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Editorial

महात्मा की हत्या से स्तब्ध हुआ विश्व 

 पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-42

‘…. मुझे लगा कि अभी मुझे दिल्ली में रहना चाहिए …एक सत्याग्रही के लिए उपवास उसका अंतिम हथियार है …  मेरे पास उन मुस्लिम मित्रों को देने के लिए कोई जवाब नहीं बचा जो मेरी तरफ ताक रहे हैं। मेरी नपुंसकता मुझे काफी अर्से से कुदेर रही है … मेरे लिए मृत्यु एक गौरवशाली मुक्ति होगी, न की यह कि मैं भारत में हिंदू, सिख और इस्लाम के विनाश का गवाह बनूं’। महात्मा का यह अंतिम उपवास था जिसके दबाव में आकर भारत सरकार ने 15 जनवरी, 1948 को पाकिस्तान को देय 55 करोड़ का भुगतान कर दिया। शरणार्थी सिखों ने भी एलान कर दिया कि वे मुसलमानों के साथ हिंसा रोक देंगे। 17 जनवरी के दिन संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में एक केंद्रीय शांति कमेटी का गठन किया गया जिसमें कांग्रेस, जमायत-ए-उलेमा, सिख संगठन और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रतिनिधि शामिल हुए। इस समिति ने गांधी संग 18 जनवरी की सुबह मुलाकात कर उन्हें भरोसा दिलाया कि वे सब मिल-जुलकर साम्प्रदायिक तनाव को रोकने का प्रयास करेंगे। इस भरोसे से संतुष्ट हो गांधी ने अपना उपवास तोड़ लिया था। हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी इस शांति कमेटी में शामिल था लेकिन गांधी के मुस्लिम प्रेम चलते संघ समर्थकों ने गांधी विरोध जारी रखा। इस अनशन के दौरान बड़ी संख्या में शरणार्थियों का हुजूम बिड़ला हाउस के बाहर ‘गांधी को मरने दो’ के नारे लगाता रहा। 20 जनवरी के दिन ऐसे ही एक पंजाबी शरणार्थी ने प्रार्थना सभा के दौरान एक बम विस्फोट कर गांधी की हत्या का प्रयास किया। गांधी इस हमले से कतई विचलित नहीं हुए। अगले दिन प्रार्थना सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा ‘इस व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव न रखें। इस व्यक्ति ने निश्चित मान लिया है कि मैं हिंदुत्व का दुश्मन हूं … लेकिन मैं आश्वस्त हूं कि भगवान बार-बार ऐसे लोगों को भेजने की भूल नहीं करेगा।’ गांधी लेकिन गलत निकले। शुक्रवार, 30 जनवरी, 1948 के दिन गृह मंत्री पटेल ने गांधी से करीबन एक घंटे तक बात की। उनकी मुलाकात का उद्देश्य प्रधानमंत्री नेहरू संग उनके बिगड़े रिश्तों की बाबत गांधी से सलाह-मशविरा करना था। इन दो दिग्गजों के मध्य सरकार की नीतियों को लेकर मतभेद दिनों-दिन गहराता जा रहा था जिसका सीधा असर केंद्र सरकार के कामकाज पर पड़ने लगा था। नेहरू भी इसी दिन गांधी से मुलाकात करने शाम 7 बजे बिड़ला भवन आने वाले थे ताकि वे अपना पक्ष गांधी के समक्ष रख सकें। लेकिन यह मुलाकात कभी न हो सकी। शाम 5 बजकर 5 मिनट पर हिंदू महासभा के एक धर्मांध नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना स्थल की तरफ आ रहे गांधी पर तीन गोलियां दाग उनके प्राण ले लिए। गांधी के अंतिम शब्द थे ‘‘हे राम’’।

