मेरी बात
स्मृति दोष से ग्रसित हमारे देश में बहुत-सी घटनाओं, बहुत से मुद्दों को लेकर भारी बवाल मचता है, आम से लेकर खास तक उद्वेलित-आंदोलित होता है, धरने- प्रदर्शन, संसद में हंगामा, कैंडल मार्च इत्यादि निकलते हैं और फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। इतना सामान्य मानो कुछ हुआ ही न हो। जीवन की अनवरत चक्की चलती रहती है और जिन घटनाओं, जिन मुद्दों को लेकर हंगामा बरपा था, वह या तो भुला दिए जाते हैं या फिर उन्हें तब याद किया जाता है जब उनकी पुनरावृत्ति होती है। एक ऐसा ही प्रसंग पैगासस जासूसी सॉफ्टवेयर का है जिसने बीते वर्ष भारतीय जनमानस को झकझोर दिया था। गत् सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जो टिप्पणी की, उससे पूरा मामला ज्यादा पेचीदा हो गया है। इस टिप्पणी पर चर्चा से पहले जरा अपनी याददाश्त दुरस्त कर ली जाए ताकि सुप्रीम कोर्ट के कथन को ठीक से समझा जा सके।
पैगासस एक इजराली कंपनी ‘एनएसओ’ द्वारा तैयार किया गया ऐसा सॉफ्टवेयर है जिसे खुफिया तरीकों से किसी भी व्यक्ति के मोबाइल फोन में स्थापित कर उसकी जासूसी की जा सकती है। गत् वर्ष की शुरुआत में खोजी पत्रकारिता से जुड़े सत्रह अंतरराष्ट्रीय मीडिया समूहों की एक रिपोर्ट सामने आई थी जिसमें यह दावा किया गया था कि विश्व की अनेक सरकारें अपने यहां इस सॉफ्टवेयर का उपयोग कर अपने राजनीतिक विरोधियों की जासूसी करवा रही हैं। भारत में भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाने की बात इस रिपोर्ट में कही गई थी। भारत में इस सॉफ्टवेयर के जरिए जिन लोगों की जासूसी कराए जाने का आरोप लगा था उनमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी, सीबीआई के पूर्व प्रमुख आलोक वर्मा, राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर समेत कई ऐसे नाम शामिल हैं जो केंद्र सरकार और केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा के प्रबल विरोधियों में गिने जाते हैं। जाहिर है इस रिपोर्ट के सामने आते ही हंगामा बरप गया। ‘प्रेस क्लब ऑफ इंडिया’ ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब लोकतंत्र के सभी स्तंभों की जासूसी करवाई जा रही है। संपादकों की संस्था ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ ने भी ‘साहस’ का प्रदर्शन करते हुए कहा था ‘This act of snooping essentially conveys that journalism and political dissent are now equated with ‘terror’ How Can a constitutional democracy survive if
governments do not make an effort to protect freedom of speech and allows surveillance with such impunity? (जासूसी कराए जाने का यह मामला संदेश देता है कि अब पत्रकारिता एवं राजनीतिक विरोध को ‘आतंकी’ गतिविधि माना जाने लगा है। एक संवैधानिक लोकतंत्र कैसे बचा रह पाएगा जब सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कदम नहीं उठाएगी और इस प्रकार की जासूसी को खुलेआम होने देगी?)। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने भी इस मुद्दे को लेकर संसद से लेकर सड़क तक आवाज बुलंद की। ख्याति प्राप्त पत्रकार एन राम (अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदू’ के संपादक) समेत कई गणमान्य लोगों ने पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी।
governments do not make an effort to protect freedom of speech and allows surveillance with such impunity? (जासूसी कराए जाने का यह मामला संदेश देता है कि अब पत्रकारिता एवं राजनीतिक विरोध को ‘आतंकी’ गतिविधि माना जाने लगा है। एक संवैधानिक लोकतंत्र कैसे बचा रह पाएगा जब सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कदम नहीं उठाएगी और इस प्रकार की जासूसी को खुलेआम होने देगी?)। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने भी इस मुद्दे को लेकर संसद से लेकर सड़क तक आवाज बुलंद की। ख्याति प्राप्त पत्रकार एन राम (अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदू’ के संपादक) समेत कई गणमान्य लोगों ने पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी।
