फौज इसी चलते बगावत पर उतर आई। शेख मुजीबुर के परिवार में मात्र एक पुत्री शेख हसीना बची रह पाईं जो इस हत्याकांड के समय घर पर नहीं थी। कालान्तर में वे 21 बरस बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं। इस हत्याकांड ने भारतीय प्रधानमंत्री को खासा प्रभावित करने का काम किया। अब वे अपने छोटे पुत्र संजय गांधी पर पूरी तरह निर्भर रहने लगी थीं। संजय गांधी दिनोंदिन शक्तिशाली हो खुद के लिए राजनीतिक जमीन तलाशने में जुट गए थे। प्रधानमंत्री के 20 सूत्रीय कार्यक्रमों की तर्ज पर संजय गांधी ने अपने पांच सूत्रीय कार्यक्रमों की घोषणा बगैर किसी संवैधानिक पद पर रहते हुए कर डाली। व्यवस्था आपातकाल में इतनी पंगु हो गई थी कि ‘किसी ने भी प्रधानमंत्री के पुत्र द्वारा घोषित कार्यक्रमों को लेकर यह प्रश्न पूछने का साहस नहीं किया कि किस अधिकार के तहत वे ऐसा करने के लिए अधिकृत हैं? उल्टा केंद्र सरकार ने उनके 5 सूत्रीय कार्यक्रमों को व्यापाक प्रचारित करने के लिए आठ लाख रुपए खर्च कर डाले।’
इन पांच सूत्रीय कार्यक्रमों में वयस्क शिक्षा का विस्तार, दहेज समस्या की रोकथाम, जातीय व्यवस्था को समाप्त करना, स्वच्छता (झुग्गी झोपड़ियों को हटाया जाना) और परिवार नियोजन कार्यक्रम शामिल थे। अपने इन महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों को लागू करवाने के लिए आतुर संजय गांधी ने पूरी सरकारी मशीनरी को इसमें झोंक दिया। संजय की ताकत और सत्तातंत्र की कमान इस दौरान पूरी तरह उनके शिकंजे में आ जाने के कई प्रमाण देखने को मिलते हैं। इंदिरा गांधी के सबसे विश्वस्त और करीबी सहयोगी पीएन हक्सर को संजय सख्त नापसंद करते थे। हक्सर भी समय-समय पर प्रधानमंत्री को उनके पुत्र की कारगुजारियों से अवगत कराते रहते थे। मारुति परियोजना चलते 1970 में केंद्र सरकार की खासी किरकिरी होने लगी थी। हक्सर ने तब प्रधानमंत्री को सलाह दी थी कि वे संजय को दिल्ली से कहीं दूर भेज दें, यूरोप अथवा कश्मीर ताकि राजधानी के राजनीतिक माहौल को ठंडा किया जा सके।’
संजय हक्सर से निजी खुन्नस रखते थे। 10 जुलाई, 1974 को संजय के इशारे पर हक्सर के पारिवारिक व्यावसायिक प्रतिष्ठान पर आयकर विभाग द्वारा छापेमारी की गई। इस प्रतिष्ठान के मालिक हक्सर के 84 वर्षीय चाचा और 75 वर्षीय एक अन्य रिश्तेदार थे। इस छापेमारी के बाद दोनों बुजुर्गों को इस आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया कि उनके यहां बिकने वाली वस्तुओं में मूल्य के टैग में बिक्री मूल्य सही तरीके से नहीं छापा गया है। यह निश्चित ही एक मामूली-सी बात थी जिसके लिए हक्सर के रिश्तेदारों को नाहक प्रताड़ित किया गया था। जब प्रधानमंत्री तक यह समाचार पहुंचा तो वे हतप्रभ रह गईं। उनके हस्तक्षेप बाद दोनों बुजुर्गों की रिहाई हो पाई थी। अगस्त, 1975 में संजय गांधी द्वारा एक पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार ने प्रधानमंत्री के समक्ष बड़ा संकट खड़ा कर दिया। इंदिरा गांधी की जीवनीकार उमा वासुदेव संग बातचीत में संजय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को गलत कदम करार दे