गांधी की हत्या का समाचार आग की तरह फैलने लगा। भारत ही नहीं पूरी दुनिया अहिंसा के इस पुजारी की हत्या से स्तब्ध रह गई। बिड़ला भवन के बाहर लाखों की संख्या में गांधी के अनुयायी जमा होने लगे थे। इन आक्रोशित गांधी भक्तों को उस रात नेहरू ने संबोधित करते हुए अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन का सबसे मार्मिक और सारगर्भित भाषण दिया था। नेहरू ने कहा ‘दोस्तों हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है और चौतरफा अंधकार फैल चुका है। मैं आपसे क्या और कैसे कहूं, यह मैं समझ नहीं पा रहा हूं। हमारे प्रिय नेता, जिन्हें हम ‘बापू’ कह पुकारते थे, हमारे राष्ट्रपिता, अब नहीं रहे …  मैंने ही कहा कि प्रकाश चला गया है लेकिन मैं गलत भी हूं क्योंकि जिस प्रकाश ने इस देश को बरसों जगमगाया है और आने वाले हजार वर्षों तक जगमगाते रहेगा, यह पूरा विश्व देखेगा क्योंकि यह रोशनी तात्कालिक भविष्य से कहीं ज्यादा शाश्वत सत्य का प्रतिनिधित्व करती है और हमें सत्य की तरफ ले जाती है …  एक पागल आदमी ने उनका जीवन लील लिया। मैं उसे पागल ही कह पुकार सकता हूं। हमारे चारों तरफ नफरत फैली हुई है। पिछले कुछ वर्षों से, कुछ महीनों से इस नफरत ने हमारे दिमाग में प्रभाव डाला है। हमें इस नफरत से लड़ना होगा, इसे अपने यहां से बाहर निकाल फेंकना होगा …  हमें एक रहना होगा और अपने छोटे-मोटे मनमुटाव और झगड़े को इस भीषण आपदा के दृष्टिगत भुलाना होगा।’

महात्मा की हत्या ने पूरे विश्व को स्तब्ध करने का काम किया। उनको दी गई श्रद्धांजलियों से समझा जा सकता है कि गांधी को विश्व के महान और महत्वपूर्ण लोग किस दृष्टि से देखते थे। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने गांधी की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करते हुए कहा ‘Every one concerned in the better future of mankind must be deeply moved by the death of Mahatma Gandhi. He died as the victim of his own principles, the principle of non violence…in our time of utter moral decadence, he was the only statesman to stand for a higher level of human relationship in political sphere’ (हरेक वह व्यक्ति जो मानवता के भले की सोचता है, इस घटना से स्तब्ध है। महात्मा गांधी अपने ही सिद्धांतों, अहिंसा के सिद्धांत का शिकार हो गए….पूरी तरह अनैतिक हो चले हमारे समय में, वे ही एक मात्र महापुरुष थे जो राजनीतिक परिदृश्य में उच्च मानवीय मूल्यों के लिए खड़े रहे)। ख्याति प्राप्त लेखक जॉर्ज बर्नांड शॉ ने कहा ‘It shows how dangerous it is to be too good (यह दर्शाता है कि ज्यादा भला होना भी कितना घातक होता है)।

अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति टू्रमेन के शब्द थे ‘गांधी एक महान भारतीय राष्ट्रवादी होने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेता थे। एक नेता और शिक्षक बतौर उनके प्रभाव को भारत ही नहीं पूरे विश्व में देखा जा सकता है। उनकी मृत्यु शांति चाहने वाले हर व्यक्ति के लिए गहरा दुख है।’ अमेरिका में मानवाधिकारों के महान प्रवर्तक मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा था… ‘Gandhi was probably the first person in history to lift the love ethic of Jesus above mere interaction between individuals to a powerful and effective social force on a large scale. The intellectual and moral satisfaction that I failed to gain from the utilitarianism of  Bentham and Mill, the revolutionary methods of marx and lenin, the social contract theory of Hubbes, the ‘back to nature’ optimism of Rousseace, and the superman philosophy of Nietzsche, I found in the non-violent resistance philosophy of Gandhi’ (गांधी इतिहास में संभवतः पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यीशु के प्रेम नैतिकता के दर्शन को शक्तिशाली और प्रभावी रूप से बड़े पैमाने पर ऊपर उठाया। बेंथम और मिल के उपयोगितावाद, मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी तरीकों, हब्ब के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत, रूसेज के ‘दोबारा प्रकृति की ओर’ का आशावाद और नीत्शे के सुपरमैन दर्शन से जो बौद्धिक और नैतिक संतुष्टि हासिल करने में, मैं असफल रहा उसे मैंने गांधी के अहिंसक प्रतिरोधक दर्शन में पाया)।’

