इस सच को स्वीकारे बिना अब काम चलने वाला नहीं कि देश की सत्ता पूरी तरह भ्रष्ट हो चली है। आजादी के बाद इसे भ्रष्टाचार का रास्ता दिखाने का काम कांग्रेस ने किया। अब भाजपा इसे कर रही है। दशकों की गुलामी के बाद मिली आजादी के तुरंत बाद भ्रष्टाचार की यात्रा परवान चढ़ने लगी थी। इसे परवान चढ़ाया धर्म, जाति, संप्रदाय ने। साथ ही इसे भरपूर समर्थन मिला ‘पुश्तैनी गुलामों’ का। आजादी पूर्व यह पुश्तैनी गुलाम अंग्रेजों की गुलामी करते थे। आजादी बाद कांग्रेस के गुलाम हो गए। अब भाजपा का साथ यह बढ़-चढ़ कर दे रहे हैं। कौन हैं यह ‘पुश्तैनी गुलाम’? ये हमारे समाज के वे तत्व हैं जो चाहे जिसकी सत्ता हो, जिसका शासन आए, हमेशा सत्ता के साथ बने रहते हैं। जिसका राज होता है, उसके ये पूत बन जाते हैं। सत्ता के साथ हिस्सेदारी करने चलते इनके पास अकूत धन, शिक्षा, बोलने की ताकत और कला होती है। ये ‘पुश्तैनी गुलाम’ एक दूसरे के साथ दुश्मनी भी रखते हैं लेकिन अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए, एक- दूसरे का साथ भी खूब निभाते हैं। राजनीतिक दलों को इनका साथ खूब भाता है क्योंकि ये अपने पैसों की ताकत के बल पर इन दलों को खरीद लेते हैं। पिछले 74 बरसों में देश में अथवा राज्यों में चाहे जिसकी भी सरकार रही हो, इन ‘पुश्तैनी गुलामों’ का हमेशा जलवा रहता आया है। इनकी ताकत असीम है। इस ताकत के बल पर इन्होंने देश में अच्छे-बुरे की परख समाप्त कर डाली है। 2011 में हमने बदलाव की एक बड़ी आंधी के रूप में अन्ना आंदोलन होते देखा था। ऐसा लगने लगा था कि अब बहुत कुछ बदलेगा क्योंकि जनता बदलाव का मन बना चुकी है। अन्ना हजारे गांधी सरीखे नजर आते थे। हुआ लेकिन क्या? आंदोलन तो गर्त में चले गया, एक नए राजनीतिक दल का जरूर पर्दापण इस आंदोलन के गर्भ से हुआ। यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी। भले ही भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने का संकल्प अधूरा रह गया हो, एक साफ-सुथरी राजनीतिक शक्ति का उदय तो हुआ। ऐसा मेरा और कुछ मुझ सरीखे सैकड़ों-लाखों का मानना रहा। दिल्ली की सत्ता में इस नए राजनीतिक शक्ति का काबिज होना कोई मामूली बात नहीं थी, इसलिए मुझ सरीखों ने इस तर्क ताकत को सराहा, जमकर सराहा। ‘पुश्तैनी गुलाम’ लेकिन अपनी कलाकारी यहां भी दिखा गए हैं। इनकी इस कलाकारी को आम आदमी पार्टी के दो राज्यसभा सदस्यों से परखा जा सकता है। आप के तीन राज्यसभा सांसद दिल्ली से हैं। इनमें से एक मात्र संजय सिंह ऐसे हैं जो अन्ना आंदोलन की पैदाइश हैं। बाकी दो इन्हीें ‘पुश्तैनी गुलामों’ की देन स्पष्ट नजर आते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली में आप सरकार कांग्रेस और भाजपा की पूर्ववर्ती सरकारों से कहीं बेहतर काम कर रही है। अच्छे और बुरे के बीच का फर्क लेकिन आप नेतृत्व भी धीरे-धीरे भूलने लगा है। किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने के लिए, दिल्ली से बाहर, देश के अन्य राज्य में अपनी ताकत का विस्तार