केंद्र सरकार इस मुद्दे को लेकर पहले तो पूरी तरह उदासीन रही, फिर थोड़े डिफेंसिव मोड में आती नजर आई। सरकार ने स्पष्ट रूप से पैगासस सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल की बात को न तो नकारा, न ही स्वीकारा। तत्कालीन सूचना मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने पूरे प्रकरण की न्यायिक जांच कराने के मुद्दे पर तब टिप्पणी करते हुए कहा था कि जब 45 से अधिक देश इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं तो क्योंकर केवल भारत को ही निशाने पर रखा जा रहा है? भाजपा और केंद्र सरकार का फोकस इस प्रकरण को भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र बताने पर केंद्रित रहा। केंद्र सरकार द्वारा मामले की जांच कराए जाने से इनकार करने के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने इस मुद्दे पर एक राज्य स्तरीय जांच आयोग का गठन कर दिया। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस कमीशन की अगुवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन लूकर और कोलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति ज्योतिरमय भट्टाचार्य का चयन किए जाने की घोषणा भी कर दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में एक जांच समिति बनाए जाने का फैसला लेते हुए इस आयोग को कोई भी कार्यवाही करने से रोक दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 28 अक्टूबर, 2021 को एक उच्च स्तरीय समिति का गठन कर उसे पूरे मामले की तकनीकी जांच कर कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए कहा। इस कमेटी ने 29 ऐसे मोबाइल फोन की जांच की जिनमें इस सॉफ्टवेयर को गैरकानूनी तरीके से इंस्टॉल कर जासूसी करवाए जाने की आशंका थी। इनमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी का फोन भी शामिल था। बीती 25 अगस्त के दिन अपनी सेवानिवृत्ति से ठीक एक दिन पहले मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन ़वी ़ रमन्ना ने इस कमेटी की रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल कर दिया। न्यायमूर्ति रमन्ना ही इस कमेटी के प्रमुख हैं। उन्होंने रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 29 में से 5 मोबाइल फोन में कुछ गड़बड़ पाई गई लेकिन पैगासस का इस्तेमाल होने के पुख्ता सबूत नहीं पाए गए हैं। न्यायमूर्ति रमन्ना ने यह भी कहा कि केंद्र सरकार ने कमेटी को इस मामले में अपेक्षित सहयोग नहीं दिया। संकट उनके इस कथन से ही शुरू होता है जो वर्तमान समय में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और लोकतांत्रिक संस्थाओं के कामकाज में आ रहे भारी विचलन की तरफ स्पष्ट इशारा करता है। प्रश्न उठने लगे हैं कि आखिरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई तकनीकी कमेटी द्वारा जांचे गए मोबाइल फोंस में पैगासस सॉफ्टवेयर मौजूद होने के पुख्ता प्रमाण क्यों नहीं तलाश पाई जबकि टोरटों विश्वविद्यालय की सिटिजन लैब और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल की लैब द्वारा किए गए फॉरेंसिक टेस्ट में इस सॉफ्टवेयर के मौजूद होने की बात प्रमाणित हो चुकी है। इतना ही नहीं 2019 में ‘वट्सअप’ द्वारा एक अमेरिकी अदालत में यह स्वीकारा गया है कि दुनिया भर में लगभग 14,000 मोबाइल्स में यह सॉफ्टवेयर पाया गया है जिनमें से कुछ मोबाइल फोन भारतीयों के भी हैं। यह आशंका भी अब सिर उठाने लगी है कि इस तकनीकी कमेटी की रिपोर्ट के बाद अब पूरे मामले की निष्पक्ष जांच के आसार कम हो चले हैं क्योंकि न्यायमूर्ति रमन्ना की अध्यक्षता वाली कमेटी ने कुछ मोबाइल फोन में गड़बड़ी की बात तो मानी है लेकिन पैगासस के होने या न होने की पुख्ता पुष्टि नहीं की है। हालिया समय में एक नहीं अनेकों ऐसे फैसले देश की सबसे बड़ी न्याय पीठ ने दिए हैं जिनसे इस ममाले में भी पर्दादारी की आशंका बलवती हो चली है।