गांधी के प्रति विश्व के बड़े नेताओं, विचारकों, वैज्ञानिकों और लेखकों के ये विचार स्थापित करते हैं कि महात्मा को ‘छोटा’ साबित करने और उन पर नाना प्रकार के मिथ्या आरोप लगाने का जो प्रयास उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे ने किया और जो नाथूराम गोडसे को शहीद बता उसका मंदिर बना उसे पूजने वाले हैं, वे किस कदर एक विचारधारा विशेष के बोझ तले दब कर उस व्यक्ति, उस विचारधारा पर प्रहार कर रहे हैं जिसके कारण ढाई सौ बरस की गुलामी से हमें छुटकारा मिला था।

महात्मा की मृत्यु के पश्चात् नेहरू और पटेल ने आपसी मतभेदों को दरकिनार कर, एक होकर भारत की समस्याओं का समाधान खोजने और नए भारत के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाने का काम किया। जो जिंदा रहते गांधी नहीं कर पाए, वह उनकी मृत्यु ने कर दिखाया। गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस भीतर मौजूद समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने सरदार पटेल को गांधी की हत्या के लिए नैतिक रूप से जिम्मेवार मानते हुए उनके इस्तीफे की मांग उठानी शुरू कर दी थी। अंग्रेजी दैनिक ‘द स्टेट्समेन’ ने 3 फरवरी, 1948 के दिन समाजवादियों का एक पत्र प्रकाशित किया गया था ‘Sardar Patel should resign for the failure of his security department to protect Mahatma Gandhi’ (सरदार पटेल को अपने सुरक्षा विभाग द्वारा गांधी की सुरक्षा में हुई चूक की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए)’ जय प्रकाश नारायण के हवाले से 4 फरवरी के अंग्र्रेजी दैनिक ‘दि टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा ‘A man of 74 has departments of which even a man of 30 would find difficult to bear the burden’ (एक 74 बरस के व्यक्ति के पास इतने मंत्रालय हैं जिनका भार एक 30 बरस का व्यक्ति भी उठा पाने में परेशानी महसूस करे)।

अपनी इन आलोचनाओं से खिन्न पटेल ने तत्काल अपना इस्तीफा देने का मन बना लिया था लेकिन वे इस इस्तीफे को प्रधानमंत्री तक भेजते कि उन्हें नेहरू का 3 फरवरी को एक पत्र मिला जिसमें नेहरू ने लिखा ‘With Bapu’s death, every thing is changed and we have to face a different and more difficult world…I have been greatly distressed by the persistance of whispers and rumours about you and me, magnifying out of all proportion and differences we may have…we must put an end to this mischief… Any way in this crisis that we have to face now after Bapu’s death, I think it is my duty and if I may venture to say, yours also for us to face it together as friends and colleagues. Not superficially but in full loyality to one another and with confidence in one another. I can assure you that you will have that from me’  (बापू की मृत्यु के बाद सब कुछ बदल गया है। अब हमें एक अलग और ज्यादा कठोर दुनिया का सामना करना होगा….हम दोनों के मध्य कथित मतभेदों की बाबत फैल रही अफवाहों से मैं बहुत व्यथित हूं…हमें हर हालत में इन्हें रोकना होगा। बापू की मृत्यु से उत्पन्न संकट का सामना हम दोनों को मिलकर करना होगा। मुझे लगता है यह मेरी और आपकी जिम्मेवारी है कि इस संकट का सामना हम मिलकर बतौर मित्र और सहकर्मी करें। ऊपरी तौर पर नहीं बल्कि एक-दूसरे के प्रति पूरी तरह वफादार रहते हुए और एक-दूसरे को विश्वास में लेते हुए हमें यह करना है।…. मैं अपनी तरफ से आपको इसके लिए पूरी तरह आश्वस्त करता हूं)।

क्रमशः

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