वर्ष 2022 का अंत समीप आ चुका है। नए साल को लेकर कुछ आशा, ज्यादा आशंका चौतरफा देखने, पढ़ने और सुनने को मिल रही हैं। कोरोना महामारी से बमुश्किल बच पाई दुनिया को साम्यवादी रूस ने वर्तमान वर्ष की शुरुआत में एक नए संकट में डाल पूरे 2022 की ऐसी-तैसी कर डाली। पहले से ही कोरोना चलते चौपट वैश्विक अर्थव्यवस्था को रूस-यूक्रेन युद्ध ने उबरने नहीं दिया जिसका सीधा असर आने वाले वर्ष में पड़ने की आशंका गहरा रही है। अर्थशात्रियों के अनुसार पूरा विश्व एक बार फिर से बड़ी आर्थिक मंदी की चपेट में आने वाला है। जाहिर है इस वैश्विक आर्थिक मंदी से भारत भी प्रभावित होगा। पहले से ही हमारी अर्थव्यवस्था कराह रही है। बेरोजगारी का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। गरीब दिनोंदिन और गरीब होता जा रहा है। उद्योगधंधों पर पहले नोटबंदी के अविवेकपूर्ण निर्णय ने भारी चोट पहुंचाई फिर जीएसटी की मार ने उन्हें बर्बाद किया। रही-सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी। चुनिंदा बड़े उद्योगपतियों के हाथों सारी अर्थव्यवस्था को गिरवी होता हम देख रहे हैं, देखते रहने को अभिशप्त हैं। आने वाले वर्ष में हालात ज्यादा बिगड़ेंगे ऐसा मेरा अनुमान है। जिस अंदाज में चीन एक बार फिर से अपनी साम्राज्य विस्तार नीति को आगे बढ़ा रहा है उससे इस आशंका को बल मिलता है कि उसके इरादे नेक नहीं हैं और वह हमारी सीमाओं के अतिक्रमण का काम 2023 में ज्यादा आक्रामकता के साथ करेगा। आजादी के बाद का इतिहास गवाह है कि जब कभी भी हमारी अंतरराष्ट्रीय सीमा में तनाव बढ़ता है तो हमारे दो पड़ोसी राष्ट्र चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी का उसमें हाथ होता है। पूर्वोत्तर में चीनी सेना की अतिसक्रियता का मतलब है कि अब कश्मीर में भी आतंकी घुसपैठ तेज होगी। भारतीय सेना चीन और पाकिस्तान के नापाक इरादों को करारा जवाब देने के लिए सक्षम हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। हमारे सैन्य बल निश्चित ही हमें विदेशी आक्रांताओं से सुरक्षित रखेंगे लेकिन देश भीतर जो कुछ घट रहा है, जिस तीव्रता से हमारी सामाजिक संरचना में बदलाव आ रहा है, उससे हमें और हमारे राष्ट्र को कौन बचाएगा? यह यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर मुझे बहुत खोजे नहीं मिल रहा है। राष्ट्रवाद की आंधी ने बहुसंख्यकों को पूरी तरह से भ्रमित कर दिया है इसलिए शायद मेरी आशंका उन्हें आधारहीन लगे। वे भारी मुगालते में हैं कि देश प्रगति पथ पर है और हर समस्या का समाधान देश के प्रधान के पास है। उन्हें खुद से, खुद की समझ से ज्यादा भरोसा देश के प्रधान पर, प्रधान की समझ पर है इसलिए वे वह सब कुछ देख- समझ नहीं पा रहे हैं जिसे मैं और मेरे सरीखे बहुत सारे देख भी रहे हैं, समझ भी रहे हैं, महसूस भी रहे हैं। दुष्यंत कुमार के शब्दों में – ‘तुम्हारे पांव के नीचे जमीन नहीं/ कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं/मैं बेपनाहअंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं/मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।’
आशंकाओं के भंवरजाल में आता साल

मेरी बात
