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देश की आजादी के पिचहत्तर बरस पूरे हो गए। ‘हर घर तिरंगा’ अभियान चला केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने इस पिचहत्तरवीं वर्षगांठ को यादगार बनाने का हर संभव प्रयास किया, जो सराहनीय है। निश्चित ही इन पिचहत्तर बरसों में हम एक मजबूत राष्ट्र और स्थिर लोकतंत्र बन उभरे हैं। निश्चित ही हमारे साथ ही ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हो अलग राष्ट्र बने पाकिस्तान की तुलना में हमने उल्लेखनीय प्रगति हर मोर्चे पर अपने नाम दर्ज की है। पाकिस्तान हर दृष्टि से एक ‘असफल राष्ट्र’ भर बन रह गया है तो हमारी गिनती उन राष्ट्रों में की जाने लगी है जो विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान है कि 2027 तक हम विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्र बन जाएंगे। इन बीते पिचहत्तर सालों में हमने हर क्षेत्र में फिर चाहे वह किसानी हो, अन्न में आत्मनिर्भरता हो, विज्ञान हो, मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी हो, रक्षा उत्पाद हो, हरेक क्षेत्र में उल्लेखनीय तरक्की की है। सबसे महत्वपूर्ण और काबिल-ए-गौर – काबिल-ए-तारीफ है हमारा एक मजबूत लोकतंत्र बन उभरना। लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद एक कटु सत्य यह भी है कि आजादी के बाद कतार में खड़े अंतिम आदमी तक के आंसू पोछ दिए जाने का वायदा पूरा नहीं हो पाया है, एक सच यह भी है कि लोकतंत्र की बुनियाद इस पिचहत्तर बरस की यात्रा के दौरान कई बार हिलती हुई-सी प्रतीत हुई है। सच यह भी है कि तमाम क्षेत्रों में तमाम उपलब्धियों के बावजूद आज भी हमारे मुल्क का आम नागरिक दो वक्त की रोटी जुटा पाने जैसी बुनियादी जरूरत के लिए तरस रहा है। आजादी के सुबह या आधी रात को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए जो कहा था उसे जरा याद कीजिए और परखने का प्रयास कीजिए कि हम, हमारा देश कहां खड़े हैं, किन हालातों में खड़े हैं। नेहरू ने कहा था ‘हमने नियति से मिलने का एक वचन दिया था और समय आ गया है हम अपने वचन को निभाएं। पूरी तरह न सही, लेकिन बहुत हद तक। आज रात बारह बजे जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता की नई सुबह के साथ उठेगा। ़ ़ ़हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हर एक आंख से आंसू मिट जाएं। शायद यह हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों की आंखों में आंसू है और वे पीड़ित हैं तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा। भविष्य हमें बुला रहा है। हमें किधर जाना चाहिए और हमारे क्या प्रयास होने चाहिए जिससे हम आम आदमी, किसानों और कामगारों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें। हम एक समृद्ध, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील देश का निर्माण कर सकें। ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना कर सकें जो हरेक आदमी-औरत के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सकें।’ स्पष्ट है कि खाली राजकोष और विभाजन की विभिषिका लिए मिली आजादी से व्यथित और आशंकित नेहरू ने आजादी की सुबह ही इस सच को समझ लिया था, स्वीकार किया था कि ‘हर एक आंख से आंसू मिटा पाना संभव नहीं होगा।’ नेहरू के इस कथन और साठ के दशक में संसद में दिए राममनोहर लोहिया के वक्तव्यों को आज के हालातों के बरअस्क समझने का प्रयास करें तो स्पष्ट हो उठता है कि पिचहत्तर बरस की इस यात्रा के कुछ पड़ाव भले ही जश्न मनाने योग्य हों, समग्र रूप से हमारे हाथ खाली हैं, भविष्य सुनहरा कतई नहीं है और आगे अंधी गली हमारी राह तक रही है।

