मेरी बात
जनकवि गोरख पाण्डे ने ‘वतन का गीत’ कविता में एक आदर्श राष्ट्र की कल्पना करते हुए लिखा था-
हमारे वतन की नई जिंदगी हो/नई जिंदगी एक मुकम्मल खुशी हो/नया हो गुलिस्तां, नई बुलबुलें हों/मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो/न हो कोई राजा, न हो रंक कोई/सभी हों बराबर, सभी आदमी हों/न ही हथकड़ी कोई फसलों पर डाले/हमारे दिलों की न सौदागरी हो/जुबानों पे पाबंदियां हों न कोई/निगाहों में अपनी नई रोशनी हो/न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन/न ही कोई कायदा हिटलरी हो।
76वें स्वतंत्रता दिवस के दिन मुझे ये पक्तियां अनायास याद आ गई। आजादी पर्व के दिन चौतरफा तिरंगा लहरा रहा है। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे आत्मविश्वास के साथ बगैर पलकें झपकाएं भविष्य के सुनहरे सपने दिखा रहे हैं। वह गारंटी दे रहे हैं कि ‘…आने वाले 5 साल में देश विश्व की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होगा।’ वह स्वपनदर्शी हैं इसलिए उनका सपना है कि 2047 में यानी आजादी के सौंवे वर्ष में भारत का तिरंगा विश्व के विकसित देशों के झंडों में से एक होना चाहिए।
भविष्य का भारत कैसा होगा? क्या वैसा जैसा प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से कह रहे हैं? या फिर वैसा जो वर्तमान की परिस्थितियां बयां कर रही हैं? वर्तमान सुखद भविष्य की तरफ तो कतई भी इशारा करता मुझे नजर नहीं आ रहा है। चौतरफा नफरत का बाजार पनप रहा है, पनपाया जा रहा है। जातीय हिंसा अपने चरम पर है। जिन्हें मेरी बात से नाइत्तेफाकी हो वह मणिपुर की घटनाओं का आकलन करें ताकि उनका भ्रम दूर हो सके। धार्मिक हिंसा दिनोंदिन बढ़ रही हैं हरियाणा का नूंह एक उदाहरण मात्र है। पूरे देश में जगह-जगह नूंह उग चुके हैं, उन्हें उगाया जा रहा है, रोकने के प्रयास नगण्य है। जात और धर्म के नाम पर जारी तांडव खुद में इतनी ताकत रखता है कि यदि इसे रोकने का प्रयास ईमानदारी पूर्वक नहीं किया गया तो आजादी के सौंवे साल पहुंचते-पहुंचते बहुत कुछ ऐसा हो जाएगा जिसके आगे आर्थिक प्रगति गौण पड़ जाऐगी और विश्वगुरु बनने का स्वप्न धूल-धूसरित हो जाएगा।
1947 से आज तक की यात्रा के दौरान हमारे पास बहुत सारी ऐसी उपलब्धियां हैं जिनके सहारे स्वर्णिम भविष्य की कल्पना की जा सकती है। सबसे बड़ी उपलब्धि राजनीतिक स्थिरता की है। विदेशी शासकों के आकलन को धता बताते हुए हम बीते 76 वर्षों के दौरान एक राष्ट्र बतौर मजबूत हुए हैं। अंग्रेजों के मध्य आम राय थी कि हम कुछ ही वर्षों में टूट कर बिखर जाएंगे। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। ब्रिटिश नौकरशाह सर जॉन स्टै्रचे ने अपनी किताब ‘इंडिया’ (1892) में भारत की बाबत अपने अनुभवों के आधार पर लिखा था-‘There is first and most essential thing to learn about India-that there is not and never was an India, or even any contry of India, possessing, according to European ideas, any short of unity, physical, political, social or religious, no India nation and especially no people of India, of which we hear as much…However long may be the duration of our dominion, how ever powerful may be centralising attaraction of our Government, or the influence of the common interst which grow up, no such issue can follow. It is conceivable that national sympathies may arise in particular Indian countries; but they should never extend to India generally, that men of Punjab, Bengal, North-East provinces, and Madras, should ever feel that they belong to one great Indian nation, is impossible (भारत के विषय में सीखने वाली सबसे जरूरी बात यह है कि भारत कभी था ही नहीं। यहां तक कि यूरोपीय अवधारणा के अनुसार भारत का कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जिसके पास किसी भी प्रकार की एकता, सीमाओं के रूप में, राजनीतिक रूप में, सामाजिक रूप में अथवा धार्मिक रूप में, जिसके बारे में हम बहुत कुछ सुनते हैं, कभी भी नहीं थी। हमारे शासन की अवधि चाहे कितनी भी अधिक क्यों न रहे, हमारे द्वारा स्थापित केंद्रीयकृत सत्ता का चाहे कितना भी प्रभाव क्यों न रहे, यहां तक कि इससे आम जनता को मिलने वाले लाभ कितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, कोई भी मुद्दा भारत को एक राष्ट्र नहीं बना सकता क्योंकि पंजाब, बंगाल, उत्तर पूर्व इलाका और मद्रास के लोग एक राष्ट्र की भांति सोचे, ऐसा हो पाना असंभव है।)
