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मेरी बात

गत् पांच सितंबर को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने ‘हिजाब प्रकरण’ को लेकर कुछ खास बातें इस मामले की सुनवाई के दौरान कही। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से एक महत्वपूर्ण सवाल किया कि ‘निसंदेह आप के पास अपने धर्म के पालन करने का अधिकार है लेकिन क्या आप इस अधिकार को उस विद्यालय में ले जा सकते हैं जिसकी अपनी एक तय पोशाक है? (You may have a religious right to practice what ever you want. But can you take this right to a school which has a uniform?)  ‘हिजाब प्रकरण’ पिछले कुछ अर्से से खासा सुर्खियों में रहा है। जनवरी, 2022 में इसकी गूंज पूरे देश में तब सुनाई दी जब कर्नाटक के कुछ स्कूलों में मुस्लिम धर्म की छात्राओं को इस कारण कक्षाओं में प्रवेश करने से रोक दिया गया कि वे ‘हिजाब’ पहन स्कूल में आना चाह रही थीं। एक काॅलेज से शुरू हुआ यह विवाद आग की तेजी से पूरे कर्नाटक में फैल गया और जैसा होता आया है शीघ्र ही इसने राजनीतिक और धार्मिक रंग ले लिया। हिंदुवादी संगठनों ने भगवा स्कार्फ पहन स्कूल-काॅलेजों में आने की बात कह माहौल को और ज्यादा तनावपूर्ण और सांप्रदायिक कर डाला। पांच फरवरी, 2022 को कर्नाटक सरकार ने एक आदेश जारी कर स्पष्ट कर दिया कि स्कूल एवं काॅलेजों में केवल तय पोशाक (यूनीफाॅर्म) पहन कर ही प्रवेश लिया जा सकता है और इसमें किसी भी धर्म के लिए विशेष छूट नहीं दी जाएगी। इस आदेश के बाद हिजाब पहन कर आने वाली मुस्लिम छात्राओं को स्कूल-काॅलेजों में प्रवेश नहीं करने दिया जिसके खिलाफ कई याचिकाएं कर्नाटक हाईकोर्ट में पीड़ित पक्ष द्वारा दायर की गईं। इस बीच राज्य में हालात इतने खराब हो गए कि राज्य सरकार को कुछ दिनों के लिए शिक्षण संस्थाओं में छुट्टी रखने के आदेश देने पड़े थे। आठ फरवरी को हाईकोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में किसी भी प्रकार की धार्मिक पोशाक को शिक्षण संस्थाओं में पहन कर जाने पर रोक लगा दी। 15 मार्च, 2022 को हाईकोर्ट ने इस मामले में अपना फैसला सुनाते हुए हिजाब पहन स्कूल-काॅलेजों में आने पर कर्नाटक सरकार द्वारा लगाई रोक को सही करार देते हुए व्यवस्था दी कि हिजाब पहनना मुस्लिम धर्म में अनिवार्य नहीं है। इस निर्णय के आते ही इस पर बड़े स्तर की बहस और उससे भी ज्यादा राजनीति होने लगी। जहां एक तरफ तस्लीमा नसरीन सरीखी लेखिका ने इसे सही निर्णय करार दिया तो कई मानवाधिकार संगठनों ने इसे गलत बता डाला। कर्नाटक की कुल आबादी साढ़े छह करोड़ के करीब है जिसमें से 13 प्रतिशत मुस्लिम हैं। हिजाब को लेकर यहां विवाद दशकों पुराना रहा है लेकिन कभी भी इसने इतना विकराल रूप अतीत में नहीं लिया था। यहां के तटीय इलाकों, विशेषकर दक्षिण कर्नाटक में जैसे-जैसे हिंदुवादी संगठनों ने अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू की, इस प्रकार के विवाद गहराने लगे। ‘बजरंग दल’, ‘विश्व हिंदू परिषद’, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’, आदि के यहां सक्रिय होने के साथ ही कट्ररपंथी मुस्लिम संगठन ‘पाॅपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया’ ने भी यहां अपनी गतिविधियां तेज कर दी जिसका नतीजा धार्मिक वैमन्सयता के रूप में उभर कर सबके सामने है। दक्षिण भारत में कर्नाटक पहला ऐसा राज्य है जिसमें भाजपा अपनी सरकार बनाने में सफल हुई थी। ‘गोवध’ पर रोक लगाने से लेकर धर्मांतरण विरोधी कानून इत्यादि भाजपा के यहां सत्ता में आने बाद कड़ाई से लागू किए गए जिनके चलते हिंदू और मुसलमान के मध्य खाई गहराई है। हिजाब प्रकरण के पीछे भी धर्म के नाम पर अपनी सियासत चमकाने वालों का हाथ स्पष्ट रूप से सामने आता है। इस पूरे प्रकरण को हवा देने का काम कट्टरपंथी संगठन ‘पाॅपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया’ की छात्र इकाई ‘कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया’ को जाता है जिसने उडुपी के एक स्कूल में हिजाब पर लगी रोक को मुद्दा बनाया जिसकी चपेट में पूरा कर्नाटक आ गया। हिजाब या अन्य किसी भी धर्म से जुड़ी पोशाक को पहनने पर रोक पहले से ही शिक्षण संस्थाओं में थी। मुस्लिम छात्राओं ने कभी भी इसे लेकर कोई मसला नहीं बनाया था। शिक्षण संस्थाओं का तर्क है कि उन्हें किसी धर्म विशेष से जुड़ी पोशाक से कोई आपत्ति नहीं है, वे केवल अपने कैंपस पर तय यूनीफाॅर्म को पहनने के नियम पर जोर देते हैं। उडुपी पुलिस की माने तो इस पूरे मामले की जड़ में ‘कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया’ है जिसने मुस्लिम छात्राओं और उनके अभिभावकों को उकसा कर इस विवाद को भड़काया है। हिंदुवादी संगठन ऐसे में भला कैसे पीछे रहते। उन्होंने भगवा वस्त्रों के साथ स्कूल- काॅलेज में जाने की बात कह पूरे मामले को राजनीतिक रूप देने में समय नहीं