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Editorial

प्रश्न मानवीय सरोकारों का भी है

इन दिनों देश भर में नागरिकता का मुद्दा छाया हुआ है। टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया में नागरिकता के प्रश्न पर भारी बहस छिड़ी हुई है। संसद का मानसून सत्र नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) के मुद्दे पर लगातार स्थगित हो रहा है। कारण है असम सरकार द्वारा लंबी प्रक्रिया बाद इस नागरिकता रजिस्टर की ड्राफ्ट कॉपी को जारी करना जिसके अनुसार लगभग चालीस लाख लोग अवैध तौर पर असम में रह रहे हैं। इन चालीस लाख में अधिकतर बांग्लादेश से भारत आए मुसलमान हैं। जो आंकड़े सामने आए हैं उनमें से बत्तीस लाख मुसलमान और आठ लाख हिन्दुओं पर भारत से निकाले जाने का खतरा मंडराने लगा है। असम में ऐसे विदेशी मूल के लोगों को लेकर भारी असंतोष बरसों से रहा है। उच्चतम न्यायालय की निगरानी में कई बरसें की कड़ी मशक्कत के बाद बावन हजार सरकारी कर्मचारियों ने लगभग साढ़े 6 करोड़ दस्तावेजों की जांच की। सरकार का बारह सौ करोड़ इस कार्य को पूरा करने में लगा। जब नागरिकता की जांच का यह कुंभ शुरू हुआ तब केंद्र में यूपीए सरकार तो असम में कांग्रेस की सरकार थी। नतीजे आने के बाद अब विपक्ष इस पर भाजपा को घेरने में जुट गया है तो भाजपा को भी राष्ट्रवाद की अलख जगाने का एक और मौका हाथ आ गया है। चैनलों में स्तरहीन बहस का दौर जारी है। कमोबेश यही हाल सोशल मीडिया का भी है। मानवीय संवेदनाएं और संवैधानिक स्थिति पर कोई सार्थक बात ना होकर मामला एक बार फिर हिन्दू-मुस्लिम पर आ टिक गया है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने नागरिकता के मामले पर राज्यसभा में बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर बुजदिल होने तक का आरोप लगा दिया जिसके बाद तो पूरा मुद्दा ही गलत दिशा की तरफ जाता नजर आ रहा है। अधिकांश बगैर कुछ समझे-बूझे इस पर अपनी राय बना चुके हैं। कइयों से मेरी इस मुद्दे पर बातचीत हुई। गहन आश्चर्य हुआ कि अपने देश की राष्ट्रीयता जैसे गंभीर सवाल पर कोई चिंतन करने को तैयार नहीं, ज्यादातर का मानना है कि तत्काल ऐसे चालीस लाख को सीमा पार खदेड़ देना चाहिए। जितनों से मैंने इस बाबत चर्चा की, उन्हें भारत की राष्ट्रीयता पाने के तरीकों विशेषकर असम में रह रहे विदेशी मूल के लोगों की बाबत सामान्य जानकारी तक का अभाव है। वे केवल इसे धर्म से जोड़ कर देख-समझ रहे हैं और उसी आधार पर अपनी ओपिनियन बना चुके हैं। तो चलिए इस मुद्दे को थोड़ा समझने का प्रयास करें।
भारत की नागिरिकता को पाने के चार तरीके हैं- जन्म से, वंशानुगत आधार से, पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) के जरिए या फिर नेचुरेलाईजेशन प्रोसेस के जरिए। हर वह व्यक्ति जो 26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा ने हमारे संविधान को स्वीकार किया था, भारत में रह रहा था, भारत का नागरिक मान लिया गया था। शर्त केवल यह थी कि ऐसे व्यक्ति के माता-पिता में से एक भारत में पैदा हुआ हो अथवा भारत में पांच बरस से रह रहा हो। 