मेरा डर, मेरी आशंकाओं का मूल तेजी से बदल रही हमारी सामाजिक संरचना, सामाजिक सोच है जिसकी बिना पर बहुसंख्यक यह मान चुका है कि यह राष्ट्र केवल उसका ही है और जो कोई भी यहां अल्पसंख्यक है, उसे बहुसंख्यक से दबकर ही रहना होगा। भूख, बेरोजगारी, आर्थिक मंदी और भ्रष्टाचार पर तो काबू पा लिया जाएगा, इस खतरनाक सोच से लेकिन बाहर निकल पाना बेहद- बेहद कठिन है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गत् दिनों अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के सौ दिन पूरे होने पर एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा- ‘आप देख सकते हैं कि हमारा देश पूरी तरह से बदल चुका है। जो लोग भारत को विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं, भोजन और संगीत के विशाल विविधता वाले देश के रूप में संजोते हैं, वे देख सकते हैं कि किस प्रकार इन सबको नष्ट किया जा रहा है।’ राहुल गांधी की आशंका ही मेरी भी आशंका है। मैं देख रहा हूं, महसूस रहा हूं कि किस प्रकार हमारा समाज बदल रहा है। भयभीत हूं कि बदलने की यह कवायद आने वाले समय में कहीं चौतरफा हिंसा में तब्दील न हो जाए। जो कोई भी इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं होना चाहता, हरेक वह इसे मेरी तरह महसूस सकता है। 1995 में मेरी उम्र 25 बरस थी। 6 दिसंबर 1992 घट चुका था लेकिन माहौल फिर भी 2022 वाला नहीं था। 1995 शाहरूख खान अभिनीत फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ के सुपरहिट होने और हरेक युवा के दिल में शाहरूख के बसने का साल था। शाहरूख सुपरस्टार इसी फिल्म के चलते स्थापित हुए थे। हर युवा खुद को ‘राज’ मानने लगा था और हरेक युवती खुद के भीतर ‘सिमरन’ को महसूसने लगी थी। आज वही शाहरूख खान हीरो नहीं रहे, विलेन में तब्दील हो चले हैं। सोचिए क्योंकर? मात्र इसलिए कि वे बहुसंख्यक हिंदू समाज से नहीं हैं। यह भी सोचिए कि क्योंकर उनके बेटे आर्यन खान को एक ऐसे मामले में जेल भेज दिया गया और क्योंकर गोदी मीडिया लंबे अर्से तक उसके पीछे हाथ धोकर पड़ी रही। यह भी सोचिए कि जब आर्यन पर थोपा गया आरोप झूठ साबित हुआ तो इस गोदी मीडिया ने क्या उसी प्रमुखता से आर्यन खान के निर्दोष होने की खबर को प्रसारित-प्रचारित किया? कभी हर दिल अजीज रहे शाहरूख एक बार फिर से सुर्खियों में हैं। इस बार नायक नहीं बतौर खलनायक। हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘पठान’ के एक गाने में वे हरे रंग का कुर्ता पहने अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के संग गाना गा रहे हैं। अभिनेत्री ने भगवा रंग की बिकनी पहनी है। बस इतने भर से बवाल पैदा कर दिया गया है। मध्य प्रदेश के एक मंत्री ने तो फिल्म पर प्रतिबंध लगाने तक की धमकी दे डाली है। कहा और समझाया जा रहा है कि ऐसी फिल्म निर्माता ने जानबूझ कर सनातन धर्म की अवमानना करने के लिए किया है। फिल्म अभिनेता जावेद जाफरी ने भविष्य के भारत की एक तस्वीर बजरिए अपनी कविता 2015 में सामने रखी थी। आज मुझे यह सब लिखते हुए उनकी कविता याद हो आई। 2023 और उसके बाद के साल हमें शायद कुछ ऐसा ही देखने को मिलना तय है। जावेद जाफरी कहते हैं-