इस असंभव को हमने लेकिन 1947 के बाद संभव कर दिखाया। यह बतौर राष्ट्र हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है। आजादी पश्चात हमने कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति भी की। विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थान, बड़े-बड़े बांध, हरित क्रांति के जरिए अन्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, हमारा परमाणु ताकत बनना आदि इन 76 वर्षों के दौरान हम हासिल कर पाए और खुली अर्थव्यवस्था के दौर में हम एक बड़ी आर्थिक ताकत बन उभरे हैं। निश्चित ही आज हम ऐसी स्थिति में हैं जहां विश्व की कोई भी ताकत हमें नजरअंदाज नहीं कर सकती है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी नवीनतम् रिपोर्ट इस दृष्टि से बेहद आश्वस्तकारी है कि बीते पंद्रह वर्षों के दौरान (2005-06 से 2021 तक) कुल 41.5 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। 2005-06 में गरीबों की आबादी 55.1 प्रतिशत थी जो अब घटकर16.4 प्रतिशत रह गई है। कुपोषण और बाल मृत्यु दर के आकड़े भी बेहतर हुए हैं। निश्चित ही यह आंकड़े हमें आश्वस्त करते है कि हम सही राह पर हैं। मैं लेकिन इन आंकड़ों को ‘आंकड़ों की बाजीगरी’ मानता हूं यदि इन आंकड़ों को अमीर और गरीब के मध्य की विभाजन रेखा के बरअक्स देखा जाए तो हालात बेहद गंभीर नजर आते हैं। गरीबी रेखा से बाहर निकलने का सीधा अर्थ है कि बहुसंख्यक जनता को अब दो वक्त की रोटी मिलने लगी है। क्या आजादी का अर्थ दो वक्त की रोटी पाना मात्र है? अमीर और गरीब के मध्य का अंतर समझना कठिन नहीं। 76 वर्षों में हमने भारत को धर्म और जाति के आधार पर दो टुकड़ों में बांटा ही बांटा, आर्थिक आधार पर भी हमने दो वर्ग पैदा कर डाले हैं जिनके मध्य की असमानता उन्हें एक-दूसरे का शत्रु बना रही है- वर्ग शत्रु। समाजवादी विचारक और राजनीतिज्ञ डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजादी के कुछ साल बाद ही भविष्य के भारत की तस्वीर संसद में उकेर दी थी। जो उन्होंने साठ के दशक में कहा था, वह आज सच बन हमारे सामने खड़ा है। संकट यह कि हमारे हुक्मरान और हम खुद उस सच से मुंह छिपा ‘विश्व गुरु’ बनने का ख्याली पुलाव बना रहे हैं। डॉ ़ लोहिया की दो बातें आज का सच हैं। पहली- ‘समूचा हिंदुस्तान कीचड़ का तालाब है जिसमें कहीं-कहीं कमल उग आए हैं। कुछ जगहों पर अय्याशी के आधुनिकतम तरीकों के सचिवालय, हवाई अड्डे, होटल, सिनेमाघर और महल बनाए गए हैं और उनका इस्तेमाल उसी तरह के बने-ठने लोग लुगाई करते हैं। लेकिन कुल आबादी के एक हजारवें हिस्से से भी इन सबका कोई सरोकार नहीं है। बाकी तो गरीब, उदास नंगे और भूखे हैं।’ उनका दूसरा कथन था- ‘संसद को स्वांग, पाखंड और रस्म अदायगी का अड्डा बना दिया गया है। सरकार और सदस्य जानवरों की भांति जुगाली करते रहते हैंमेरी बात …..तो आजादी की खैर नहीं जनकवि गोरख पाण्डे ने ‘वतन का गीत’ कविता में एक आदर्श राष्ट्र की कल्पना करते हुए लिखा था-
हमारे वतन की नई जिंदगी हो/नई जिंदगी एक मुकम्मल खुशी हो/नया हो गुलिस्तां, नई बुलबुलें हों/मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो/न हो कोई राजा, न हो रंक कोई/सभी हों बराबर, सभी आदमी हों/न ही हथकड़ी कोई फसलों पर डाले/हमारे दिलों की न सौदागरी हो/जुबानों पे पाबंदियां हों न कोई/निगाहों में अपनी नई रोशनी हो/न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन/न ही कोई कायदा हिटलरी हो।