इसे ही मैं देश के संदर्भ में ‘अंधी गली’ की संज्ञा देता हूं। हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने की बात पर इठलाते हैं लेकिन क्या वाकई हमारी इस इठलाने का कोई औचित्य है? विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका संग अपनी तुलना कर देख लीजिए। सब कुछ स्वतः ही स्पष्ट हो उठेगा। अमेरिका में इन दिनों एक घटनाक्रम की उच्च स्तरीय जांच की जा रही है। यह जांच वहां के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति काल में 6 जनवरी, 2021 के दिन उग्र भीड़ द्वारा अमेरिकी संसद पर धावा बोल राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम सामने आने से रोकने के प्रयास को लेकर की जा रही है स्मरण रहे टं्रप ने 3 नवंबर, 2020 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में हार को स्वीकार करने से इनकार करते हुए चुनाव प्रक्रिया में भारी गड़बड़ी का आरोप लगा दिया था जिसके बाद 6 जनवरी, 2021 के दिन विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र में तमाम लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए ट्रंप के समर्थकों ने संसद पर धावा बोल दिया था। वर्तमान बाइडन सरकार ने इस पूरे मामले की उच्च स्तरीय जांच के आदेश दिए थे। दोनों देशों की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का फर्क समझिए। हमारे यहां इस प्रकार के मामलां की जांच के लिए आयोग बनते हैं जो बरसों तक अपनी जांच करते रहते हैं और जब अपनी रिपोर्ट देते हैं तो उसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जिससे सच का पर्दाफाश हो सके। दूसरी तरफ अमेरिका में इस प्रकार की जांचें तर्कसंगत निष्कर्ष तक पहुंचती हैं। 6 जनवरी की घटना की जांच से इसकी पुष्टि होती है। न केवल इस पूरे प्रकरण से जुड़े या इसकी बाबत किसी भी प्रकार की जानकारी रखने वाले अमेरिकी नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों ने जांच टीम के समक्ष सारे तथ्य रखे बल्कि टं्रप प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों पर रहे लोगों ने भी इस पूरे प्रकरण में पूर्व राष्ट्रपति की भूमिका से लेकर सारा सच, सारी जानकारियां इस जांच टीम को सौंप दी है जिनकी बिना पर यह स्पष्ट हो चला है कि टं्रप पर कड़ी कार्यवाही होने जा रही है। पूरी प्रक्रिया इतनी पारदर्शी रखी गई कि उसका लाइव प्रसारण टीवी के जरिए किया गया है। ट्रंप सरकार में शामिल एक व्यक्ति ने जब इस जांच टीम के समक्ष गवाही देने से इनकार कर दिया तो टीम ने सर्वसम्मति से यह फैसला लिया कि इस व्यक्ति को सम्मन भेज कर गवाही देने के लिए मजबूर किया जाए। फैसला लेने वाली टीम में ट्रंप सरकार में उपराष्ट्रपति रहे डिक चेनी की बेटी भी शामिल थी। इस व्यक्ति ने जब किसी भी सूरत में गवाही देने से मना कर दिया तो दो साल की सजा सुना दी गई। हमारे यहां ऐसा होते हमने कभी नहीं देखा है। हमने कभी नहीं देखा कि संसदीय समितियां पार्टी लाइन से बाहर जाकर कभी कोई फैसला लेती हों। यहां सब कुछ राजनीति की भेंट चढ़ जाता है। पैगासस मामले की जांच कर रही कमेटी जिसके अध्यक्ष स्वयं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे हों जब यह कहती है कि उसे सरकार द्वारा अपेक्षित सहयोग नहीं मिला, पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर बड़ा प्रश्न खड़ा हो जाता है। पैगासस प्रकरण से पहले भी कई ऐसे मामलों का हर्ष हम देख चुके हैं जिनमें गंभीर आरोपों के बावजूद कभी सच सामने नहीं आया। 1984 के सिख विरोधी दंगे हों या फिर 2002 के गुजरात के दंगे, दागियों का इस देश में कुछ बिगड़ा नहीं। हालिया दिनों में राजनीतिक पार्टियों को चंदे के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चुनावी ब्रांड हों या फिर वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किया गया पीएम-केयर फंड का मामला हो, सब कुछ अपारदर्शी है। इस अपारदर्शिता के चलते लोकतंत्र की बुनियाद दरकती जा रही है। हैरत की बात यह कि ऐसा होते स्पष्ट नजर आ रहा है। कोई शक-सुबहा की गुंजाइश इसमें है नहीं, लेकिन फिर भी कहीं किसी प्रकार के प्रतिरोध का स्वर नहीं उभर रहा है। देश की बहुसंख्यक आबादी इस विश्वास के साथ अपनी वर्तमान दुश्वारियों को सह रही है कि देश का भविष्य सुरक्षित हाथों में है। ऐसे हाथों में जो अपने हर वायदे पर खरा उतरेगा और उसकी हर दुश्वारी को दूर कर देगा। क्या वाकई ऐसा है?
क्रमशः