[gtranslate]
Editorial

फिर जाति-जाति का होबे खेला

पांच राज्यों में अगले वर्ष की शुरुआत चुनाव लेकर आ रही है। इन राज्यों में उत्तर प्रदेश भी शामिल हैं जहां से भाजपा की कमंडल यात्रा शुरू हुई थी। 1980 में जन्मी भाजपा तब मंडल का जवाब कमंडल में तलाश रही थी। मंडल ने इस मुल्क में बहुतों की राजनीति चमकाई, कमंडल ने भाजपा को फर्श से अर्श तक पहुंचा डाला। 1990 का दशक इन दो के नाम रहा। नई सदी की शुरुआत होते-होते कमंडल मंडल पर भारी पड़ने लगा। इतना भारी कि उसके बोझ तले दब चले गए।

कई मंडलवादियों ने कमंडल वादी होते देर नहीं लगाई। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सीधे-सीधे कमंडल की शरण में चले गए तो उत्तर प्रदेश की पूर्व सीएम मायावती ने वाया मीडिया तलाशा। कभी सवर्ण जातियों को जूते मारने की हिमायती रहीं मायावती 2007 आते-आते बदल गईं। उन्हें ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हुआ और वे ब्राह्मण प्रेमी बन बैठीं। 2007 में उन्हें इसका भारी लाभ मिला। वे उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बहुमत के साथ पूरे पांच बरस के लिए काबिज हो गईं। उनके बाद इस प्रदेश की सत्ता में समाजवाद का नारा बुलंद करने वाले अखिलेश यादव का कब्जा हो गया। अखिलेश मंडल-कमंडल के दंश से ग्रसित समाज में प्रगतिशील चेहरा बन उभरे जरूर लेकिन उनकी राजनीति भी उलझी इन्हीं समीकरणों में रही। 2014 पूरी तरह कमंडल के नाम रहा। पहली बार अपने दम पर भाजपा केंद्र की सत्ता पाने में सफल रही। नरेंद्र मोदी के नाम का डंका घर-घर में गूंजने लगा। मंडल पर कमंडल के हावी होने का दौर 2019 के आम चुनावों तक जारी रहा। इस बीच भारी-भरकम वायदों के साथ सत्ता पाने वाली भाजपा की जीत का रथ विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं को भी फतह करता गया। वायदे लेकिन जुमले बन कर रह गए। एक के बाद एक ऐसे फैसले मोदी सरकार ने इस दौरान लिए जो हर क्षेत्र में चाहे वह अर्थव्यवस्था हो या फिर सामाजिक समरसता, विध्वंशकारी साबित हुए। भ्रष्टाचार से पूर्ण मुक्ति का संकल्प 2016 में कालेधन पर करारी चोट करता तब दिखा जब यकायक ही पीएम साहब ने नोटबंदी का एलान कर डाला। मायाजाल रचा गया कि अकेले इस निर्णय से ही मानो सारा कालाधन समाप्त हो जाएगा। हुआ ठीक उल्टा। काला बैंकों में जमा हो सफेद बन गया और अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। भले ही 2019 के आम चुनावों में मोदी मैजिक एक बार फिर से जनता जनार्दन को भ्रमित करने में सफल रहा, कमंडल का असर लेकिन कमजोर हुआ। उसके स्थान पर राष्ट्रवाद का खेला हुआ। 2021 के मध्य में यह भी अपनी पकड़ खोता नजर आने लगा है और एक बार फिर से मंडल का प्रभाव बढ़ता नजर आ रहा है। नतीजा फिर से जाति-जाति का शोर मचना शुरू हो चला है। यानी वही ढाक के तीन पात। भले ही हम 21वीं सदी में हों,
मानसिकता हमारी सदियों पुरानी बनी हुई है। हम मनुष्य बाद में, बहुत बाद में, अंत में हैं, पहले हम धर्म के नाम पर खड़े हैं, फिर जातियों के नाम पर, उसके बाद उपजातियां हैं, फिर हम भारतीय हैं और अंत में जाकर थोड़े-बहुत मनुष्य। डाॅ ़ राममनोहर लोहिया कहा करते थे ‘मनुष्य को बचाना आज जरूरी हो गया है। आज वह राष्ट्र और जाति से इतनी बुरी तरह बंध चुका है कि जन्म, शादी और मौत में भी वह मनुष्य नहीं, बल्कि अधमरा जीव है।’ त्रासदी देखिए खुद को लोहियावादी बताने वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ करा रही है तो ब्राह्मण को ‘परजीवी कीड़ा’ कहने वाले डाॅ ़ भीमराव अंबेडकर के आदर्शों की स्वघोषित उत्तराधिकारी बहुजन समाज पार्टी भी इसी ‘परजीवी कीड़े’ के सहारे अपना ‘खेला’ खेलने की तैयारी करती नजर आ रही है।  अंबेडकर मेरी दृष्टि में अतिवाद का शिकार थे। उनकी अतिवादिता समाज में समरसता के बजाए कटुता लाने वाली थी। अपनी पुस्तक ‘जाति का उच्छेद’ में वे लिखते हैं ‘हिंदुओं का पुरोहित वर्ग (ब्राह्मण) ऐसा परजीवी कीड़ा है जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शौषण करने के लिए पैदा किया है।’ अंबेडकर हिंदू धर्म के प्रति खासे क्रूर थे। उनकी इस क्रूरता से प्रभावित कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में नया राजनीतिक प्रयोग किया। ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ का नारा देकर उन्होंने अपनी राजनीति को परवान चढ़ाया। आज उनकी राजनीतिक वारिस मायावती अपने खास सिपहसालार सतीश मिश्रा को आगे कर इन्हीं चार जूते खाने योग्य वर्ग को लुभाने में जुटी हैं। उन्हें अब मनुवाद से परहेज नहीं रहा क्योंकि किसी भी कीमत पर सत्ता पाने की लालसा उन्हें और समाजवादियों को समझा पाने में सफल रही है कि इस मुल्क का समाज विकास के बजाए धर्म और जाति के पीछे अंधा-बहरा समाज है। ऐसा समाज जहां चैतरफा स्वार्थ का बोलबाला है। दलदल में धंसा यह ऐसा समाज है जहां सिद्धांतों और नीतियों के खंभे नहीं गढ़ सकते। यदि इस दलदल में धंसना नहीं है तो इसके अनुसार स्वयं को ढ़ालना जरूरी है। यही वह समझ जिसको समझ सभी, चाहे माक्र्सवादी हों, समाजवादी हों, अंबेडकरवादी हों या फिर मनुवादी हों, अपनी राजनीति, अपना खेल खेल रहे हैं। इसलिए पांच राज्यों में कुछ माह बाद होने जा रहे चुनावों में इस बार खेला जाति के नाम पर खेला जाना तय है।

