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मेरी बात
 

देश की आजादी की पिचहत्तरवीं वर्षगांठ के दिन, 15 अगस्त 2022 को गुजरात सरकार ने ग्यारह ऐसे दुर्दांत अपराधी जेल से मुक्त कर दिए जो हत्या और बलात्कार सरीखे गंभीर अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे। इन ग्यारह वहशियों-राधेश्याम शाह, जसवंत चतुरभाई, केशुभाई वदानिया, राजीभाई सोनी, रमेश भाई चौहान, शैलेश भाई भट्ट, बिपिन चन्द्र जोशी, गोविंद भाई नाईक, मिथलेश भट्ट, बाकाभाई वदानिया और प्रदीप मोधिया को बिलकिस बानो के सामुहिक बलात्कार और उसके 14 परिजनों की हत्या करने के आरोप चलते आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इन ग्यारह को मुंबई की एक विशेष सीबीआई कोर्ट ने 21, जनवरी, 2008 को दंडित किया था जिसे मुंबई उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था। 2002 में गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद शुरू हुए साम्प्रदायिक दंगों में तब सोलह बरस की की गर्भवती बिलकिस बानो संग सामुहिक बलात्कार दंगाइयों ने किया था और उसकी तीन बरस की बेटी तक की हत्या कर डाली थी। इन दंगों में बिलकिस बानो के 14 रिश्तेदारों की भी हत्या कर दी थी। प्रश्न उठता है, उठ रहा है, उठना चाहिए भी कि क्योंकर ऐसे दुर्दांत हत्यारों को गुजरात सरकार ने 14 बरस की सजा काटने के बाद रिहा करने योग्य मान लिया? और क्योंकर ऐसे वहशियों की रिहाई पर एक हिंदुवादी संगठन के सदस्यों ने जश्न मनाया? प्रश्न गुजरात भाजपा के विधायक सीके राउलजी की समझ पर भी उठ रहा है जिन्होंने इन दरिंदों को ‘ब्राह्मण और संस्कारी’ करार दिया है।