26 नवंबर, 1949 के बाद पैदा हुए लोगों के लिए नागरिकता अधिनियम 1955 बना जिसके अनुसार जन्म तिथि के आधार पर अपने आप ही नागरिकता मिलने लगी। इस एक्ट में1987 में बदलाव किया गया। हर कोई जिसका जन्म 26 जनवरी 1950 से एक जुलाई 1987 के बीच भारत में हुआ हो, वह भारत का नागरिक इस एक्ट के चलते स्वतः ही माना गया। यानी यदि ऐसे व्यक्ति के माता-पिता विदेशी भी हों लेकिन व्यक्ति का जन्म भारत में हुआ तो वह स्वाभाविक रूप से भारतीय माना गया। पतंजलि योग पीठ के आचार्य बालकृष्ण ने इसी एक्ट का सहारा अपनी नागरिकता के संदर्भ में लिया है। उनके माता-पिता नेपाली हैं लेकिन बालकृष्ण का दावा है कि वे हरिद्वार में जन्मे इसके चलते वे भारतीय नागरिक हैं। 1987 में सरकार ने इस एक्ट में एक बड़ा संशोधन करते हुए यह शर्त जोड़ दी कि माता-पिता में से एक का भारतीय होना जरूरी है। 2004 में फिर से एक्ट को संशोधित किया गया। इस संशोधन के बाद 3 दिसंबर, 2004 के बाद जन्मे व्यक्ति को तभी जन्म के आधार पर भारतीय नागरिकता मिलती है जिसके माता अथवा पिता में से एक कम से कम भारतीय हो तथा दूसरा वैध तरीकों से भारत में रह रहा हो यानी घुसपैठिया ना हो। पंजीकरण के आधार पर भी भारतीय नागरिकता ली जा सकती है। यह तरीका विदेशों में रह रहे उन अप्रवासी भारतीयों के लिए है जो वापस भारत आना चाहते हों। एक अन्य तरीका उन विदेशी मूल के लोगों के लिए है जो भारत की नागरिकता लेना चाहते हैं। अवैध रूप से रह रहे विदेशियों को छोड़कर किसी भी राष्ट्र का नागरिक अपने देश की नागरिकता त्याग भारत का नागरिक इस प्रक्रिया के द्वारा बन सकता है। हमारे नागरिकता कानून के अनुसार दोहरी नागरिकता मान्य नहीं है। यदि कोई भारतीय नागरिक किसी अन्य देश की नागरिकता लेता है तो वह स्वतः ही भारत का नागरिक नहीं रह जाता है। असम के मामले में लेकिन कानून में विशेष प्रावधान किए गए हैं। कारण ऐतिहासिक हैं। ब्रिटिश शासनकाल में असम बंगाल प्रांत का हिस्सा हुआ करता था। सन् 1826 से 1947 तक ब्रिटिश हुक्मरान असम में चाय की खेती को बढ़ावा देने की नीयत से बड़े स्तर पर अन्य राज्यों से मजदूरों को असम में बसाते रहे। देश के बंटवारे के समय पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी तादात में बंगाली मुसलमानों ने असम में शरण ले ली। स्थानीय असमी जनता ने इसी दौर में इस पर आपत्ति करनी शुरू की जो बाद में एक बड़े आंदोलन में बदल गया।1971 में जब पाकिस्तान से दूर बांग्लादेश बना तब एक बार फिर बड़ी तादात में बंगाली मुस्लिम असम में घुस गए। नतीजा 1978 से 1985 तक असम इस मुद्दे पर सुलगता रहा। ऑल असम स्टूंडेंट यूनियन (आसू) ने प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व में पूरे प्रदेश को अवैध नागरिकता के मामले में एकजुट कर डाला। महंत भारतीय राजनीति में पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो सीधे छात्र राजनीति से मुख्यधारा की राजनीति में प्रवेश कर असम के मुख्यमंत्री बने। 