डॉ ़ लोहिया ने कहा था ‘हिंदुस्तान की गाड़ी बेतहाशा बढ़ती जा रही है, किसी गड्ढे की तरफ या किसी चट्टान से चकनाचूर होने। इस गाड़ी को चलाने की जिन पर जिम्मेवारी है उन्होंने इसे चलाना छोड़ दिया है गाड़ी अपने आप बढ़ती जा रही है। मैं भी इस गाड़ी में बैठा हूं। यह बेतहाशा बढ़ती जा रही है। ़ ़ ़मेरे दिल की, मेरी आत्मा की पुकार को समझें कि मैं चिल्लाना चाहता हूं कि इस गाड़ी को रोको, यह चकनाचूर होने जा रही है’ लोकसभा में अपने एक अन्य वक्तव्य में उन्होंने कहा था ‘समूचा हिंदुस्तान कीचड़ का तालाब है जिसमें कहीं-कहीं कमल उग आए हैं। कुछ जगह पर ऐय्याशी के आधुनिक तरीकों के सचिवालय, हवाई अड्डे, होटल, सिनेमा घर और महल बनाए गए हैं और उनका इस्तेमाल उसी तरह के बने-ठने लोग-लुगाई करते हैं। लेकिन कुल आबादी के एक हजारतें हिस्से से भी इन सबका कोई सरोकार नहीं है। बाकि तो गरीब, उदास दुःखी, नंगे और भूखे हैं। मैं इन्हीं गरीब, उदास, दुःखी, नंगे और भूखों के हिंदुस्तान की सोच इस पिचहत्तर बरस की यात्रा में जश्न मनाने-सा कुछ खास नहीं तलाश पाता हूं। आधी रात आई आजादी का उद्देश्य अंतिम आंख से आंसू पोछना यदि था तो उसमें हम पूरी तरह विफल रहे हैं। भले ही हम आने वाले कुछ बरसों में विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में शामिल हो जाएं, इस आर्थिकी का लाभ चंद हाथों तक सिमटा रहना साबित करता है कि हमारी इस पिचहत्तर बरस की यात्रा में झोल ही झोल है। 80 प्रतिशत लाचार हैं, 15 प्रतिशत सुनहरे भविष्य के सपने देखने की कतार में हैं और 5 प्रतिशत के पास इतनी दौलत, इतना ऐश्वर्य है कि वह हजारों-करोड़ के घरों में रहते हैं, निजी वायुयान में चलते हैं, करोड़ों अपनी ऐय्याशियों में फूक डालते हैं। क्या इसी आजादी के लिए हमारे पुरखे अंग्रेजों से लड़े थे?

कोरोना काल के समय हमने अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था का नंगा नांच देखा। ऑक्सीजन जैसी बुनियादी जरूरत तक के लिए हाहाकार पूरे देश में भय गया था। संसद में भले ही केंद्र सरकार पूरी निर्ममता से यह कह दे कि इस काल में ऑक्सीजन की कमी चलते एक भी मौत नहीं हुई, जिन्होंने अपनों को खोया, वे सच जानते हैं। 1975 में अपनी सत्ता बचाने की नियत से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर लोकतंत्र की बुनियाद पर जो चोट पहुंचाई थी, वर्तमान में बगैर घोषणा का आपातकाल भी समझने-बूझने वाले समझ-बूझ रहे हैं।

