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Editorial

फिर याद आए रामलला

तीन राज्यों में मिली हार के पश्चात भारतीय जनता पार्टी में गहन चिंतन-मंथन का दौर शुरू हो चुका है। राजस्थान छोड़, अन्य दो राज्य भाजपा के घोषित हिन्दुत्व एजेंडे की कर्मभूमि रहे हैं। पिछले पंद्रह सालों से इन दोनों राज्यों में भाजपा लगातार सत्ता में रही। राजस्थान में अवश्य हर पांच बरस में सत्ता परिवर्तन का इतिहास रहा है। वसुंधरा राजे की सरकार से आम राजस्थानी का आक्रोश अर्सा पहले से ही भाजपा की करारी हार के संकेत दे रहा था। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लेकिन हालात इतने खराब नहीं नजर आ रहे थे। हालांकि इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने हार की पूरी जिम्मेदारी खुद पर ओढ़ भाजपा आलाकमान, विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी को क्लीन चिट देने का प्रयास किया है, लेकिन हिंदी बेल्ट के तीन महत्वपूर्ण राज्यों में मिली पराजय ने भाजपा के भीतर बड़ी खलबली मचा दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि का मिथक इस हार ने काफी हद तक तोड़ने का काम किया है। ऐसे में अब भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक बार फिर रामलला की शरण में जाने को आतुर नजर आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान और पकड़ स्थापित करने के पीछे अयोध्या में राम मंदिर निर्माण सबसे बड़ा कारण रहा है। जब-जब पार्टी
राजनीतिक लड़ाई में पिछड़ी है, राम मंदिर के मुद्दे को हवा देकर उसने वापसी की है। दअरसल भाजपा नेतृत्व लंबे अर्से से इस मुद्दे पर दुविधाग्रस्त रहा है। सत्ता में आने के बाद, चाहे उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार बनी हो या फिर केंद्र में, पार्टी ने खुद को प्रगतिशील बनाने की तरफ कदम बढ़ाया। कल्याण सिंह की सरकार रहते अवश्य 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद रामभक्तों के क्रोध का शिकार हो ढहा दी गई, भाजपा के कट्टर हिंदुत्व का चेहरा रहे लालकृष्ण आडवाणी और मुखौटा कहे गए अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से इस कृत्य पर अपना दुख व्यक्त किया था। सत्ता में आने के बाद कल्याण सिंह और उनके बाद राजनाथ सिंह ने उत्तर प्रदेश में भय-भूख और भ्रष्टाचार से लड़ाई को अपनी सरकार का मुख्य एजेंडा बनाया था। इसी प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी ने केंद्र में अपने प्रधानमंत्रित्वकाल के 6 सालों तक रामलला को टाट के मंदिर में ही छोड़, विकास पर अपना फोकस रखा। यहां तक कि नरेंद्र मोदी ने भी संसद के निचले सदन यानी लोकसभा में प्रचंड बहुमत के बाद भी पिछले साढ़े चार सालों में रामलला की सुध ना लेकर ‘सबका साथ-सबका विकास’ पर अपनी सरकार चलाई है। ऐसे में एक बार फिर राम मंदिर निर्माण का मुद्दा यदि जोर पकड़ने लगा है तो इसे भाजपा और संघ के भीतर सत्ता जाने की आशंका के साथ-साथ केंद्र की मोदी सरकार का हर मोर्चे पर नाकाम रहना है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख्यमंत्री इन राज्यों में भाजपा का सत्ता से बेदखली का अपयश अपने ऊपर लेने का भले ही कितना प्रयास कर लें, इस हार के पीछे एक बड़ा कारण नरेंद्र मोदी से जनता का मोहभंग होना भी रहा है। नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार घोषित किए गए थे, तब देश में अन्ना आंदोलन के चलते राजनीतिक जागरूकता और बदलाव की बयार बह रही थी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिली सफलता के पीछे यही एकमात्र कारण था। यदि आप का गठन ना हुआ होता तो निश्चित ही भाजपा को दिल्ली में सरकार बनाने में कोई मुश्किल ना होती। चूंकि जनता बदलाव के लिए छटपटा रही थी इसलिए विकल्प मिलते ही उसने कांग्रेस और भाजपा को नकारते हुए नवगठित आप पर भरोसा जता दिया। इसे दोबारा हुए चुनावों में आप को मिले अभूर्तपूर्व जनादेश से समझा जा सकता है। मोदी 2014 में भाजपा को प्रचंड बहुमत से केंद्र की सत्ता में स्थापित कर चुके थे। उन्होंने स्वयं दिल्ली की विधानसभा के चुनावों की कमान संभाली लेकिन जनता ने उन्हें नकार एक बार फिर से केजरीवाल पर भरोसा जता यह स्पष्ट कर दिया कि यदि विकल्प मजबूत हो तो उसकी पहली पसंद ना तो भाजपा है, ना ही कांग्रेस। बहरहाल 2014 के चुनावों में देश बदलाव के लिए छटपटा रहा था। नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे विकास पुरुष की थी जिन्होंने गुजरात को एक मॉडल के