इस अखबार के पाठकों और मेरे अधिकांश मित्रों की एक शिकायत हमेशा से रही है कि हमारा फोकस हमेशा नकारात्मक समाचारों पर ही रहता है। सरकारों के घोटालों को तो हम प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं लेकिन उनके अच्छे कामों पर हमारी चुप्पी बनी रहती है। अपने ऐसे शुभेच्छुओं की राय पर मैंने यदा-कदा अमल करने का प्रयास भी किया। हमारी कोशिश लगातार रही है कि हम ऐसे समाचारों को सामने ला सकें जो सकारात्मकता की ऊर्जा स्वयं में समेटे हुए हों। यह भी प्रयास हम पूरी सद्इच्छा से करते हैं कि हमारे समाचारों में निजी राग-द्वेष, मित्रता अथवा लाभ-हानि का प्रभाव न पड़े। इस सबके बावजूद समय-समय पर हमारी नीयत पर शक लगातार किया जाता रहा है। यह स्वाभाविक भी है। जिस प्रकार के समय और समाज में हम रह रहे हैं, वहां ऐसा होना तय है। योगगुरु और आज के सफल उद्योगपति रामदेव की संस्था ‘पतंजलि’ में मजदूरों के शोषण का समाचार हो या फिर आचार्य बालकृष्ण की नागरिकता का प्रश्न हो, चाहे ऋषिकेश स्थित सिटुरजिया कंपनी की बहुमूल्य जमीन का प्रकरण हो, अवैध खनन पर हमारी खोजी रपटें, गिरधारी लाल साहू के काले कारनामों का भंडाफोड़ आदि, हम पर लगातार निगेटिव रिपोर्टिंग और ब्लैकमेलर होने के आरोप लगते आए हैं। समस्या यह है कि जब चारों तरफ घना कुहासा छाया हो तब सकारात्मकता कहां से तलाशें। विशेषकर सरकारी तंत्र में तो हालात इतने खराब हो चले हैं कि बहुत खोज करने पर भी कुछ उल्लेखनीय हाथ नहीं लगता। ऐसे हालात में यदि कुछ भी ठीक-ठाक सा होते नजर आता है तो उसके सहारे ही आस के दीपक को जलाने का प्रयास तो किया ही जा सकता है ताकि अपने लोकतंत्र पर तेजी से दरक रहा विश्वास थोड़ा कायम रखा जा सके।
तो चलिए उत्तराखण्ड की वर्तमान त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के भ्रष्टाचार विरोधी जीरो टॉलरेंस नीति पर कुछ मंथन किया जाए। सरकार के ताजा कुछ कदमों की चर्चा की जाए जिससे थोड़ी आस बंधी है कि हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि भ्रष्टाचार के दलदल में गले तक धंसे चुके सिस्टम को सुधारने का कुछ तो प्रयास कर रहे हैं। मैं त्रिवेंद्र सरकार के हालिया दो कदमों की बात कर रहा हूं। पहला है नेशनल हाइवे 74 के चौड़ीकरण में हुए खरबों के भूमि घोटाले में दो आईएएस अफसरों का निलंबन और दूसरा मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण के कामकाज का विस्तृत ऑडिट कराया जाना है। एन-74 घोटाला अपने आप में जीता-जागता प्रमाण है कि किस प्रकार राज्य सरकार के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों, राजनेताओं राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण प्राधिकरण और भूमाफियाओं के गठजोड़ ने न केवल कृषि उपयोग की भूमि का फर्जी तरीकों से भू उपयोग बदल उसे अकृषक घोषित किया ताकि भू-मालिकों को बढ़ी दर पर जमीन का मुआवजा मिल सके। हद तो यह कि इस गठजोड़ ने बड़े स्तर पर सरकारी जमीन की भी बंदरबांट इस खेल में कर डाली। जब से यह घोटाला उजागर हुआ, हम