डाला। उन्होंने उदारीकरण का समर्थन करते हुए सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों को बंद करने और निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिए जाने पर जोर दिया। उनके विचार प्रधानमंत्री की घोषित नीतियों से ठीक उलट थे। संजय ने इस साक्षात्कार के दौरान कांग्रेस और प्रधानमंत्री के समर्थन में रहे वामपंथी दलों की बाबत विवादित बयान दे इंदिरा सरकार को बैकफुट पर ला खड़ा किया। उन्होंने उमा वासुदेव से कहा-‘यदि आप कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं, यहां तक कि बहुत बड़े नेता भी नहीं, तो मुझे नहीं लगता कि आप इनसे अधिक अमीर और भ्रष्ट नेता कहीं और पाएंगे।’
उनके इस बयान को नब्बे अमेरिकी और ब्रिटिश समाचार पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित कर वामपंथी खेमे की नाराजगी को चरम पर पहुंचा डाला। इंदिरा संजय गांधी के इस बयान से किस कदर आहत और परेशान हुई थी इसे उनके हस्तलिखित एक नोट से समझा जा सकता है जो उन्होंने अपने प्रमुख सचिव पीएन धर को इस हिदायत के साथ लिखा था कि हर हालत में संजय के इस बयान का खंडन कर वामदलों की नाराजगी को थामा जाए, समस्याएं कभी समाप्त नहीं होती हैं। संजय ने कम्युनस्टिों को लेकर एक बेहद ही बेहूदा बयान दिया है। मुझे इस इंटरव्यू के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और न ही मैंने इसे पढ़ा है। आज के सांध्य समाचारों की सुर्खियों ने मुझे हथौड़े की तरह मारा है। एक बेहद महत्वपूर्ण और नाजुक समय में हमने न केवल उन्हें आहत किया है (वामपंथी दल सीपीएम) जिन्होंने हमारी मदद की है और जो देश भीतर हमारा समर्थन कर रहे हैं, बल्कि पूरे समाजवादी खेमे संग गंभीर समस्या पैदा कर दी है… मैं बहुत चिंतित हूं-बहुत बरसों के बाद ऐसा हुआ है जब मैं बेहद परेशान हूं। हम सोवियत संघ और अन्य को कैसे समझाएं? …क्या मैं खुद एक बयान दूं? या फिर संजय से ऐसा करने के लिए कहा जाए-वह नहीं मानेगा यह मैं जानती हूं। मैं इस समय पगलाई हुई हूं। क्या आप कुछ कर सकते हैं? हमारे पास वक्त बिल्कुल नहीं है। हालांकि संजय गांधी ने दबाव में आकर अपने कथन का खंडन करते हुए वामपंथी दलों को गरीबों का हमदर्द कहा जरूर लेकिन वे समय-समय पर विवादित बयान दे अपनी ताकत का एहसास कराते रहे। प्रेस पर अंकुश और अत्याचार इस दौर में अपने चरम पर जा पहुंचा था। बहुत से समाचार पत्र और पत्रिकाएं जिनमें निखिल चक्रवर्ती के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका ‘मेन स्ट्रीम’ और रोमेश थापर की ‘सेमिनार’ ने अपना प्रकाशन बंद करना उचित समझा था तो वहीं अधिकतर सम्पादक और समाचार पत्रों के मालिकों ने इंदिरा-संजय के समक्ष पूरी तरह समर्पण कर उनका स्तुतिगान करने की राह पकड़ ली थी। ख्याति प्राप्त पत्रकार-लेखक खुशवंत सिंह तब अंग्रेजी पत्रिका ‘विकली’ के सम्पादक हुआ करते थे। वे सबसे बड़े संजय भक्त बन उभरे। संजय उनकी निगाहों में ‘काम को अंजाम तक पहुंचाने वाले’