दरअसल इस पूरी कवायद के तार उस राजनीति से जुड़ते हैं जो हर कीमत यह साबित करना चाहती है कि भारत हिंदुओं का राष्ट्र है, जो यह साबित करने पर तुली हुई है कि भले ही इस देश का संविधान इसे पंथ निरपेक्ष मानता हो, यहां होगा वही जो बहुसंख्यक चाहेगा। बिलकिस बानो के गुनहगारों की रिहाई इसी बहुसंख्यक अतिवाद का एक उदाहरण मात्र है, ठीक वैसे ही जैसे गत् दिनों इन्हीं दंगों की एक अन्य पीड़िता जकिया जाफरी संग होते हमने देखा है। बिलकिस बानो के गुनहगारों को रिहा करने का फैसला गुजरात सरकार द्वारा गठित एक समिति ने ‘सर्व सम्मति’ से लिया है। इस फैसले की बुनियाद राज्य सरकार की उस सजा-माफी नीति से जुड़ी है जिसे 1992 में बनाया गया था। इस नीति के अनुसार किसी भी प्रकार के जुर्म के लिए सजा पाए अपराधियों को राज्य सरकार जेल में उनके ‘अच्छे’ आचरण को देखते हुए समय से पहले ही रिहा कर सकती है। 2014 में गुजरात सरकार ने इस नीति में परिवर्तन करते हुए बलात्कार और हत्या के लिए सजा पाए अपराधियों को माफी नहीं दिए जाने का नियम बना दिया था। इसके बावजूद इन ग्यारह अपराधियों की सजा माफी पर फैसला 1992 की नीति के अनुसार लिया गया। राज्य सरकार का तर्क है कि ऐसा सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय चलते लिया गया जिसमें इसी मामले से जुड़े एक अपराधी राधेश्याम भगवानदास शाह की अपील पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सजा-माफी पर विचार करने के लिए 1992 की नीति को आधार बनाने का आदेश दिया था क्योंकि जब इन ग्यारह को सजा सुनाई गई थी तब 1992 की नीति लागू थी। 2014 में संशोधित की गई नीति में यह भी प्रावधान है कि अगर दोषी को किसी केंद्रीय जांच एजेंसी की जांच चलते सजा मिली है तो बगैर केंद्र सरकार की सहमति लिए उसकी सजा माफी नहीं की जा सकती है। ऐसे में प्रश्न उठ रहे हैं कि राज्य सरकार ने सुप्रीम  कोर्ट के आदेश को चुनौती क्योंकर नहीं दी? निश्चित ही उच्चतम न्यायालय का यह आदेश न्याय संगत नहीं है क्योंकि इसकी आड़ में राज्य सरकार ने वह कर डाला जिसकी उम्मीद एक लोकतांत्रिक देश में शायद ही कोई कर सकता था। इस सजा माफी के लिए राज्य सरकार ने जिस कमेटी का गठन किया था उसकी निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं क्योंकि इस कमेटी में सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त दो सदस्य ऐसे भी हैं जिनका ताल्लुक सत्तारूढ़ भाजपा से है। एक सदस्य वही भाजपा विधायक हैं जिनकी नजर में ये अपराधी ‘ब्राह्मण और संस्कारी’ हैं तो दूसरी सदस्य गुजरात भाजपा की महिला विंग से जुड़ी नेता हैं। राज्य सरकार के फैसले बाद ‘अमृत महोत्सव’ मना रहे देश में 15 अगस्त के दिन सभी ग्यारह ‘संस्कारी’ महापुरुष गोधरा जेल से रिहा कर दिए गए। ये सभी संस्कारी जब अपने गांव सिंहवाज पहुंचे तो वहां उनका किसी जननायक भांति जश्न मनाकर स्वागत किया गया। गुजरात सरकार के इस फैसले पर न्यायपालिका भीतर ही असंतोष के स्वर उभरने लगे हैं। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बशीर अहमद खान ने इसे ‘बलात्कार कानून संग बलात्कार’ किए जाने की संज्ञा दी है। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस सोढ़ी ने इसे ‘न्याय संग मजाक’ कह पुकारा है। दिल्ली हाईकोर्ट के एक अन्य पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस ़एन ़ ढींगरा का कहना है कि सजा-माफी का फैसला 2014 की नीति के आधार पर लिया जाना चाहिए था क्योंकि ऐसे मामलों में सरकार उस नीति को आधार नहीं बना सकती है जो रद्द की जा चुकी हो। राज्य सरकार के इस फैसले के बाद मचे बवाल ने मामले को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा दिया है। अब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन ़वी ़रमन्ना इस मामले पर अंतिम फैसला लेंगे। 25 अगस्त को न्यायमूर्ति रमन्ना ने इस मामले की सुनवाई करते हुए गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया है। बहुत संभव है कि जल्द ही सेवानिवृत्त होने जा रहे न्यायमूर्ति रमन्ना राज्य सरकार के इस पक्षपातपूर्ण फैसले को रद्द करते हुए न्यायपालिका पर आम आदमी के भरोसे को बरकरार करने संबंधी फैसला दें। यह भी संभव हे कि ऐसा न हो और ये दुर्दांत हत्यारे आजाद हो रहे। यदि ऐसा होता है तो आजादी के पिचहत्तरवें वर्ष में न्याय संग यह सबसे घोर अन्याय होगा। जिसकी गूंज और जिसका प्रभाव इस देश के लोकतंत्र की नींव को कमजोर करने वाला सिद्द होगा। अभी कुछ ही अर्सा पहले गुजरात दंगों से ही जुड़े एक अन्य मामले ‘गुलबर्ग सोसायटी केस’ में अपनी व्यवस्था देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात की तत्कालीन राज्य सरकार और राज्य की जांच एजेंसियों को पूरी तरह बेदाग बताते हुए इन मामलों में पीड़ितों को न्याय दिलाने की मुहिम चला रहे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और गुजरात पुलिस के दो अफसरों की निष्ठा पर ही सवाल खड़े कर डाले हैं। देश की सबसे बड़ी न्यायपीठ का आदेश आते ही केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों ने ‘त्वरित’ कार्यवाही करते हुए ऐसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पुलिस अफसरों की गिरफ्तारी कर डाली है। ऐसे में न्यायपालिका की निष्ठा पर सवाल खड़े हो रहे हैं। स्वतंत्रता की पिचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहे देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण, उनका सत्ता के दबाव में आना और सत्ताधारियों को सुहाने वाले फैसले लेना भविष्य के भारत का उस अंधी गली के मुहाने पर जा खड़े होने जैसा है जहां एक बार प्रवेश लेने के बाद वापसी का मार्ग संभव नहीं है। कवि गजलकार दुष्यंत कुमार ने लिखा-
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं/गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं/अब तो इस तालाब का पानी बदल दो/ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं/वो सलीबों के करीब आए तो हमको/कायदे-कानून समझाने लगे हैं/एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है/जिसमें तहखानों में तहखाने लगे हैं/मछलियों में खलबली है अब सफीने/उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं/मौलवी से डांट खा कर अहले-मकतब/फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं/अब नई तहजीब के पेशे-नजर हम/आदमी को भूनकर खाने लगे हैं
क्या आपको नहीं लगता हमारे मुल्क के हालात ठीक ऐसे ही हो चले है। हमारा समाज आदमखोर बनता जा रहा है, ऐसा समाज जहां की नई तहजीब आदमी को आदमी के द्वारा भूनकर के खाने की बन चुकी है। जिस गंगा-जमुनी संस्कृति की बात हमें बचपन में बताई गई थी उस संस्कृति का अब नामोनिशान तक नहीं बचा है। धर्म और जाति के नाम पर चौतरफा हाहाकार मचा हुआ है जिसने सभी मानवीय मूल्यों की गरिमा को तार-तार कर डाला है। निश्चित ही आजादी के पिचहत्तर साल पूरे होने पर जश्न मनाया जाना बनता है लेकिन इस जश्न के साथ-साथ इस पर भी मंथन-चिंतन किया जाना जरूरी है कि इन पिचहत्तर बरसों में हमने क्या पाया, कितना पाया और क्या खोया, कितना खोया। यदि इस पर ईमानदारी से विचार किया जाएगा तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारा वर्तमान एक ऐसी अंधी गली के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जिसमें यदि वह प्रवेश कर गया तो वापसी का मार्ग मिलना लगभग असंभव है और यह अंधी गली इस महान लोकतंत्र के लिए, उसके लोक के लिए बेहद कष्टदायी साबित होगी।
क्रमशः

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