। सरकार लेकिन सच स्वीकारने को तैयार नहीं। उसका तर्क वही पुराना और घिसा-पिटा तर्क है कि फोन टेपिंग केवल राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए ही होती है और ऐसा एक स्थापित प्रक्रिया के बाद ही किया जाता है। आजाद भारत में लेकिन ऐसी किसी स्थापित प्रक्रिया के इत्तर गोपनीय तरीकों से अपने विरोधियों पर नजर रखने के आरोपों का इतिहास खासा पुराना है। जवाहर लाल नेहरू सरकार में संचार मंत्री रफी अहमद किदवई ने तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल पर ऐसा ही आरोप लगाया था। 1959 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल केएस थिम्मया और 1962 में नेहरू सरकार के मंत्री कृष्णामाचारी का भी ऐसा ही आरोप था। 1988 में कर्नाटक के तत्कालीन सीएम हेगड़े पर विपक्षी नेताओं ने फोन टेपिंग का आरोप लगाया जिसके चलते हेगड़े सरकार को इस्तीफा तक देना पड़ा था। इससे पहले 80 के दशक में राष्ट्रपति रहते ज्ञानी जैल सिंह ने राजीव गांधी सरकार पर जासूसी करने का आरोप लगा सनसनी मचा दी थी। यूपीए शासनकाल में समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह और कॉरपोरेट ब्रोकर नीरा राडिया के फोन टेपिंग चर्चा का विषय बना था तो 2011 में मनमोहन सरकार में कृषि मंत्री शरद पवार, दिग्विजय सिंह और सीपीएम नेता प्रकाश करात के फोन टेपिंग का आरोप यूपीए गठबंधन के मध्य भारी रार का कारण बना था। जाहिर है हरेक सरकार ने अपने शासनकाल में अपने विरोधियों पर नजर रखने का काम इस गैरकानूनी फोन टेपिंग के जरिए कराया। वर्तमान सरकार भी ऐसा ही कर रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले इस प्रकार के मामलों का खुलासा होने पर या तो सरकारें गिर जाती थीं या फिर शर्म से पानी-पानी होती नजर आती थीं। अब ऐसा नहीं है। मोदी सरकार अपने किए पर न तो शर्मिंदा है, न ही उसके गिर जाने का कोई खतरा है। वह बेखौफ ऐसा कर रही है क्योंकि वह जानती है कि यह देश कायरों का, नपुंसकों का, धर्म की अफीम चाट ‘ऑल इज वेल’ समझने वाले मूर्खों की जमात का देश है। यदि ऐसा न होता तो अंधभक्तों की फौज जगती, प्रश्न पूछती अपने रहनुमा से कि क्या हुआ तेरा वादा? क्या हुआ अच्छे दिनों का? क्या हुआ पांच ट्रिलियन इकोनॉमी का? क्यों राफेल की कीमत में तीन गुना इजाफा हुआ? कैसे एक सरकारी कंपनी को हटा कंगाल हो चुके उद्योगपति को राफेल डील का हिस्सा बना दिया गया? उत्तर मांगती अपने प्रश्नों का और यह भी पूछती कि क्योंकर हजारों करोड़ खर्च कर बादशाह ऐसे समय में अपने लिए महल बना रहा है जबकि उसकी जनता के हिस्से सिवाय हाहाकार-चीत्कार कुछ बाकी नहीं बचा? क्योंकि रहनुमा जानता है कि ऐसा कोई प्रश्न धर्म और जाति की अफीम खा चुके उसके भक्त पूछेंगे नहीं इसलिए वह बेखौफ है। उसे ‘अपने मन की’ करने का नशा चढ़ चुका है इसलिए उसे न तो सड़क की न ही संसद की कोई परवाह बाकी है। इसलिए लोकतंत्र में लोक द्वारा चुना गया व्यक्ति खुद को बादशाह समझने लगता है और नादिरशाही फरमान देने लगता है। आज के दौर के बादशाहों पर पिछले दिनों एक धारदार कविता सुनने को मिली। कवि, गीतकार और मुंबई फिल्मों के पटकथा लेखक पुनीत शर्मा की यह कविता हमारे वर्तमान को कम शब्दों में पूरा बयान कर डालती है। इसे पढ़ते समय याद रखें कि न तो हमारे मुल्क में ऑक्सीजन की कमी से कोई मरा है, न यहां बेरोजगारी है, कोई यहां भूखा नहीं सोता है, सभी के पास केवल और केवल खुशहाली है और यह कविता उन देशद्रोहियों का षड्यंत्र है जिन्हें सरकार ‘स्लीपिंग सेल’ ‘अर्बन नक्सली’ आदि कह पुकारती है। मेरा दावा है यदि आप यह याद करते हुए इस कविता को पढ़ेंगे तो कतई विचलित नहीं होंगे-

ये बादशाह का हुक्म है

तुम्हारी अर्थियां उठें मगर ये ध्यान में रहे/मेरे लिए जो है सजी वो सेज न खराब हो/ये बादशाह का हुक्म है, और एक हुक्म ये भी है/भले कोई मरे मेरी इमेज न खराब हो/ सुनो मेरे मंत्रियों सफेदपोश संत्रियों/जहां मिले जमीन खाली रोप दो कपास तुम/कपास मिल में डाल कर बुनो सफेद चादरें/गली-गली में जाकर के फिर ढको हर एक लाश तुम/ सवाल जो करे उसे नरक में तब तलक रखो/कहे न जब तलक मुझे कि आप लाजवाब हो/ये बादशाह का हुक्म है, और एक हुक्म ये भी है/भले कोई मरे मेरी इमेज न खराब हो/खरीदो ड्रोन कैमरे खीचों मेरी फोटो/दिखाओ उसको न्यूज पे करो मेरा प्रचार फुल/कहीं दिखे दाग तो जबान से ही पोछ दो/मगर ये ध्यान में रहे जबान में हो लार फुल/ निकाल रीढ़ हर किसी भीड़ वो बनाओ तुम/हो जुल्म बेहिसाब पर कभी न इंकलाब हो/ये बादशाह का हुक्म है, और एक हुक्म ये भी है/भले कोई मरे मेरी इमेज न खराब हो/जो सत्य है वो ही दिखे न लाग न लपेट हो/न कोई पेड़ न्यूज हो न झूठ का प्रचार हो/काट दे जो जुल्म को जो चीर दे अनर्थ को/वो पत्रकार के कलम में ऐसे तेजधार हो/ सलाख डाल कर, निकाल कर उछाल दो उसे/किसी की आंख में अगर ये बेहुदा सा ख्वाब हो/ये बादशाह का हुक्म है, और एक हुक्म ये भी है/भले कोई मरे मेरी इमेज न खराब हो

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