76वें स्वतंत्रता दिवस के दिन मुझे ये पक्तियां अनायास याद आ गई। आजादी पर्व के दिन चौतरफा तिरंगा लहरा रहा है। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे आत्मविश्वास के साथ बगैर पलकें झपकाएं भविष्य के सुनहरे सपने दिखा रहे हैं। वह गारंटी दे रहे हैं कि ‘…आने वाले 5 साल में देश विश्व की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होगा।’ वह स्वपनदर्शी हैं इसलिए उनका सपना है कि 2047 में यानी आजादी के सौंवे वर्ष में भारत का तिरंगा विश्व के विकसित देशों के झंडों में से एक होना चाहिए।
भविष्य का भारत कैसा होगा? क्या वैसा जैसा प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से कह रहे हैं? या फिर वैसा जो वर्तमान की परिस्थितियां बयां कर रही हैं? वर्तमान सुखद भविष्य की तरफ तो कतई भी इशारा करता मुझे नजर नहीं आ रहा है। चौतरफा नफरत का बाजार पनप रहा है, पनपाया जा रहा है। जातीय हिंसा अपने चरम पर है। जिन्हें मेरी बात से नाइत्तेफाकी हो वह मणिपुर की घटनाओं का आकलन करें ताकि उनका भ्रम दूर हो सके। धार्मिक हिंसा दिनोंदिन बढ़ रही हैं हरियाणा का नूंह एक उदाहरण मात्र है। पूरे देश में जगह-जगह नूंह उग चुके हैं, उन्हें उगाया जा रहा है, रोकने के प्रयास नगण्य है। जात और धर्म के नाम पर जारी तांडव खुद में इतनी ताकत रखता है कि यदि इसे रोकने का प्रयास ईमानदारी पूर्वक नहीं किया गया तो आजादी के सौंवे साल पहुंचते-पहुंचते बहुत कुछ ऐसा हो जाएगा जिसके आगे आर्थिक प्रगति गौण पड़ जाऐगी और विश्वगुरु बनने का स्वप्न धूल-धूसरित हो जाएगा।
1947 से आज तक की यात्रा के दौरान हमारे पास बहुत सारी ऐसी उपलब्धियां हैं जिनके सहारे स्वर्णिम भविष्य की कल्पना की जा सकती है। सबसे बड़ी उपलब्धि राजनीतिक स्थिरता की है। विदेशी शासकों के आकलन को धता बताते हुए हम बीते 76 वर्षों के दौरान एक राष्ट्र बतौर मजबूत हुए हैं। अंग्रेजों के मध्य आम राय थी कि हम कुछ ही वर्षों में टूट कर बिखर जाएंगे। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। ब्रिटिश नौकरशाह सर जॉन स्टै्रचे ने अपनी किताब ‘इंडिया’ (1892) में भारत की बाबत अपने अनुभवों के आधार पर लिखा था-‘There is first and most essential thing to learn about India-that there is not and never was an India, or even any contry of India, possessing, according to European ideas, any short of unity, physical, political, social or religious, no India nation and especially no people of India, of which we hear as much…However long may be the duration of our dominion, how ever powerful may be centralising attaraction of our Government, or the influence of the common interst which grow up, no such issue can follow. It is conceivable that national sympathies may arise in particular Indian countries; but they should never extend to India generally, that men of Punjab, Bengal, North-East provinces, and Madras, should ever feel that they belong to one great Indian nation, is impossible (भारत के विषय में सीखने वाली सबसे जरूरी बात यह है कि भारत कभी था ही नहीं। यहां तक कि यूरोपीय अवधारणा के अनुसार भारत का कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जिसके पास किसी भी प्रकार की एकता, सीमाओं के रूप में, राजनीतिक रूप में, सामाजिक रूप में अथवा धार्मिक रूप में, जिसके बारे में हम बहुत कुछ सुनते हैं, कभी भी नहीं थी। हमारे शासन की अवधि चाहे कितनी भी अधिक क्यों न रहे, हमारे द्वारा स्थापित केंद्रीयकृत सत्ता का चाहे कितना भी प्रभाव क्यों न रहे, यहां तक कि इससे आम जनता को मिलने वाले लाभ कितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, कोई भी मुद्दा भारत को एक राष्ट्र नहीं बना सकता क्योंकि पंजाब, बंगाल, उत्तर पूर्व इलाका और मद्रास के लोग एक राष्ट्र की भांति सोचे, ऐसा हो पाना असंभव है।)