आजादी के वक्त जिस ‘हरचरणा’ के पास पहनने के लिए फटा सुथन्ना मात्र था, वह भी सुनहरे भविष्य की उम्मीद लिए राष्ट्रगीत मन से गाता था। पिचहत्तर साल बाद की त्रासदी को समझिए आज उसी ‘हरचरणा’ के पास फटा सुथन्ना तक बाकी नहीं बचा है और हम गौरवान्वित महसूस करते हैं जब कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था यह ऐलान करती है कि कोई अडानी या अंबानी अब विश्व के सबसे दौलतमंद इंसानों की सूची में शामिल हो गया है। इससे बड़ी मूर्खता, इससे बड़ा दुर्भाग्य भला किसी राष्ट्र के लिए और क्या हो सकता है कि उसकी भूखी-नंगी जनता अपने शोषकों के बढ़ते ऐश्वर्य से खुद को जोड़ झूठी तसल्ली पा रही है कि देश और लोकतंत्र प्रगति पर हैं। यह कैसी प्रगति है कि 1987 में हमारा और चीन का सकल घरेलू उत्पाद लगभग बराबर था। चीन उस समय अपनी सारी ऊर्जा औद्योगिक क्रांति, इंफ्रास्ट्रक्चर की मजबूती और अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने में लगा रहा था और हम गली-कूचों में ‘कसम राम की खाते’ अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का संकल्प लेते डोल रहे थे। नतीजा देखिए आज चीन की जीडीपी हमसे पांच गुना ज्यादा हो चली है। जब हम मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में उलझे थे तब चीन की अर्थव्यवस्था 305 ़53 बिलियन अमेरिकी डॉलर, हमारी 183 ़43 बिलियन अमेरिकी डॉलर और अमेरिका की 2 ़81 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी। आज हम 2 ़72 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले देश हैं तो चीन 13 ़41 ट्रिलियन और अमेरिका 20 ़58 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला मुल्क है। फासला देखिए उनके और हमारे बीच का। धर्म के नाम पर हमें बर्बादी के सिवाय कुछ और हासिल हुआ हो तो बताइए? अब इससे आगे बढ़कर जाति के नाम पर हमें बांटने का खेला शुरू हो चुका हैं अभी कुछ ही दिन हुए जब उत्तर प्रदेश के अति विकसित शहर ग्रेटर नोएडा में एक मामूली विवाद चलते सामाजिक तनाव फैल गया। हिंसा हो गई। लड़ने वाले दोनों पक्ष हिंदू थे। एक पक्ष का आरोप है कि दूसरा पक्ष उस पर हमला करने का साहस मात्र इसलिए कर पा रहा है क्योंकि इस समय उसकी जाति का प्रदेश में बोलबाला है। कल्पना कीजिए हिंदू-मुस्लिम के नाम पर पहले से ही महाभारत छिड़ा हुआ है, अब हिंदू बनाम हिंदू जाति को आधार बना शुरू होने की नौबत आ रही है। अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन ‘एसओएस चिल्ड्रंस विलेजेज’ की एक रिपोर्ट के अनुसार 68 ़8 प्रतिशत भारतीय यानी 140 करोड़ की आबादी में से 96 ़32 करोड़ भारतीय प्रतिदिन 160 रुपया कमाते हैं। इसमें से लगभग 30 प्रतिशत सौ रुपया प्रतिदिन कमाते हैं। यानी अति गरीब की श्रेणी में लगभग 29 करोड़ लोग हैं। बाल मृत्यु दर में हमारा स्थान अव्वल है। लगभग 14 लाख बच्चे हर बरस कुपोषण और बीमारी के चलते पांच बरस की उम्र से पहले ही मर जाते हैं। बाल श्रम कानूनी तौर पर अवैध है लेकिन करीब सवा करोड़ बच्चे बाल श्रम करने के लिए मजबूर हैं। साढ़े 6 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। न्याय व्यवस्था कितनी लचर है यह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रमन्ना के इस वर्ष जुलाई में दिए कथन से स्पष्ट हो जाती है। जस्टिस रमन्ना के अनुसार करीबन 4 ़5 करोड़ केस देश की विभिन्न अदालतों में लंबित हैं जिनमें से लगभग एक करोड़ पिछले तीस सालों से अदालतों में चल रहे हैं। ऐसे भयावह आंकड़ों की कमी नहीं। चाहे जिस क्षेत्र को उठा लीजिए, चारों तरफ यही नजारा है। दुष्यंत ने सही लिखा, बरसों पहले लिखा जो आज, पिचहत्तर बरस के भारत का भी सच है कि-

तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं
कमाल ये है कि तुम्हें फिर भी यकीन नहीं
मैं बे-पनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं
बहुत मशहूर हैं आएं जरूर आप यहां
ये मुल्क देखने लायक तो है, हसीन नहीं

स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगांठ पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
 
 
 
 
 
 

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