नफरतों का असर देखो/जानवरों का बंटवारा हो गया/ गाय हिंदू हो गई और बकरा/मुसलमान हो गया/ये पेड़ के पत्ते, ये शाखें भी/परेशां हो जाएं/अगर परिंदे भी हिंदू और/मुसलमान हो जाएं/सुखे मेवे भी यह देख/परेशां हो गए/न जाने कब नारियल हिंदू/और खजूर मुसलमान हो गए/जिस तरह से धर्म रंगों को भी बांटते जा रहे हैं/कि हरा मुसलमान का है और लाल हिंदुओं का रंग है/तो वह दिन भी दूर नहीं/जब सारी की सारी हरी सब्जियां मुसलमान की हो जाएंगी/और हिंदुओं के हिंस्से बस गाजर/और टमाटर रह जाएंगे/अब समझ नहीं आ रहा यह तरबूज किसके हिस्से जाएगा/ यह तो बेचारा ऊपर से मुसलमान और अंदर से हिंदू रह जाएगा।
जावेद जाफरी की यह कविता आज के भारत का सच है। ऐसा सच जो मुझे, मुझ जैसे बहुतों की बेचैनी को लगातार बढ़ा रहा है। रंगों का बंटवारा होने लगा है और सनातन धर्म की रक्षा के नाम पर संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को भी निशाने पर लिया जा रहा है। अभी कुछ दिन पूर्व ही महाराष्ट्र सरकार का एक आदेश पढ़ने को मिला जिसके अनुसार राज्य सरकार ने एक कमेटी का गठन किया है जो अंतर्धार्मिक और अंतर्जातीय शादियों की पड़ताल करेगा। हालांकि बाद में इस आदेश को संशोधित करते हुए इस कमेटी को अंतर्धार्मिक शादियों की पड़ताल का जिम्मा सौंपा गया, प्रश्न लेकिन ऐसे आदेशों- कानूनों के जरिए आम नागरिक की निजी जिंदगी में सरकारी ताक-झांक से जुड़ता है जो निश्चित ही आने वाले समय में हमारे संविधान प्रदत्त अधिकारों को कमजोर करने का काम करेगा। बहुत सारे राज्यों ने अंतर्धार्मिक शादियों को लेकर कानून बना भी डाले हैं जिसके अनुसार ऐसी शादियों से पहले सरकार से इजाजत जरूरी कर दी गई है। ऐसे कानूनों और इस प्रकार के विवादों के जरिए दरअसल, अल्पसंख्यकों को यह अहसास कराना मात्र है कि वे इस देश में भले ही संविधान कुछ भी क्यों न कहे, दोयम दर्जे के नागरिक हैं और उन्हें यदि यहां रहना है तो इस कमतरी के अहसास के साथ ही, बहुसंख्यक सनातन धर्मी से दबकर रहना होगा।
आने वाले वर्ष 2023 इस प्रकार की आशंकाओं को अपने साथ लेते आता मुझे स्पष्ट नजर आ रहा है। भविष्य को किसी ने नहीं देखा लेकिन उसका पूर्वानुमान अतीत की, इतिहास की यात्रा से लगाया जा सकता है। चीन और पाकिस्तान के भारत संग इतिहास पर नजर डालें तो उससे भविष्य में, आने वाले वर्ष में, इन दोनों के द्वारा हमारी सीमाओं पर उत्पात मचाने, यहां तक कि उनका अतिक्रमण करने, हमारे पर हमला करने तक की आशंका निर्मूल नहीं नजर आती है। हां, यह भरोसा जरूर आश्वस्तकारी है कि ऐसे आक्रांताओं को मुंहतोड़ जवाब देने में हमारी सैन्य क्षमता, हमारा सैन्य बल सक्षम है। लेकिन घर भीतर जो कुछ चल रहा है उसका समाधान कैसे होगा? कौन धर्म और जाति के नाम पर दिनोंदिन फैल रही नफरत को रोक पाएगा? और कैसे? सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि इस कोहराम की रोकथाम के लिए आम भारतीय नागरिक को, उनको जो चैतन्य है, जो कुछ चल रहा है, उसे समझ रहे हैं, ऐसों की क्या भूमिका, क्या कर्तव्य हैं। सब कुछ समझने-बूझने वालों के साथ एक बड़ी दिक्कत उनकी तटस्थता है। यह तटस्थता उस कायरता चलते उपजती है जो हमें अपने कम्फर्ट जोन (सुविधा क्षेत्र) से बाहर निकलने में सबसे बड़ी बाधा है। सब कुछ बूझने वालों का एक बड़ा वर्ग भूलने का, आंख मूंद लेने का इस कदर अभ्यस्त हो चला है कि उसे अहसास ही नहीं कि आग जब फैलेगी तो एक न एक दिन घर उसका भी जाएगा।