कोरोनाकाल में चैतरफा मचे चीत्कार से हर कोई प्रभावित हुआ है। इस महामारी ने भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था का काला सच सामने ला खड़ा किया। आॅक्सीजन की कमी चलते लाखों को अपनी जान गंवानी पड़ी। हमारी लचर स्वास्थ्य सेवाएं, हमारी सरकारों की नालायकी और रहनुमाओं की रहनुमाई का परीक्षण इस महामारी ने बखूबी कर दूध का दूध और पानी का पानी कर डाला। महामारी अभी समाप्त नहीं हुई है। इसकी तीसरी लहर आने की आशंका दिनोंदिन बलवती होती जा रही है। बहुत कुछ खो चुका देश लेकिन अभी भी जगा नहीं है। जाति और धर्म की अफीम का वह इस कदर आदि हो चुका है कि उसके सोचने-समझने की क्षमता लगभग शून्य हो चली है। इतना सब कुछ देखने-भोगने के बाद भी न तो इसका भक्तिभाव कम होता नजर आ रहा है, न ही जाति और धर्म रूपी अफीम के नशे से यह उलट रहा है। पिछले सात बरसों के दौरान एक भी उदाहरण खोजे नहीं मिलता जिसके आधार पर भविष्य के सुखद होने का भ्रम तो कम से कम पाला जा सके। मिलते हैं चैतरफा फैले जुमले और सोशल मीडिया सरीखे ‘टूल्स’ द्वारा रचित झूठ का महामाया जाल। धर्म को आधार बनाकर समाज को बांटने का काम इन सात सालों के दौरान निचले स्तर तक पहुंच चुका है। अनादिकाल से नाना प्रकार के धर्मों और जातियों में बंटे समाज को 21वीं शताब्दी में और गहरे इस दलदल में धंसाया जा रहा है। हैरतनाक यह कि समाज में इसको लेकर प्रतिकार नहीं स्वीकार का भाव ज्यादा प्रबल है। ऐसे में आने वाले पांच राज्यों के चुनावों में वह लोकतंत्र प्रदत्त अपने सबसे बड़े अधिकार का प्रयोग करते समय एक बार फिर इसी जाति और धर्म को आधार बनाएगा। एक बार फिर उसे छला जाएगा और वह खुशी-खुशी इस छले जाने के लिए तैयार भी है। यही कारण है कि इन चुनावों के लिए शुरू हो रहे रणक्षेत्र में इस बार मुकाबला जातियों को अपने कब्जे में लेने का होने जा रहा है। मायावती और अखिलेश ब्राह्मणों को अपनी तरफ आकर्षित करने में जुटे हैं तो भाजपा का लक्ष्य मायावती का कोर वोट बैंक रही दलित जनता है। सारे राजनीतिक दांव-पेंच, सारी रणनीतियां जातियों में बंटे समाज को कब्जाने के लिए बनाई जा रही हैं। इस जाति- जाति के ‘खेला’ ने असल मुद्दों को कहीं गहरे दफन कर डाला है।

यह मेरी समझ से इस देश के साथ चिपकी हुई सबसे बड़ी त्रासदी है जिसके एक पलड़े पर सदियों से गुलाम रहे समाज की मानसिकता है तो दूसरे पलड़े पर जाति आधारित ऐसी व्यवस्था जो बकौल लोहिया निष्क्रिय, कुचली हुई और निर्जीव कौम की योग्यता को सीमित करती और सड़ाने वाली है। इस सड़ाने वाली, स्वयं सड़ी-गली मानसिकता का खेला लेकिन बदस्तूर जारी रहेगा। कब तक? तब तक जब तक हम मनुष्य न बन पायें। कब बन पायेंगे मनुष्य? शायद हमारे-आपके जीवन में तो नहीं। अभी तो धर्म और जाति के मध्य तीव्र संघर्ष होगा। एक तरफ पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था, बुलेट ट्रेन, आधुनिकतम हवाई अड्डे, स्मार्ट शहरों का सपना होगा तो दूसरी तरफ धर्म और जाति के मध्य खूनी संघर्ष का यथार्थ। भविष्य वक्ता तो मैं नहीं हूं, भविष्य को साफ- साफ लेकिन देख पा रहा हूं तो मात्र इसलिए कि वर्तमान ही भविष्य का प्रस्थान बिंदु होता है। आधार होता है। वर्तमान चूंकि बेहद डरावना है इसलिए भविष्य को देख पाना कठिन नहीं। शायद अभिशप्त हैं हम ऐसे ही समाज में पैदा होने और अपनी उद्देश्यहीन पारी खेल विदा होने के लिए।

You may also like

MERA DDDD DDD DD