लगातार ऐसे बड़े नापाक गठजोड़ की तरफ इशारा करते आए हैं। जब हमने रुद्रपुर की एक महिला बिल्डर प्रिया शर्मा से संबंधित मामलों की तह में जानना शुरू किया तभी यह बात हमारे सामने स्पष्ट हो चली थी कि प्रिया शर्मा मात्र एक छोटा प्यादा है जिसके सहारे कुछ कथित बड़े लोग अपनी बिसात बिछा इस खेल को चला रहे हैं। प्रिया शर्मा के खिलाफ जिस तेजी से रुद्रपुर पुलिस ने आपराधिक मामले दर्ज करने शुरू किए, वह तेजी हमें खटकी, क्योंकि यह वही पुलिस है जिसने उत्तर प्रदेश के घोषित हिस्ट्रीशीटर गिरधारी लाल साहू द्वारा ठगे गए जनपदवासियों की शिकायत पर कोई कार्यवाही करना उचित नहीं समझा। गिरधारी लाल साहू जो वर्तमान त्रिवेंद्र रावत सरकार की एक मंत्री का पति है। अपनी बदकारी और बदनीयत के बावजूद रुद्रपुर की पुलिस को कभी खटका नहीं, दूसरी तरफ राज्य के मंत्रियों, मुख्यमंत्री और मीडिया की आंखों का तारा रही एक महिला उधमी पर पुलिस का कहर टूट पड़ा। देव भूमि पुलिस की इसी सक्रियता के चलते हम मामले को खंगालने बैठे तो स्पष्ट हो गया कि प्रिया शर्मा को आगे कर इस जांच की दिशा को बदलने का खेल हो रहा है। एनएच-74 घोटाले को समझना कोई टेढ़ी खीर नहीं है। न ही इस घोटाले के असली खिलाड़ियों को बेनकाब करना, यदि जांच ईमानदारी और बगैर किसी दबाव के हो। पूरे मामले में एनएच प्राधिकरण, रुद्रपुर के जिलाधिकारी, एडीएम, एसडीएम, भूमि अध्यिप्ति अधिकारी, निश्चित तौर पर कुछ स्थानीय शक्तिशाली राजनेता और बिचौलिये शामिल हैं। राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपनी सद्नीयत का परिचय देते हुए इस घोटाले की जांच सीबीआई से कराने का प्रयास किया लेकिन केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के कड़े विरोध के चलते वह ऐसा न करा सके। इस घोटाले की जांच के लिए एक एसआईटी यानी स्पेशल इन्वेस्टिगेटिव टीम का गठन पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री हरीश रावत कर गए थे। वहीं एसआईटी पूरे मामले की जांच कर रही है। शुरुआती दौर में ऐसे संकेत मिल रहे थे कि चंद पीएसीएस सेवा के अफसरों और कुछ बिचौलियों को बलि का बकरा बना जांच की खानापूर्ति हो जाएगी। अब लेकिन विश्वास थोड़ा सा जमा है त्रिवेंद्र रावत की जीरो टॉलरेंस नीति पर जब दो आईएसएस अफसरों का निलंबन आदेश सरकार ने जारी किया। मैंने इस आदेश को गौर से पढ़ा तो एसआईटी की जांच को सराहने की इच्छा हुई। इस आदेश में स्पष्ट लिखा गया है कि इन दो अफसरों ने ऊधमसिंह नगर जनपद का जिलाधिकारी रहते सरकारी भूमि को निजी भूमि दर्शाने, अवैध कब्जेदारों को करोड़ों का मुआवजा देने का काम किया है। स्पष्ट है पंकज कुमार पाण्डेय और चंद्रेश यादव की इस पूरे घोटाले में सहभागिता के प्रमाण सरकार को इस एसआईटी जांच के चलते मिल चुके हैं। त्रिवेंद्र सिंह रावत पर निश्चित ही राज्य के नौकरशाहों का भारी दबाव रहा होगा। उन्हें आला नौकरशाहों ने सलाह अवश्य दी होगी कि आईएएस अफसरों का निलंबन करने पर अफसरशाही का मनोबल गिरेगा, उनके निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होगी, इत्यादि। इस सबके बावजूद मुख्यमंत्री का कड़ा रुख बना रहा तो निश्चित ही वे साधुवाद के पात्र हैं। इस पूरे प्रकरण में एक बात और उभर रही है जो किसी बड़े खेल की तरफ इशारा करती है। बहुत संभव है कि इस जांच के घेरे में राज्य के एक बड़े राजनेता का नाम भी भविष्य में सामने आए। साथ ही राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के प्रोजेक्ट डायरेक्टर की भूमिका पर भी शायद यह जांच रिपोर्ट कुछ प्रकाश डाल सके। यदि ऐसा होता है तो बहुत संभव है कि मामला राज्य के किसी बड़े राजनेता से आगे बढ़ केंद्र के बड़े नेता तक पहुंच जाए। हालांकि इसकी संभावना कम है, क्योंकि यदि ऐसा होगा तो इसके राजनीतिक निहितार्थ सत्तारूढ़ दल के लिए बड़े संकट का कारण भी बन सकते हैं। राज्य सरकार का एक अन्य निर्णय देहरादून-मसूरी विकास प्राधिकरण के पिछले पांच सालों की ऑडिट कराए जाने का है। इससे भी राज्य की नौकरशाही खफा और भयभीत बताई जा रही है। समाचार मिल रहे हैं कि राज्य के आईएएस अफसरों ने अब निर्णय न लेने की नीति पर अमल करना शुरू कर दिया है। एक प्रकार का दबाव राज्य सरकार पर बनाया जा रहा है ताकि सरकार भ्रष्ट अफसरों को चिन्ह करने, उन्हें दंडित करने की अपनी मुहिम को रोक दे।
उत्तराखण्ड की नौकरशाही पूरी तरह बेलगाम और भ्रष्ट है। यह मेरा कथन नहीं, बल्कि निशंक सरकार के दौरान हुए सिटुरजिया भूमि घोटाले में दायर हमारी जनहित याचिका पर कोर्ट की टिप्पणी है। उच्च न्यायालय नैनीताल ने हमारी याचिका पर दिए अपने आदेश में अरबों की बहुमूल्य जमीन को राज्य सरकार में निहित करने का फैसला सुनाते हुए राज्य की नौकरशाही पर कठोर टिप्पणी की थी। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बारेन घोष ने अपने निर्णय ने लिखा “The manner in which the matter has been dealt with by the officers of the State, including the mis-representations made to the Hon’ble CM, appears to us, is fraudulent, mischievous and contrary to the interest of the people of the State.”
कुल मिलाकर डेढ़ बरस की त्रिवेंद्र रावत सरकार के इन दो निर्णयों की मैं खुलेमन से सराहना करता हूं। हालांकि इन डेढ़ वर्षों में हमें यह सरकार हर मोर्चे पर मात खाती नजर आई है और मुख्यमंत्री नौकरशाहों के एक समूह के चंगुल में फंसे नजर आते हैं। सरकार जनता के प्रति संवेदनहीन प्रतीत होती है। प्रचंड बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री का इस प्रकार असहाय, असंवेदनशील और अनिर्णय की स्थिति में दिखना स्वयं उनके लिए और उनकी सरकार के लिए गलत संदेश देता है। अब लेकिन उनके ये दो निर्णय न केवल त्रिवेंद्र रावत की छवि को निखारने, बल्कि जनता के मन में तंत्र के प्रति विश्वास कायम करने का काम करेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि त्रिवेंद्र रावत बेनामी संपत्तियों के जिन मामलों को हम सामने लाए थे, उन पर भी एक विशेष जांच दल बना दूध का दूध, पानी का पानी करने का निर्णय लेंगे।