(Indian fo the year), ‘वर्ष के भारतीय’ (The man who gets things done) थे। खुशवंत सिंह ने अपनी पत्रिका में संजय गांधी और उनकी पत्नी मेनका गांधी की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए थे। खुशवंत की नजरों में-‘उनके पास संकल्प है, न्यायप्रियता है, जोखिम उठाने की क्षमता है और वह पूरी तरह भय रहित व्यक्ति हैं। संजय ने राजनीतिक नेतृत्व में एक नया आयाम जोड़ा है, किसी भी प्रकार के संदिग्ध चरित्र वाले लोगों और चाटुकारों से उनका कोई संबंध नहीं है। वे शराब नहीं पीते हैं और सादगी से जीवन व्यतीत करते हैं। उनके शब्द मात्र गर्म शब्द नहीं, बल्कि एक्शन से भरपूर शब्द होते हैं।’
संजय का राजनीतिक रसूख कांग्रेस नेताओं, केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के आचरण से समझा जा सकता है। आपातकाल लागू होने के बाद संजय की सलाह पर इंदिरा गांधी ने अपने रक्षामंत्री जगजीवन राम के स्थान पर बंसीलाल को केंद्र में बुला रक्षा मंत्रालय सौंप दिया था। बकौल रामचंद्र गुहा बंसीलाल ने नौसेना अध्यक्ष पद की नियुक्ति तक की प्रक्रिया को तार-तार करते हुए दो वरिष्ठतम एडमिरल की भेंट संजय से कराई थी ताकि संजय तय कर सकें कि किसे नया नौसेना अध्यक्ष बनाना चाहिए। चाटुकारिता इस चरम पर जा पहुंची थी कि एक दफा उत्तर प्रदेश दौरे पर गए प्रधानमंत्री के पुत्र की चप्पलें तक उठाने का काम प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने कर दिखाया था।
संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों में दो कार्यक्रम बेहद विवादित, उनके क्रियान्वयन के तरीकों चलते इस दौरान हुए थे। इनमें से सबसे विवादित जनसंख्या नियंत्रण के उद्देश्य से शुरू किया गया नसबंदी अभियान था। आजादी के शुरुआती काल से ही जनसंख्या नियंत्रण को लेकर सरकारी एवं गैरसरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने लगे थे। अन्न संकट से त्रस्त देश में लेकिन बड़े परिवार होने की परम्परा सदियों से रहती आई थी जिसको बदल पाना एकदम से संभव नहीं था। 1922 में भारत में जन्म दर 48.1 प्रतिशत प्रति हजार व्यक्ति थी तो मृत्यु दर 47.2 प्रतिशत। आजादी पश्चात् स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि का एक बड़ा असर मृत्यु दर में भारी गिरावट रहा जो सत्तर के उत्तरार्ध में घटकर 17.4 प्रतिशत प्रति हजार व्यक्ति रह गया था। नतीजा जनसंख्या में बढ़ोतरी के रूप में सामने आया जो 1.20 करोड़ प्रतिवर्ष की रफ्तार से बढ़ रही थी। साठ के शुरुआती काल से ही बडे़ स्तर पर परिवार नियोजन को लेकर जागरूकता अभियान चलाने की मुहिम शुरू की गई।
महिलाओं को ग्रामीण भारत में मुफ्त में गर्भ निरोधक गोलियां दी जाने लगी थी। साथ ही पुरुषों के लिए मुफ्त कंडोम बांटे जाने लगे। सरकार के इन प्रयासों को लेकिन सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिली। भारतीय पुरुषों की दृष्टि में कंडोम (निरोध) का उपयोग उनकी मर्दानी ताकत को कम करने वाला था तो महिलाओं के मन में यह भय बैठ गया कि गर्भ निरोधक गोलियों का इस्तेमाल उनकी मां बनने की क्षमता को समाप्त कर देता है। 1952 में केंद्र सरकार द्वारा परिवार नियोजन को बढ़ावा देने के लिए बकायदा एक नारा गढ़ा गया ‘हम दो-हमारे दो’। यह नारा और विभिन्न सरकारी कार्यक्रम और प्रयास लेकिन जनसंख्या नियंत्रण को सफल न बना सके थे। 