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मेरी बात

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज, सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र, बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ में छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं

                                                                               -अटल बिहारी वाजपेयी

पूर्व प्रधानमंत्री और कवि अटल जी की उपरोक्त कविता मुझे दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के संर्दभ में अनायस याद हो आई। मनीष मेरे मित्र रहे हैं। अन्ना आंदोलन के दौरान उनसे संबंध प्रगाढ़ हुए थे। वह दौर कुछ अलग अजब-गजब किस्म का था। यूपीए शासनकाल के दूसरे चरण में चौतरफा भ्रष्टाचार के किस्से हवा में तैरने लगे थे। 1992 में कंगाली की कगार पर पहुंच चुके देश को आर्थिक बर्बादी से बचाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह की छवि बतौर प्रधानमंत्री 2010 के दौरान बुरी तरफ तार-तार हो चली थी। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला खदान आवंटन घोटाला, वायुसेना हेलीकॉप्टर खरीद घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, महाराष्ट्र का आदर्श सोसायटी घोटाला इत्यादि के चलते संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार द्वारा किए गए हर अच्छे काम को जनता नकारने लगी थी। अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ इन आरोपों को बल देने का काम किया। जनता उन्हें महात्मा गांधी का अवतार मान दिवानों की तरह उनकी तरफ आकर्षित होने लगी। अन्ना ने भ्रष्टाचार की रफ्तार रोकने और भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने के लिए लोकपाल नामक एक स्वतंत्र संगठन बनाए जाने की मांग उठाई। उनका मानना था कि केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण से मुक्त एक ऐसी संवैधानिक संस्था का निर्माण हो जो प्रधानमंत्री समेत हरेक सरकारी सेवक की जांच करने और उसे दंडित करने का अधिकार रखती हो। उन्होंने सीबीआई सरीखी केंद्रीय जांच एजेंसियों को भी केंद्र सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने और उन्हें लोकपाल के अधीन करने की बात कही। अन्ना लोकपाल के नाम पर देशभर में छा गए। वे इस आंदोलन का चेहरा भर थे, आंदोलन की रणनीति उनके चंद साथियों द्वारा बनाई जाती थी, तय की जाती थी। इन चंद साथियों में प्रमुख थे अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, डॉ. कुमार विश्वास और संजय सिंह। अरविंद से भी मेरी मित्रता इसी आंदोलन की देन थी। वे और उनके साथी अक्सर हमारे अखबार के दफ्तर उन दिनों आया करते थे। इन सभी संग मेरी मित्रता कवि डॉ. कुमार विश्वास के चलते हुई थी। अन्ना आंदोलन का और स्वयं अन्ना हजारे का हश्र क्या हुआ इससे हम सभी भलि-भांति परिचित हैं। लोकपाल नामक संस्था जो इस आंदोलन की जान थी, उसका आज कोई जिक्र तक नहीं करता। जो भ्रष्टाचार को जड़ से हटाने की बात करते थे उनमें से कई आज भी व्यक्तिगत स्तर पर लड़ाई लड़ रहे हैं, अरविंद और उनके साथी लेकिन खांटी राजनीतिज्ञ बन अपने मूल उद्देश्य से कोसों दूर जा चुके हैं। इससे बड़ी विडंबना भला क्या हो सकती है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता और सादगी की बात करने वाले केजरीवाल और उनके साथी खुद गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर चुके हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर इन आरोपों की सच्चाई को लेकर भारी शंका है। जितना मैं टीम अन्ना के बतौर इन साथियों को जान पाया था, उसकी बिना पर मुझे पूरा यकीन है कि दिल्ली सरकार की आबकारी नीति में बदलाव किसी घोटाले को अंजाम पहुंचाने की नीयत से नहीं किया गया होगा। आम आदमी पार्टी की सरकार ने बीते आठ वर्षों के दौरान दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ व्यवस्था समेत आमजन को राहत पहुंचाने वाले कई ऐसे व्यवस्थागत सुधार किए जिनके चलते वह लगातार दूसरी बार प्रचंड बहुमत से सत्ता पर आसीन है। लेकिन इस सच से भी आंखे मूंदी नहीं जा सकती कि राजनीतिक सत्ता को पाने और उसका विस्तार करने की चाह ने केजरीवाल और उनकी टीम को समझौता परस्त बना डाला है। अब वे भी परिवर्तनगामी राजनीति के लिए काम नहीं करते हैं, बल्कि सत्ता पाने के लिए वर्तमान व्यवस्था के अंग बन चुके हैं। क्रांति के सपने दिखाने वाले अब सत्ता सुख भोगने के लिए किस कदर लालायित हैं इस दिल्ली के