करने के लिए, आप भी वही हथकंडे अपनाने लगी है जिन्हें कांग्रेस और भाजपा ने अपनाया है। उत्तराखण्ड में विकल्प बनने की छटपटाहट के चलते आप ने कुछ ऐसा ही किया है। पार्टी के प्रत्याशी या तो स्थापित दलों से आए नेता हैं या फिर धनी और बाहुबली। केजरीवाल पहली बार दिसंबर, 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे। मात्र 49 दिनों तक वे सीएम रहे। इन 49 दिनों में अरविंद को मैंने बहुत करीब से देखा है। उनके भीतर मोदी का विकल्प बनने का बीज ठीक उसी दिन पैदा हो गया था जिस दिन पहली बार वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे। लेकिन आंदोलनकारी उनके भीतर तब तक जीवित था। इसी आंदोलनकारी ने उनसे 49 दिनों तक उनको झकझोरा, समझौता परस्त होने से रोका। नतीजा रहा केजरीवाल का इस्तीफा। अब केजरीवाल के भीतर मौजूद आंदोलनकारी मर चुका है। अब उसका स्थान ‘पुश्तैनी गुलामों’ ने ले लिया है। हर आंदोलन, यहां तक कि हर क्रांति के बाद ऐसा ही होता आया है। कुल जमा यह कि आम आदमी पार्टी भी धीरे-धीरे कांग्रेस और भाजपा की शक्ल लेती जा रही है। इसलिए कहता हूं देश की सत्ता पूरी तरह भ्रष्ट हो चुकी है। प्रश्न उठता है, उठना चाहिए कि ऐसे में हमारा, यानी आम नागरिक का कर्तव्य क्या है? कौन से विकल्प हमारे पास बचे हैं? विकल्प केवल यही है कि विकल्प बनाते रहने का काम निरंतर चलना चाहिए। डॉ ़ राम मनोहर लोहिया का कहना था ‘हिंदुस्तान की सामान्य जनता, मामूली लोग अपने में भरोसा करना शुरू करें कि कल तक जो अंग्रेजी राज था, वह पाजी बन गया तो उसे खत्म किया। आज कांग्रेसी सरकार है, वह पाजी बन गई, उसे खत्म करेंगे। कल मान लें कम्युनिस्ट सरकार बनेगी, वह पाजी हो जाए तो उसे खत्म करेंगे। परसों सोशलिस्ट सरकार बनेगी। मान लो वह पाजी हो जाए तो उसे भी खत्म करेंगे। जिस तरह तवे के ऊपर रोटी उलटते- पलटते सेंक लेते हैं, उसी तरह से हिंदुस्तान की सरकार को उलटते-पलटते ईमानदार बना कर छोड़ेंगे। यह भरोसा किसी तरह हिंदुस्तान की जनता में आए जाए तो फिर रंग आ जाएगा अपनी राजनीति में।’
तस्वीर बदलेगी अवश्य

लोहिया ने साठ के दशक में यह कहा था। साठ बरस बाद उनके कथन को परखिए। अंग्रेज गए, कांग्रेस गई, कम्युनिस्ट भी हाशिए पर हैं, समाजवादी भी। राष्ट्रवादियों को सात बरस तक मौका दे दिया है। अब उनके भी चले जाने का समय है। समय अब नई सोच, नए विचार को मौका देने का आ चुका है। आम आदमी पार्टी नई सोच, नया विचार ही तो 2011 में था। उसे मौका दिया तो कुछ सार्थक नतीजा भी दिल्ली में देखने को मिला है। सरकारी स्कूलों का कायाकल्प हुआ, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ, भ्रष्टाचार में भी कुछ कमी आई है। अब अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षा चलते आप की गाड़ी पटरी से उतरती नजर आने लगी है तो उससे बेहतर सोच वालों को मौका देना होगा। इसके सिवा और कोई रास्ता हाल-फिलहाल तो हमारे सामने है नहीं। देश भर में कुचक्र चल रहे हैं और देश की आत्मा गहरी नींद में है। इस नींद