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मेरी बात

बड़ी रौनक थी इस घर में,
ये घर ऐसा नहीं था,
गिले-शिकवे भी रहते थे, मगर
ऐसा नहीं था।
जहां कुछ शीरीं बातें थीं, वहीं
कुछ तल्ख़ बातें थीं।
मगर उन तल्ख बातों का असर
ऐसा नहीं था
इन्हीं शाखों पे गुल थे, बर्ग थे,
कलियां थीं, गुंचे थे,
ये मौसम जब न ऐसा था, शज़र
ऐसा नहीं था।
                              -जावेद अख्तर

जब हम बड़े हो रहे थे तब उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों की आबोहवा प्रदूषण रहित हुआ करती थी। हर प्रकार के प्रदूषण से महफूज माहौल में हमारी परवरिश हुई। कह सकते हैं कि तब सही अर्थों में यह देवभूमि थी। मैं अल्मोड़ा जनपद के एक छोटे से कस्बानुमा शहर रानीखेत में जन्मा और मेरा बचपन वहीं बीता। रानीखेत भारतीय थल सेना की महत्वपूर्ण छावनी तब हुआ करता था, आज भी है। तब (अस्सी के दशक में) उत्तर प्रदेश का हिमालयी इलाका आंदोलनकारियों का गढ़ हुआ करता था। एक तरफ पृथक राज्य बनाने की मुहिम जोर पकड़ रही थी तो दूसरी तरफ पहाड़ को नशा मुक्त बनाने का संकल्प लिए आंदोलनकारी सड़कों पर उतर चुके थे। ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन इसी दौर में शुरू हुआ था जिसने बड़ी संख्या में युवाओं को नशे से दूर रहने के लिए प्रोत्साहित तो किया ही, तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार पर भी भारी दबाव बना 12 प्रतिशत से अधिक एस्कोहल वाली दवाइयों को भी पहाड़ी इलाकों में प्रतिबंधित कराने का काम किया था। यही वह दौर भी था जब घोर दक्षिणपंथी ताकतों ने एक अन्य प्रकार के नशे को देशभर में फैलाने की मुहिम शुरू कर दी थी। 1980 में पैदा हुई भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश के शहर अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद को निशाने पर रख वहां पर भगवान राम के मंदिर बनाए जाने की मुहिम को इसी दौर में आगे बढ़ाने में सफलता पाई थी। नशा विरोधी अभियान तो आंशिक सफलता के बाद काल- कवलित हो गया, राम मंदिर निर्माण के नाम पर पैदा हुआ उन्माद लेकिन धीरे-धीरे बढ़ता चला गया और आज हालात यहां आ पहुंचे हैं कि सविधान संकल्पित पंथ निरपेक्ष राष्ट्र एक धर्म विशेष के अनुयायियों का देश बनता जा रहा है। ऐसा देश जहां अल्पसंख्यकों को देशद्रोही की नजरों से देखे जाने की प्रवृत्ति राष्ट्रवादी होने की अनिवार्य शर्त बन चुकी है। जावेद अख्तर की नज्म़ ‘ये घर ऐसा नहीं था’ का स्मरण मुझे इसी घातक, बेहद घातक प्रवृत्ति के चलते हो आया। आज यानी 8 सितंबर, 2024 का अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ मेरे सामने है। इसके प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित समाचार का शीर्षक इस ‘घर’ की रौनक के बदरंग होने की कहानी कह रहा है। शीर्षक है- ‘In Rudraprayag, (Non- Hindu’ warning by local outfits triggers fear and unease’  (रूद्रप्रयाग में, स्थानीय संगठनों द्वारा जारी चेतावनी से गैर हिंदुओं में भय और असहजता)। याद रखें हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर टिका है। याद रखें कि 1947 के विभाजन दौरान करोड़ों मुसलमानों ने अपनी इच्छानुसार इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान के बजाए हिंदुस्तान को अपनी मातृभूमि मान यहीं रहने का फैसला लिया था। यह भी याद रखें की आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ न्यौछावर करने वालों में केवल हिंदू नहीं, बल्कि मुसलमान भी शामिल थे। ‘वाट्सऐप विश्वविद्यालय’ से मिलने वाले ‘ज्ञान’ पर भरोसा न करें, मेरी या मुझ सरीखे किसी की भी बात पर भी भरोसा न करें, स्वयं इतिहास का अध्ययन करें ताकि यह समझ सकें कि धर्म नामक नशे ने कैसे हमारी चेतना को अपने काबू में कर हमें अमानुष बना डाला है। रूद्रप्रयाग, केदारनाथ धाम की यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां दशकों से हिंदू और मुसलमान सौहार्दपूर्ण माहौल में रहते आए हैं। जैसा जावेद अख्तर कहते हैं कभी-कभार इन दो समुदायों में तनाव भी होता रहा है लेकिन ऐसे हालात कभी नहीं देखने को मिले। खबर के अनुसार यहां एक स्थानीय हिंदुवादी संगठन ‘भैरव सेना’ के नाम पर जगह-जगह चेतावनी बोर्ड लगा दिए गए हैं जिनमें लिखा है-‘गैर हिंदुओं/रोहिंग्या मुसलमानों और फेरी वालों का यहां घूमना और व्यापार करना वर्जित है। यदि ऐसा करता कोई पकड़ा जाएगा तो उसके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी।’ स्थानीय नागरिकों का आरोप है कि एक समुदाय विशेष द्वारा उनके धार्मिक स्थलों में चोरी किए जाने और लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाओं में बढ़ोतरी चलते उन्हें यह चेतावनी जारी करनी पड़ी है। देवभूमि में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंदू संगठनों की आक्रामकता बीते कुछ वर्षों के दौरान बढ़ी है। 2023 में उत्तरकाशी जिले में हिंदू लड़की और एक मुसलमान युवक साथ में पाए गए जिसके चलते भारी तनाव इलाके में पैदा हुआ था। मुसलमानों की दुकानों के बाहर तब ‘दुकानें खाली करो’ के पोस्टर चस्पां होने के बाद कई मुस्लिम परिवारों ने पलायन करने में ही अपनी भलाई समझी थी। ‘देवभूमि रक्षा अभियान’ के नाम से प्रकाशित इन पोस्टरों की जांच का भरोसा तब स्थानीय पुलिस ने दिलाया जरूर था लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की गई जिस चलते ऐसे संगठनों का हौसला लगातार बढ़ा है। हालात इतने विकट हैं कि राज्य का पुलिस बल भी अब धर्मांध हो चला है। चमोली जनपद के नंदानगर में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने बाद मित्र पुलिस के एक वाट्सऐप गु्रप की चैट सामने आई है। ‘UK-01 to 13 Uttarakhand police’ नाम से बने इस गु्रप में एक समुदाय विशेष को लेकर बेहद आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं। ये टिप्पणियां दर्शाती हैं कि हमारे सुरक्षा बल किस हद तक साम्प्रदायिक हो चले हैं और उनके भीतर एक धर्म विशेष के प्रति कितना विष भरा हुआ है। हालांकि अब महात्मा गांधी पूरी तरह अप्रासांगिक हो चले हैं। उनकी शिक्षा, उनके विचार, उनका इस देश के प्रति योगदान और बलिदान सभी वर्तमान समय में सोची-समझी साजिश के तहत भुला दिए गए हैं फिर भी जिन्हें इतिहास बोध है, जो जानते-समझते हैं कि आजादी की लड़ाई में कौन शामिल थे, जो गांधी के विचारों की शक्ति से वाकिफ हैं और धार्मिक उन्माद के खतरों को जो समझते हैं और उससे भयभीत हैं, (मैं भी ऐसों में शामिल हूं) इस चलते धार्मिक उन्माद के इस प्रचंड दौर में महात्मा के विचारों से उस पीढ़ी को अवगत कराना चाहता हूं जो हिंदुत्व को राष्ट्रवाद का पर्यायवाची मानने की महाभूल कर रही है। महात्मा  ने ‘यंग इंडिया’ अखबार में अगस्त 18,1924 में लिखा था- ‘प्रतिशोध का कानून आदमकाल से ही आजमाया जा रहा है और हम अनुभव से जानते हैं कि यह निराशाजनक रूप से विफल रहा है। हम इसके जहरीले प्रभाव का दंश झेल रहे हैं। हिंदू कभी भी टूटे हुए मंदिरों के प्रतिशोध में मस्जिद नहीं तोड़ सकता। ऐसा करना गुलामी से भी बदत्तर है। भले ही हजारों मंदिर टूट जाएं, मैं एक भी मस्जिद को हाथ नहीं लगाऊंगा क्योंकि मेरा विश्वास है कि इस तरफ मैं कट्टरपंथियों के तथाकथित विश्वास पर अपनी श्रेष्ठता साबित कर सकूंगा।’