तौर पर देश में स्थापित करने का काम किया था। उनकी इस छवि और अद्भुत मीडिया मैनेजमेंट का ही असर था कि जनता ने दो करोड़ नौकरियों, पंद्रह लाख हर खाते में, कालेधन का सफाया आदि उनके सभी वायदों पर आंख मूंदकर यकीन कर उन्हें सत्ता के शीर्ष पर ला बैठाया। मोदी सरकार का समय लगभग पूरा हो चुका है। आम चुनावों में मात्र चार महीने बाकी हैं। सरकार का कार्यकाल औसत से नीचे रहा है। अधिकांश वायदे हवा-हवाई साबित हुए हैं। तीन राज्यों में मिली पराजय ने जहां विपक्षी दलों को साहस देने का काम किया है तो भाजपा में मोदी-शाह के नेतृत्व और कार्यशैली पर असंतोष बढ़ने लगा है। यही कारण है कि एक बार फिर रामललला की याद संघ और भाजपा को तेजी से सताने लगी है। विपक्षी दल आशंकित हैं कि भाजपा धार्मिक आधार पर मतों के ध्रुवीकरण का प्रयास बजरिए राम मंदिर एक बार फिर से कर सकती है। मेरी समझ से भाजपा के समक्ष इन चुनावों में यही एक मात्र हथियार बाकी रह गया है। हालांकि यह हथियार मारक होगा या फिर बार-बार चलाए जाने के चलते भोथरा साबित होगा, यह कह पाना थोड़ा कठिन है। इतना अवश्य तय मानिए कि इस हथियार को संघ और भाजपा मांझने में, पैना करने पर जुट चुके हैं। पिछले कुछ अर्से से विश्व हिन्दू परिषद, संघ और भाजपा के कुछ प्रमुख नेताओं ने राम मंदिर निर्माण के लिए संसद में कानून बनाने की मांग उठानी शुरू कर दी है। मुझे लगता है आचार संहिता लगने से पहले केंद्र सरकार इस बाबत अध्यादेश लाने जा रही है। संवैधानिक दृष्टि से यह केंद्र सरकार का अधिकार है। सितंबर माह में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने राम जन्म भूमि, बाबरी मस्जिद  मुकदमे की सुनवाई का मार्ग साफ कर दिया था। इस निर्णय से उत्साहित हिन्दू संगठनों को उम्मीद जगी थी कि अब यह मुकदमा फास्ट टैक की तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट में चलेगा लेकिन वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गगोई ने जनवरी 2019 में इस मामले की तारीख लगा ऐसों की अपेक्षा पर पानी फेर दिया है। इसके बाद से ही इन संगठनों ने केंद्र सरकार से अध्यादेश लाने की मांग शुरू कर डाली है। चूंकि यह केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में संभव है इसलिए मैं समझता हूं कि यह अध्यादेश मोदी सरकार अवश्य चुनावों से ठीक पहले ला एक बार फिर से बजरिए रामलला मतों का धुव्रीकरण कर सत्ता में बने रहने का प्रयास कर सकती है। हालांकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, बावजूद इसके केंद्र सरकार यदि चाहे तो राम मंदिर निर्माण पर अध्यादेश लाने के लिए स्वतंत्र है। पूर्व में कई बार ऐसा हो भी चुका है। हालिया समय में जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का निर्णय सुनाया था और अपने निर्णय के खिलाफ दायर याचिकाओं पर वह सुनवाई कर रहा था, केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलट डाला था। ठीक इसी प्रकार कोर्ट के पास भी केंद्र सरकार के किसी भी अध्यादेश अथवा कानून पर सुनवाई करने का संवैधानिक अधिकार है। यह हमारे संविधान की सबसे बड़ी पूंजी है जहां किसी को भी निरंकुश होने से रोके जाने की पुख्ता व्यवस्था है।
बहरहाल मेरी समझ से राम मंदिर मुद्दा एक बार फिर गरमाने वाला है। भाजपा फिर से रामलला की शरण में जाएगी। यह लेकिन कह पाना कठिन है कि इस बार जनता में इसका कितना असर पड़ेगा। पहली बार जब वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई थी तो राम मंदिर मुद्दा उसके एजेंडे से गायब रहा था। 2004 के आम चुनाव में भाजपा के घोषणा पत्र में स्पष्ट तौर पर या तो न्यायपालिका या फिर आम सहमति से इस मुद्दे को सुलझाने की बात कही गई थी। 2009 और उसके बाद 2014 के घोषणा पत्रों में भी भाजपा का यही स्टैंड रहा जो अब बदलता नजर आ रहा है। 9 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित धर्म संसद रैली में भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने इस मुद्दे पर प्राईवेट मेम्बर बिल लाने की बात कह इस आशंका को बल दिया है कि सरकार इस पर अध्यादेश ला सकती है। बेरोजगारी, भूख, भ्रष्टाचार और विकास के नाम पर लगातार दमन एवं छल का शिकार हो रही जनता के लिए राम मंदिर का मुद्दा कितना महत्वपूर्ण रहेगा, वह कितना नरेंद्र मोदी के वायदों को भुला पाएगी यह भविष्य के गर्भ में है। इतना अवश्य राय है कि भाजपा के लिए 2019 की चुनावी डगर अब कठिन हो चली है।

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