मुख्यमंत्री के सरकारी आवास को 45 करोड़ की भारी भरकम रकम फूंक संवारे जाने से समझा जा सकता है। बहरहाल अभी मैं मनीष सिसोदिया को उच्चतम न्यायालय द्वारा जमानत न दिए जाने पर अपनी बात सामने रखना चाहता हूं। मेरे लिए उच्चतम न्यायालय का फैसला खासा हतप्रभ करने वाला रहा। शायद मेरे लिए ही नहीं, बल्कि हर उस शख्स के लिए जो विधायकी और कार्यपालिका से कहीं ज्यादा लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ के बतौर न्याय पालिका को देखता-मानता है और उससे भारी उपेक्षा रखता है। कथित आबकारी घोटाले में केंद्रीय जांच एजेंसियों (सीबीआई और ईडी) ने 26 फरवरी के दिन मनीष सिसोदिया को हिरासत में लिया था। तब से लेकर आज आठ माह बीत चुके हैं। सिसोदिया की सेशन कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक जमानत की अर्जी खारिज कर दी गई थी। उच्चतम न्यायालय में लेकिन जब उनकी जमानत याचिका पर सुनवाई शुरू हुई तो मुझ सरीखों को भारी राहत का एहसास हुआ। लगा अब मनीष जमानत पा जाएंगे। 4 अक्टूबर के दिन उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ जिसमें न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति एस.वी़एन. भट्टी शामिल थे, ने इस मामले में सुनवाई करते हुए ईडी से पूछा कि क्या उनके पास सिसोदिया के खिलाफ कोई ठोस सबूत हैं? कोर्ट का आशय यह जानता था कि केवल एक अभियुक्त जिसे ईडी ने वादा माफ गवाह बना दिया हो, के कहने भर से सिसोदिया पर लगे आरोप प्रमाणित नहीं हो जाते हैं। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने सुनवाई के दौरान यह भी चिन्हित किया कि जो तथ्य ईडी ने न्यायालय के समक्ष रखे हैं उससे प्रतीत होता है कि ‘अपराध का लाभ’ (Proceeds of Crime) एक राजनीतिक दल को मिला है। न्यायमूर्ति खन्ना ने जानना चाहा कि क्या किसी राजनीतिक दल को आरोपी बनाया जा सकता है?’ उच्चतम् न्यायालय के तेवर बेहद तीखे थे। न्यायमूर्ति खन्ना ने सुनवाई के दौरान यहां तक कह डाला कि ईडी द्वारा लगाए गए आरोप केस की सुनवाई के दौरान ‘औंधे मुंह गिर जाएंगे।(Will fall flat after two questions)। उच्चतम न्यायालय की जिज्ञासा और उसके प्रश्नों ने ईडी को सकते में डालने का काम किया तो मनीष सिसोदिया के शुभेच्छाओं को उम्मीद जगी कि अब उन्हें जमानत मिल जाएगी। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। 17 अक्टूबर के दिन उच्चतम न्यायालय ने इस जमानत याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। इस दौरान देश भर में यही माहौल बना रहा कि सिसोदिया को जमानत मिल ही जाएगी। 30 अक्टूबर को आया फैसला आशा विपरीत रहा। न्यायालय ने हालांकि ईडी द्वारा सिसोदिया पर लगाए गए कुछ आरोपों पर अपनी शंका व्यक्त करी जरूर लेकिन यह कहते हुए कि ‘…However there is one clean ground of charge in the complaint filed under PMLA which is free from perceptible legal challenge and the facts as alleged are tentatively supported by matenrial evidence’ (….लेकिन पीएमएलए के अंतर्गत दर्ज शिकायत में एक आरोप स्पष्ट तौर पर प्रमाणित होता है और जिसे कानूनी तौर पर चुनौती नहीं दी जा सकती)। सिसोदिया को जमानत देने से इंकार कर दिया। निश्चित ही उच्चतम न्यायालय ने 17 अक्टूबर (जिस दिन खंडपीठ ने जमानत याचिका पर सुनवाई पूरी की) से लेकर फैसले के दिन (30 अक्टूबर) तक ईडी द्वारा पेश सबूतों को परखा होगा जिसकी बिना पर सिसोदिया को जमानत नहीं दी गई। लेकिन जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान जिस प्रकार और जिस अंदाज में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने ईडी को एक तरीके से आड़े हाथों लिया था, उसके बाद जमानत नहीं दिए जाने का निर्णय पूरे प्रकरण को रहस्यमयी बना देता है। अटल जी की कविता का स्मरण कि बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं का स्मरण इसी चलते मुझे हो आया। भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र बनाने की संकल्पना लिए राजनीति में प्रवेश लेने वालों का यह हश्र दुखदाई है। हालांकि निजी तौर पर मेरा अभी भी यही मानना है कि इस पूरे प्रकरण (आबकारी घोटाला) के पीछे राजनीतिक विद्वेष की भावना काम कर रही है। अन्यथा एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचारी चौतरफा बिखरे पड़े हैं जिनकी जांच करने, उन्हें दंडित करने की तरफ न तो केंद्र सरकार, न ही उसकी एजेंसियों की दिलचस्पी दूर-दूर तक नजर आती है।

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