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मेरी बात
 

हमारी न्यायपालिका ने हर संक्रमणकाल के दौरान कई ऐसे निर्णय दिए जिनसे संविधान और लोकतंत्र की गरिमा न केवल संरक्षित हुई बल्कि ऐसे निर्णयों से हमारा लोकतंत्र विषमकाल में भी मजबूत हुआ। आपातकाल के काले समय में न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना का दिया एक निर्णय आज भी हमें उनकी याद दिलाता है और हमारे इस विश्वास को पुख्ता करता है कि अंततः जीत सत्य की ही होती है, भले ही यह जीत देरी से मिले। कमजोर स्मरण शक्ति वाले देश को न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना और उनके उस ऐतिहासिक फैसले की याद दिलाना आवश्यक है जिसकी गूंज पूरे विश्व में सुनाई दी थी। अमेरिका के ख्याति प्राप्त समाचार पत्र ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अप्रैल 30, 1976 के दिन लिखा था। ‘If India ever finds it way back to the freedom and democracy that were proud hall marks of its first eighteen years as an independent nation, someone will surely errect a monument to Justice H.R. Khanna of the Supreme Court. It was Justice Khanna who spoke out fearlessly and eloquently for freedom this week in dissenting from the court’s decision upholding the rignt of prime Minister Indira Gandhi’s Government to imprison political opponents at will and without Court hearings… the  submission of an independent judiciary to absolutist government is virtually the last step in the destruction of a democratic society; and the Indian Supreme Court’s decision appears close to utter surrender'(यदि भारत कभी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की राह पर वापस लौटता है जो एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उसके अट्ठारह वर्षों की सबसे बड़ी पूंजी है, तो कोई न कोई अवश्य न्यायमूर्ति खन्ना के लिए एक स्मारक खड़ा करेगा। वह न्यायमूर्ति खन्ना ही थे जो इस सप्ताह स्वतंत्रता के लिए निर्भिकता और तर्कपूर्ण तरीके से बोले और अपने उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से अपनी असहमति दर्ज कराई जिसमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के प्रति अपने राजनीतिक विरोधियों को मनमाने तरीकों से गिरफ्तार करने और अदालती सुनवाई से परे रखने को सही ठहराया गया है। निरंकुश सरकार को एक स्वतंत्र न्यायपालिका की अधीनता वस्तुतः एक लोकतांत्रिक समाज के विनाश का अंतिम चरण होती है। भारतीय
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सत्ता के समक्ष उसके पूर्ण समर्पण को दर्शाता है)।


आपातकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहुंचे एक केस जिसे ‘केश्वानंद भारती बनाम केरल सरकार’ कहा जाता है, में न्यायमूर्ति खन्ना का निर्णय खासा महत्व का है। 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने एक 13 सदस्यीय पीठ का गठन किया था जिसके समक्ष यह तय करना था कि क्या संसद के पास संविधान के मूल चरित्र में परिवर्तन करने का अधिकार है या नहीं? इस पीठ के 6 न्यायधीशों ने संसद के अधिकार को असिमित करार दिया था। 7 न्यायधीशों जिनमें न्यायमूर्ति खन्ना भी शामिल थे, ने संसद के पास संविधान में संशोधन का अधिकार होने की बात स्वीकारी थी लेकिन यह स्पष्ट व्याख्या दी थी कि संसद संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकती है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था जिसने संसद के अधिकारों को स्पष्ट तौर पर चिÐत करने का काम किया था। इन्हीं जस्टिस खन्ना ने आपातकाल के काले दौर में एक अन्य मामले ‘एडिशनल डिस्ट्रिक जज, जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला’ में अपने साथी न्यायधीशों की राय से एकदम अलग फैसला सुनाया था। कोर्ट के समक्ष मुद्दा इमरजेंसी के दौरान तत्कालीन इंदिरा सरकार द्वारा अपने विरोधियों को बगैर सही प्रक्रिया अपनाए गिरफ्तार कर जेलों में बंद करने से संबंधित था। इसे पांच न्यायधीशों की पीठ ने सुना था। अप्रैल, 1976 में इस पीठ के चार न्यायधीशों ने सरकार के पक्ष में फैसला सुनाते हुए आम नागरिक के संविधान प्रदत्त अधिकारों को आपातकाल में निलंबित करने की व्यवस्था दे डाली थी। केवल न्यायमूर्ति खन्ना अकेले ऐसे निडर और निष्पक्ष जज थे जिन्होंने अपने चार साथियों की बात से पूरी तरह असहमति जताते हुए अपने फैसले में कहा था कि ‘भारत का संविधान और देश के कानून आम नागरिक से जीवन जीने और उसकी स्वतंत्रता का अधिकार किसी तानाशाह (absolute power of the executive) सरकार द्वारा छीन लिए जाने की इजाजत नहीं देते।’ न्यायमूर्ति खन्ना के इस साहसपूर्ण निर्णय को लेकर ही ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने उस पर उपरोक्त टिप्पणी की थी। आज जस्टिस खन्ना का जिक्र इसलिए क्योंकि एक बार फिर से हमारे यानी आम नागरिक के संविधान प्रदत्त अधिकारों पर संकट के बादल स्पष्ट रूप से मंडराते नजर आने लगे हैं और इन अधिकारों की रक्षा करने के लिए न्यायमूर्ति खन्ना सरीखे न्यायधीशों की कमी खटकने लगी है। मुझे ऐसा इसलिए लग रहा है, और मुझ सरीखे बहुतों को भी ऐसा ही कुछ इसलिए होता नजर आ रहा है क्योंकि वर्तमान समय में लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती, सबसे बड़ी शक्ति ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को दबाने का चौतरफा प्रयास होता हम देख रहे हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कर्नलगंज में पुलिस ने पांच व्यक्तियों को इस ‘जुर्म’ में गिरफ्तार कर लिया कि उन्होंने शहर में ऐसे पोस्टर लगाए हैं जिनसे राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा पैदा हो सकता है और जिनके कारण सामाजिक सौहार्द का वातावरण बिगड़ सकता है। इन पांचों व्यक्तियों पर धारा 153 बी एवं धारा 505(2) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। आप जानना चाहेंगे इन पोस्टरों में भला ऐसा क्या था जिनसे सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकीकरण प्रभावित हो सकता है? इस पोस्टरों में प्रधानमंत्री आम जनता को 1105 रुपए में गैस का सिलेंडर बेचते हुए दिखाए गए हैं और इन पोस्टरों में एक हैशटैग रुबाई-बाई मोदी लिखा गया है। जिन धाराओं के अंतर्गत इन पांचों पर एफआईआर दर्ज की गई है वे भला कैसे सामान्य पोस्टरों, जो बढ़ती महंगाई से पीड़ित और आक्रोशित जनता की आवाज सत्ता तक पहुंचाने का काम करते हों, पर लागू हो सकती है? लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने ऐसा कर दिखाया। एक अन्य मामले में उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले की पुलिस ने एक 18 बरस के नवयुवक आशीष यादव को मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का एक कार्टून बना सोशल मीडिया में पोस्ट करने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया। इस ‘भक्तिकाल’ में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को गरियाने और गलियाने का चलन अपने चरम पर है। ऐसे में विश्वख्याति प्राप्त कार्टूनिस्ट शंकर का वह कार्टून याद आता है जिसमें उन्होंने जुलाई 1953, में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को पूर्ण नग्न संयुक्त राष्ट्र संघ के दरवाजे पर खड़ा दिखाया था। शंकर पर केस दर्ज करना तो दूर नेहरू ने तब कहा था ‘मुझे बक्शना नहीं शंकर ’ (Don’t spare me shankar) । क्या इस पिचहत्तर बरसों में हमारे राजनेताओं का ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ समाप्त हो चला है? या फिर वे इतने असहिष्णु हो चुके हैं कि जिस आमजन के वोट के बल पर वे सत्ता के शिखर पर पहुंचते हैं, उसी जनता की पीड़ा और भावना को उनका अहंकार पहचानने से इंकार कर देता है? सबसे चिंताजनक ऐसे मामलों में निचली अदालतों का रवैया है जो इस प्रकार के फर्जी आरोपों में गिरफ्तार लोगों को जमानत देने से स्पष्ट बचती इन दिनों नजर आ रही है। जो ताकतवर हैं, रसूखदार हैं उनके लिए न्यायालयों का रवैया नरम रहना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना ने आजाद भारत के सबसे यंत्रणापूर्ण, सबसे स्याह दौर में सच के पक्ष में फैसला देने का साहस किया था। उन्हें इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। उनके फैसले से नाराज तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें मुख्य न्यायाधीश नहीं बनने दिया था। आज लेकिन कई बार, कई मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्णय यह आश्वस्त करने में असफल नजर आते हैं कि न्याय सबके लिए एक समान है। रिपब्लिक टीवी’ जो वर्तमान सत्ता का भोंपू समान है, के मालिक अर्नव गोस्वामी का मामला हो या फिर एक और उनके ही सरीखे पत्रकार आशिष देवगन का, सुप्रीम कोर्ट से तत्काल राहत इन दोनों को 2020 में मिल गई थी। इन दोनों के साथ एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि दोनों के मामलें में केंद्र सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए थे और उन्होंने इन दोनों को राहत दिए जाने की गुहार लगाई थी। दूसरी तरह सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदार, डॉ ़ कफील खान से लेकर ‘आर्ल्ट न्यूज’ के संस्थापक मोहम्मद जुबैर जैसे कई मामलों में न्यायालय का रूख अलग रहा है। पिछले दिनों जकिया जाफरी की याचिका पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तो एक नई और अनोखी पहल कर डाली है। जिस अंदाज में और जिस तरीके से इस निर्णय के बाद सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ एवं दो वरिष्ठ रिटार्यड पुलिस अधिकारियों पर केंद्र सरकार की एजेंसियों ने मुकदमा दर्ज कर उन्हें हिरासत में लिया है उससे आने वाले समय के ज्यादा भयावह और क्रूर होने के संकेत मिल रहे हैं। क्या इन अंधी गलियों से गुजर हमारा लोकतंत्र ज्यादा मजबूत और ज्यादा लोकतांत्रिक हो निखरेगा? आज भले ही हालात ऐसा इशारा न कर रहे हों, हमें उम्मीद बनाए और जिलाए रखनी होगी। आपातकाल के दौर में भी ऐसी ही आशंकाओं से, ऐसी ही अंधी गलियों से देश निकल कर निखरा था, आगे भी ऐसा ही होगा, यह आशा कम से कम चैतन्य रहने और हर गलत का विरोध करने की ताकत तो देती ही है।

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