गांधी के इसी दर्शन का कमाल है कि हम आजादी बाद लोकतंत्र को जिंदा रख पाए और हमसे अलग हुआ पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र बन बर्बाद हो गया। महात्मा को सोची-समझी रणनीति के तहत बदनाम करने का प्रयास उनके जीवनकाल और उनकी निर्मम हत्या के बाद भी जारी रखा गया। बीते पिचहत्तर वर्षों के दौरान ऐसी ताकतें शनैः-शनैः अपनी पकड़ मजबूत कर पाने में सफल रही हैं जिन्हें गांधी फूटी आंख नहीं सुहाते और जिनके लिए गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे किसी क्रांतिकारी से कमतर नहीं है। गांधी भगवान नहीं थे। उनमें भी आम इंसान की भांति कई कमजोरियां रही होंगी, किंतु वे आम मनुष्य से कहीं ऊपर थे। उन्होंने अपने मूल्यों संग कतई समझौता नहीं किया। वे स्वयं सनातनी हिंदू धर्म के उपासक थे लेकिन सर्वधर्म सम्भाव उनके जीवन मूल्यों में शामिल था। गोडसे के हाथों गोली खाने के बाद उनके अंतिम शब्द ‘हे राम’ थे। मृत्यु के समय भगवान राम का नाम लेने वाला शख्स सही अर्थों में रामभक्त ही हो सकता है। इसलिए जीवन भर उन्होंने मर्यादाओं का पालन किया और राम के समान ही कभी सत्ता के पीछे नहीं भागे। जब कभी मैं अवसाद में होता हूं मुझे महात्मा का स्मरण हो आता है। कवि शमशेर बहादुर सिंह ने महाकवि निराला के लिए लिखा था-

भूलकर जब राह जब-जब राह… भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बनकर मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिए
जगत के उन्माद का परिचय लिए और
आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम…

राह भटक चुके राष्ट्र के लिए भी महात्मा ही एक मात्र आसरा हैं। अफसोस कि महात्मा को याद करने वालों की संख्या अब नगण्य हो चली है। हम हिंदू राष्ट्र बनने की राह पकड़ पाकिस्तान का अनुसरण कर ऐसे अंधे कुंए में खुद को डुबोने की तैयारी कर रहे हैं जहां से हमें कोई उबार नहीं पाएगा।

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