से उसे उठाने के लिए अब समस्त विचारधाराओं को मथ कर नई विचारधारा का निर्माण करना होगा। ऐसी विचारधारा जो नई ऊर्जा, नई सोच और नए दृष्टिकोण को अपने में समाहित किए हो। जिसमें न तो साम्यवाद की संकीर्णता हो, न ही धार्मिक उग्रता हो। जो मानवीय सरोकारों से लबरेज हो। जिसमें कतार में खड़े अंतिम आदमी तक के दुख को समझने की करुणा हो। ऐसी सोच जो अच्छे और बुरे के बीच स्पष्ट दीवार खड़ी कर सके। इस प्रकार की सोच का विकसित होना कठिन जरूर है, असंभव नहीं है। सोच विशाल होगी तो उसका असर थोड़ा-बहुत ही सही जमीन पर अवश्य नजर आएगा। यह असर मामूली नहीं होगा बल्कि बड़े लक्ष्य की तरफ उठा एक सकारात्मक कदम होगा। 75 बरस के भारत मेें सियासत और सियासती लोग बेईमान हो चले हैं। पूरा तंत्र भ्रष्ट और संवेदनहीन हो चला है। इसमें बदलाव केवल और केवल लोगों के जेहन में बदलाव के जरिए लाया जा सकता है। हमें यह भी स्वीकारना होगा कि जुल्म और नाइंसाफी सहते-सहते हम निर्बल और निवीर्य हो चले हैं। महात्मा गांधी आजादी से बहुत पहले ही कांग्रेस को भ्रष्ट करार दे चुके थे। लोहिया से उन्होंने कहा था, ‘कांग्रेसियों के सर्वांगीण पतन पर मुझे आश्चर्य होता है। उनमें चरित्र, दृष्टि और संगठन का सर्वथा अभाव है, और फिर भी वे हमेशा आगे बढ़ते रहते हैं। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि यह कैसे होता है। इसका उत्तर है: आजादी पाने की भूख।’ वर्तमान परिदृश्य में गांधी का यह कथन मुझ सरीखों में विश्वास जिलाए रखने का काम करता है कि धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर छली जा रही जनता में भी अपना भविष्य संवारने की भूख जगेगी जरूर, भले ही उसमें समय अधिक लग जाए। यही वह उम्मीद है जिसके चलते मैं हरेक ऐसे प्रयास को, हरेक ऐसी शख्सियत को, खुले मन से अपना समर्थन देता हूं जो इस दिशा में कुछ करने का प्रयास करते नजर आते हैं। बचपन में, संभवत कक्षा पांच में एक कविता हमारे स्लैबस में थी। आज याद हो आई है। कुछ सार्थक कर गुजरने की चाह रखने वालों के लिए लिखी यह कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितना पैंतीस बरस पहले थी, जब मैंने इसे पढ़ा था-
Drive the nail aright boys/ Hit it on the head/Strike with all your might boys/While the iron is red/ when you have work to do boys/ Do it with a will/ They who reach the top boys/ First must climb the hill/ Standing at the bottom boys/ looking at the sky/ How can you get up boys/ If you Never try/ though you stumble oft boys/ never be down cast/ Try and try again, boys/ You will succeed at cast.
ठीक इस कविता की तर्ज पर हर प्रकार के जुल्म, जुल्मी, अन्याय, अन्यायी, भ्रष्ट, भ्रष्टाचारी के खिलाफ युद्ध अनवरत जारी रखना होगा। समुद्र पार करने की आस लिए किनारे पर बैठे रहने से कुछ होने वाला नहीं। जो बन पड़े, जितना बन पड़े उतना ऐसे किसी भी प्रयास में अपनी आहुति जरूर दें। आज नहीं तो कल तस्वीर अवश्य बदलेगी।