1951 में ख्याति प्राप्त जनसांख्यिकीकार (डेमोग्राफर) आरएस गोपालास्वामी ने अपनी एक रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी जिसमें सर्वप्रथम नसबंदी के जरिए इस जनसंख्या विस्फोट को रोके जाने की सलाह केंद्र सरकार को दी गई थी। गोपालास्वामी का मानना था कि एक छोटे से ऑपरेशन के जरिए इस समस्या को काबू में किया जाना सबसे सरल उपाय है लेकिन वे भारतीय समाज में नसबंदी को लेकर व्याप्त भ्रम, डर और सामाजिक शर्म को न समझने की भूल कर बैठे। नसबंदी को लेकर सर्वत्र यह भ्रम था कि इससे पुरुष की मर्दानगी (यौन क्षमता) समाप्त हो जाती है, ऑपरेशन के दौरान मृत्यु होने का खतरा होता है और आयु कम हो जाती है। इन भ्रमों के चलते स्वइच्छा से नसबंदी के लिए पुरुषों को तैयार कर पाना संभव नहीं था। भारत की तीव्र गति से बढ़ रही जनसंख्या से चिंतित अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने 1965 में गंभीर अन्न संकट से जूझ रहे भारत को खाद्य मदद पहुंचाने की एवज में यह शर्त रखी थी कि ‘भारत सरकार नसबंदी अभियान को युद्ध स्तर पर लागू करे। वर्ल्ड बैंक, स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट अथॉरिटी और संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी भारत सरकार को आर्थिक मदद दिए जाने को जनसंख्या नियंत्रण सुधारों संग जोड़ दिया था।’
संजय गांधी ने जनसंख्या विस्फोट की समस्या को अपने पांच सूत्रीय कार्यक्रम का हिस्सा बना नई गति दे डाली। निश्चय ही प्रधानमंत्री के पुत्र की मंशा और उद्देश्य देशहित में था लेकिन उसको पाने का तरीका हर दृष्टि से प्रतिगामी और अलोकतांत्रिक था जिसका बड़ा खामियाजा जबरन नसबंदी कराए जाने के रूप में सामने आया। पत्रकार विनोद मेहता संजय गांधी की समझ और मंशा पर प्रश्न उठाते हुए कहते हैं-‘संजय की अपने देश की बाबत जानकारी सतही थी, उन्होंने देश का भ्रमण नहीं किया था और उनके एक मित्र के अनुसार कभी एक गांव तक नहीं देखा था।’
1975 में इंदिरा सरकार अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों के भारी दबाव में थी। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम को ज्यादा प्रभावशाली बनाने पर जोर देने लगा था। निरोध और गर्भ निरोधक गोलियों के जरिए इस समस्या का समाधान तलाश पाने में विफल रहने के बाद अब नसबंदी ही एकमात्र प्रभावी उपाय बचा था। अप्रैल, 1976 में केंद्र सरकार ने नई ‘राष्ट्रीय जनसंख्या नीति’ लागू कर कम बच्चों (अधिकतम तीन) वाले परिवारों को सरकारी सहायता, सस्ती कीमत पर घर, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं इत्यादि दिए जाने का एलान किया। साथ ही नसबंदी अभियान में तेजी लाने के प्रयास शुरू किए गए। संजय गांधी तत्काल नतीजों पर भरोसा करते थे। उन्होंने बगैर स्वास्थ्य मंत्री को विश्वास में लिए युवा कांग्रेस के अपने विश्वस्तों को नसबंदी अभियान का हिस्सा बना जबरन नसबंदी कराए जाने की मुहिम छेड़ दी। ‘संजय ब्रिगेड’ के कार्यकर्ताओं को रोकने वाला कोई था नहीं। पुलिस और प्रशासन की मदद से इस अभियान को चलाया जाने लगा।