गंवाया। कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस मामले में अपना निर्णय सुनाते हुए अब्दुल्लाह युसुफ अली द्वारा कुरान की व्याख्या का हवाला दिया। युसुफ अली की पुस्तक  ‘The Holy Quran: Text, Translation and Commentary’ को ही आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1984 में शाहबानों प्रकरण पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अली के मुताबिक कुरान में हिजाब पहने जाने की व्यवस्था केवल और केवल महिलाओं के यौन शोषण के चलते ‘जाहिलिया वक्त’ में की गई थी। ‘जाहिलिया वक्त’ इस्लाम से पहले के उस दौर को कहा जाता है जब समाज पूरी तरह से बर्बर और नासमझ था और जब पैगम्बर मोहम्मद को अल्लाह ने कुरान की बाबत नहीं बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने गत् पांच सितंबर को हाईकोर्ट, कर्नाटक के इसी फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कई महत्वपूर्ण बिंदु उठाए। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने याचिकाकर्ताओं के वकील के इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया कि चुन्नी और हिजाब एक ही प्रकार के वस्त्र हैं और यदि चुन्नी को स्कूलों की पोशाक का हिस्सा बनाया जा सकता है तो हिजाब को क्यों नहीं? न्यायमूर्ति धूलिया और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को भी अस्वीकार कर दिया कि हिजाब इस धार्मिक परंपरा का हिस्सा है इसलिए संविधान प्रदत्त धार्मिक आस्था की आजादी के अंतर्गत इसे पहनने से रोका नहीं जा सकता है।
बहरहाल अभी सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर लंबी बहस होने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं। याचिकाकर्ताओं का दबाव है कि इसे संवैधानिक पीठ के हवाले कर दिया जाए। मैं मानता हूं इस प्रकार के मुद्दों के चलते हमारी ऊर्जा और समय व्यर्थ ही जाया हो रहे हैं। हिजाब पहनने या न पहनने की बात निजी पसंद-नापसंद से जुड़ती है, यदि यह किसी धर्म विशेष के अनुसार जरूरी है तो भी एक विकसित समाज और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धार्मिक मान्यताओं को आधार बना व्यवस्थाएं नहीं बनाई जा सकती हैं।
हिजाब किसी एक समय विशेष में उस दौर की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार जरूरी रहा होगा, आज के समय में इसे मुद्दा बनाया जाना कतई भी तर्कसंगत मेरी दृष्टि में नहीं है। इस प्रकार के नैरेटिव में उलझ पहले से ही विषाक्त माहौल को और ज्यादा जहरीला बना उन ताकतों के षड्यंत्रों को मजबूती देने का काम जाने-अनजाने आमजन द्वारा किया जा रहा है जो धर्म को आधार बना सत्ता में काबिज हुई है और काबिज बने रहना चाहती है। ऐसी ताकतों को वे भी जमकर मदद पहुंचाने का काम करते नजर आते हैं जिनसे अपेक्षा रहती है कि वे बगैर किसी
वैचारिक दबाव में आए ऐसे मुद्दों पर तर्कसंगत बात करेंगे। उदाहरण के लिए इस प्रकरण में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर और ख्याति प्राप्त लेखक अपूर्वानंद का बयान है जिसमें वे इस प्रसंग को उन ताकतों की साजिश करार देते हैं जो अल्पसंख्यकों को यह जताना चाहती है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। अपूर्वांनंद कहते हैं  ‘It is telling Muslims and non-Hindus that the State will dictate their appearence and their practices’। मैं अपूर्वांनंद के कथन से पूरा इत्तेफाक रखता हूं लेकिन मैं समझता हूं कि बेहतर होता वह ऐसी ताकतों को निशाने पर रखते हुए अपने बयान में यह भी जोड़ देते कि हिजाब पहनना यदि स्कूल अनुशासन के खिलाफ है तो उसे मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए था। ऐसे मुद्दों के भ्रमजाल में फंसकर ही भारत आजादी के 75 बरस बीत जाने बाद भी आमजन की मूलभूत सुविधाओं और बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाया है। 1987 के आस-पास हमारी और चीन की अर्थव्यवस्था क्या थी और आज दोनों में कितना फासला बढ़ चुका है, यह अकेला एक पैमाना काफी है जो स्पष्ट कर देगा कि जब हम गली-गली घूम ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा बुलंद कर रहे थे, चीन अपनी आधारभूत संरचना को, अपनी आर्थिकी को मजबूती देने के काम में जुटा हुआ था। आज हम, हमारी आर्थिकी चीन से इतना पिछड़ चुके हैं तो इसका एक बड़ा कारण हमारा व्यर्थ के मुद्दों पर अपना समय और अपनी ऊर्जा जाया करना है।
प्रश्न उठता है, हरेक जागरूक नागरिक के मन में यह प्रश्न उठना चाहिए कि क्या हम इन अंधी गलियों में ही भटकते रह जाएंगे या फिर रोशनी का कोई सुराग मिलेगा जिसके सहारे हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए खुशहाली और अमन चैन का रास्ता तैयार हो सके। वर्तमान पर दुष्यंत कुमार का कहा ही सही बैठता है-कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

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