1985 में राजीव गांधी सरकार ने महंत संग असम समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके अनुसार अवैध घुसपैठियों को चिÐत कर वापस उनके देश भेजने पर सहमति बनी। नागरिकता कानून में असम में रह रहे घुसपैठियों की बावत इस समझौते के अंतर्गत संशोधन भी किया गया। इस संशोधन के अनुसार एक जनवरी 1966 से पहले असम में रह रहे हर व्यक्ति को भारतीय नागरिक मान लिया गया। यह तय किया गया कि जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 के बीच असम में आए हर व्यक्ति को विदेशी नागरिक ट्रिब्यूनल के समक्ष अपना रजिस्टेशन कराना होगा। ऐसे व्यक्तियों को दस बरस तक वोट देने का अधिकार छोड़ हर अन्य अधिकार होगा। दस बरस पश्चात उन्हें नागरिकता दे दी जाएगी। साथ ही यह भी कानून बनाया गया कि 25 मार्च 1971 के बाद असम में आए घुसपैठियों को चिन्हित कर वापस उनके देश भेज दिया जाएगा। नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन इसी समझौते में तय कट् ऑफ डेट यानी 25 मार्च 1971 के बाद आए घुसपैठियों को चिन्हित करने का काम करता आया है। राज्यसभा में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी पर इसी समझौते को सही तरीके से लागू ना करने का आरोप लगाया है जिसके बाद पूरा मुद्दा कांग्रेस बनाम भाजपा में बदल गया है। भाजपा ने केंद्र में सत्ता संभालने के बाद 2015 में नागरिकता कानून में संशोधन लाने का प्रयास किया जिसके अंतर्गत गैर मुस्लिम असमी घुसपैठियों मुख्यतः हिन्दुओं को नागरिकता दिलाने की राह आसान हो जाती। यह संशोधन फिलहाल असम के भारी विरोध चलते एक संयुक्त संसदीय समिति के पास लंबित पड़ा है। यदि यह संशोधन लागू हो जाता है तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए गैर मुस्लिम लोगों को मात्र छह बरस भारत में रह लेने के बाद नागरिकता मिल जाएगी। अभी यह समय सीमा 11 बरस की है तथा सभी धर्म के लोगों के लिए है। असमी जनता का विरोध हर धर्म के घुसपैठियों को लेकर है इसलिए वहां इस प्रस्तावित संशोधन को लेकर बड़ा आक्रोश है। घुसपैठियों को नागरिकता दिए जाने का मामला अरुणाचल प्रदेश में भी मूल अरुणाचलियों के मध्य बड़े असंतोष का कारण है। वहां यह विरोध चकमा और हाजोंग आदिवासियों को लेकर है जो पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्ला देश) से भारत में पचास साल पहले घुस आए थे। लगभग एक लाख की इस आबादी को केंद्र सरकार भारतीय नागरिकता देने का मन बना चुकी है लेकिन अरुणाचल प्रदेश की मूल जनता इसका भारी विरोध कर रही है। इसी प्रकार पश्चिमी पाकिस्तान से कश्मीर में आ बसे शरणार्थियों का मुद्दा भी है जिन्हें लोकसभा चुनावों में तो वोट डालने का अधिकार दे दिया गया है लेकिन कश्मीरियों के भारी विरोध के चलते उन्हें विधानसभा चुनावों में मतदान का अधिकार नहीं है।
मेरी समझ से घुसपैठियों को नागरिकता का अधिकार देने अथवा शरण देने का मामला अपने आप में कई पहलू लिए है। जहां एक तरफ अपनी जमीन और संस्कृति में स्थानीय समाज इन घुसपैठियों के अतिक्रमण को पचा नहीं पा रहा है तो दूसरी तरफ अपना देश छोड़ दशकों से दूसरे मुल्क में आ बसे लोगों की त्रासदी भी है जिनका ना तो अपने देश में स्वागत है, ना ही वहां जहां उनकी मजबूरी ने उन्हें ला पटका है। जरूरत इस समस्या के ऐसे समाधान की है जिससे मानवीय सरोकार भी बचे रहें और स्थानीय जनता की भावनाओं का भी सम्मान रह सके। हालांकि ऐसा होना संभव नजर नहीं आता क्योंकि आज के दौर में सब कुछ गौण है, केवल तुच्छ और क्षुद्र राजनीति का ही बोलबाला है।

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