इस असंभव को हमने लेकिन 1947 के बाद संभव कर दिखाया। यह बतौर राष्ट्र हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है। आजादी पश्चात हमने कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति भी की। विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थान, बड़े-बड़े बांध, हरित क्रांति के जरिए अन्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, हमारा परमाणु ताकत बनना आदि इन 76 वर्षों के दौरान हम हासिल कर पाए और खुली अर्थव्यवस्था के दौर में हम एक बड़ी आर्थिक ताकत बन उभरे हैं। निश्चित ही आज हम ऐसी स्थिति में हैं जहां विश्व की कोई भी ताकत हमें नजरअंदाज नहीं कर सकती है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी नवीनतम् रिपोर्ट इस दृष्टि से बेहद आश्वस्तकारी है कि बीते पंद्रह वर्षों के दौरान (2005-06 से 2021 तक) कुल 41.5 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। 2005-06 में गरीबों की आबादी 55.1 प्रतिशत थी जो अब घटकर16.4 प्रतिशत रह गई है। कुपोषण और बाल मृत्यु दर के आकड़े भी बेहतर हुए हैं। निश्चित ही यह आंकड़े हमें आश्वस्त करते है कि हम सही राह पर हैं। मैं लेकिन इन आंकड़ों को ‘आंकड़ों की बाजीगरी’ मानता हूं यदि इन आंकड़ों को अमीर और गरीब के मध्य की विभाजन रेखा के बरअक्स देखा जाए तो हालात बेहद गंभीर नजर आते हैं। गरीबी रेखा से बाहर निकलने का सीधा अर्थ है कि बहुसंख्यक जनता को अब दो वक्त की रोटी मिलने लगी है। क्या आजादी का अर्थ दो वक्त की रोटी पाना मात्र है? अमीर और गरीब के मध्य का अंतर समझना कठिन नहीं। 76 वर्षों में हमने भारत को धर्म और जाति के आधार पर दो टुकड़ों में बांटा ही बांटा, आर्थिक आधार पर भी हमने दो वर्ग पैदा कर डाले हैं जिनके मध्य की असमानता उन्हें एक-दूसरे का शत्रु बना रही है- वर्ग शत्रु। समाजवादी विचारक और राजनीतिज्ञ डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजादी के कुछ साल बाद ही भविष्य के भारत की तस्वीर संसद में उकेर दी थी। जो उन्होंने साठ के दशक में कहा था, वह आज सच बन हमारे सामने खड़ा है। संकट यह कि हमारे हुक्मरान और हम खुद उस सच से मुंह छिपा ‘विश्व गुरु’ बनने का ख्याली पुलाव बना रहे हैं। डॉ. लोहिया की दो बातें आज का सच हैं। पहली- ‘समूचा हिंदुस्तान कीचड़ का तालाब है जिसमें कहीं-कहीं कमल उग आए हैं। कुछ जगहों पर अय्याशी के आधुनिकतम तरीकों के सचिवालय, हवाई अड्डे, होटल, सिनेमाघर और महल बनाए गए हैं और उनका इस्तेमाल उसी तरह के बने-ठने लोग लुगाई करते हैं। लेकिन कुल आबादी के एक हजारवें हिस्से से भी इन सबका कोई सरोकार नहीं है। बाकी तो गरीब, उदास नंगे और भूखे हैं।’ उनका दूसरा कथन था- ‘संसद को स्वांग, पाखंड और रस्म अदायगी का अड्डा बना दिया गया है। सरकार और सदस्य जानवरों की भांति जुगाली करते रहते हैं।’
संसद का हाल हमारे सामने हैं। रही बात देश की बहुसंख्यक आबादी की, तो निश्चित ही अमीर और गरीब के मध्य की खाई ने देश को दो भागों में स्पष्ट तौर पर विभाजित कर दिया है। एक वे जिनके पास अकूत संपत्ति है और जो देश की जनसंख्या का मात्र एक अथवा दो प्रतिशत हैं तो दूसरे वे जो भले ही गरीबी रेखा से ऊपर बताए जा रहे हों, वे गरीब, उदास, नंगे और भूखे हैं।’ हमें बाबा साहब अंबेडकर के कथन को याद रखना चाहिए कि ‘यदि राज्य समाज में समानता की स्थापना नहीं करता है तो नागरिकों की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता महज धोखा सिद्ध होंगी।’ हमारा संकट तो इस असमानता के साथ-साथ धर्म और जाति के आधार पर तेजी से विभाजित हो रहे समाज का भी है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भूख के सवाल को आजादी से जोड़ते हुए कहा था-‘आजादी रोटी नहीं, मगर दोनों में कोई बैर नहीं/पर भूख कहीं बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।’ आज का कटु सच यही है कि भूख धर्मांधता और जाति नाम के तीन दैत्य लगातार हमारे समाज में विस्तार पा रहे हैं। इन तीनों को यदि समय रहते नहीं रोका गया तो निश्चित ही दिनकर का कहा सत्य साबित हो जाएगा कि ‘आजादी की …..
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं