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Editorial

‘वह बित्ते भर की छोकरी’

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-71

डॉ . बी .आर. अंबेडकर और नेहरू के खिलाफ ‘हिंदू कोड बिल’ को लेकर सड़कों पर उतरने वाले करपात्री जी महाराज एक बार फिर से नए मुद्दे को लेकर आंदोलनरत थे। इस बार उनका आंदोलन गौमांस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने को लेकर था। 6 नवंबर 1966 को करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में लगभग एक लाख साधु-संत दिल्ली की सड़कों पर उतर आए। हाथों में ‘त्रिशूल’ लिए इन साधुओं की एक बड़ी सभा को करपात्री महाराज और जनसंघ नेता संसद सदस्य स्वामी कमेश्वरानंद ने सम्बोधित करते हुए संसद को घेरने का आह्नान कर डाला। जनसंघ नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी इस सभा में मौजूद थे। उन्होंने करपात्री महाराज से अपील कर आग्रह किया कि संसद को घेरने का विचार त्याग दें लेकिन उनकी अपील बेअसर रही। साधुओं की अनियंत्रित भीड़ संसद बाहर एकत्रित होने लगी। पुलिस ने पहले तो लाठी चार्ज और आंसू गैस के गोले छोड़ भीड़ को तितर-बितर करने का प्रयास किया। हालात लेकिन काबू से बाहर हो गए। भीड़ ने कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज के घर को आग के हवाले कर दिया और लगभग 400 वाहनां को पूरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया गया। हालात इतने बिगड़े कि पुलिस को गोली चलानी पड़ी थी जिसमें 6 लोगों की मृत्यु हो गई। इंदिरा गांधी ने इस घटना का राजनीतिक लाभ लेते हुए ‘सिंडिकेट’ के वरिष्ठ सदस्य और तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसी दौरान पंजाब के सिखों को बड़ी राहत देते हुए हिन्दी भाषी इलाकों को अलग कर एक नए राज्य हरियाणा का गठन 1 नवम्बर, 1966 को केन्द्र सरकार ने किया। पंजाब का सिख समुदाय लम्बे अर्से से अलग प्रांत बनाए जाने की मांग कर रहा था। अविभाजित पंजाब में आजादी के समय 65 प्रतिशत जनसंख्या सिखों की थी जो बिहार और केरल से आने वाले श्रमिकों के चलते निरंतर घटने लगी थी। कांग्रेस सिंडिकेट और प्रधानमंत्री के मध्य इस दौरान तनाव चरम पर पहुंच चुका था। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने वाले के. कामराज अब मोरारजी देसाई के संग मिलकर आम चुनाव बाद इंदिरा को दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बनने देने की रणनीति बनाने में जुट गए। पार्टी प्रत्याशियों के चयन में इंदिरा की नहीं सुनी गई। इंदिरा लेकिन हार मानने वालों में नहीं थीं। उन्होंने देश भर का धुआंधार दौरा कर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने की मुहिम छेड़  दी। उड़ीसा के भुवनेश्वर में एक चुनावी सभा को सम्बोधित करते समय भीड़ ने उन पर पत्थर फेंके जिस चलते उनकी नाक की हड्डी टूट गई। वे लेकिन घबराई नहीं। नाक से बहते खून से बेपरवाह इंदिरा ने पत्थरबाजों से कहा -‘यह मेरा नहीं बल्कि देश का अपमान है क्योंकि मैं बतौर प्रधानमंत्री देश का प्रतिनिधित्व कर रही हूं।’ फरवरी, 1967 में हुए चौथे आम चुनावों का नतीजा कांग्रेस के लिए सुखद नहीं रहा। लोकसभा में उसकी सदस्य संख्या 369 से घटकर मात्र 285 रह गई। हालांकि वे स्वयं उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से अपना पहला चुनाव भारी मतों से जीतने में सफल रहीं। सात राज्यों-केरल, मद्रास, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में  विधानसभा के नतीजे कांग्रेस के खिलाफ रहे। ब्रिटेन के अखबार ‘द टाइम्स’ ने चुनाव नतीजों की बाबत प्रकाशित समाचार का तब शीर्षक दिया था-‘टूटी नाक के बाद अब चेहरे पर थप्पड़’। (After the broken nose, a slap in the face.) सिंडिकेट के लिए तो इन चुनावों के नतीजे विशेष रूप से खराब रहे। कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज को मद्रास सीट पर एक अनजाने युवक ने डीएमके के टिकट पर चुनाव लड़ पराजित कर दिया। सिंडिकेट के कई अन्य बड़े नेता, बॉम्बे में एस.के. पाटिल, बंगाल में अतुल्य घोष और उड़ीसा में बीजू पटनायक भी चुनाव हारे। इन बड़े नेताओं की हार का अप्रत्यक्ष लाभ इंदिरा को मिला। कांग्रेस अध्यक्ष कामराज ने अब पार्टी में एकता बनाए रखने को अपना लक्ष्य बना इंदिरा और मोरारजी के मध्य सुलह कराने की मुहिम शुरू कर दी। मोरारजी देसाई कांग्रेस संसदीय दल के नेता पद का चयन चुनाव के जरिए कराना चाहते थे। उन्होंने स्वयं की उम्मीदवारी भी घोषित कर दी लेकिन कामराज और अन्य नेताओं की मध्यस्थता बाद आखिरकार इंदिरा को ही दोबारा संसदीय दल का नेता चुन लिया गया। मोरारजी देसाई को उपप्रधानमंत्री और वित्त मंत्री पद नई सरकार में दिया गया था। मोरारजी देसाई संग इंदिरा के संबंध हमेशा अविश्वास और तनावपूर्ण रहे। मोरारजी देसाई ने नेहरू से उत्तराधिकारी की तलाश के दौरान इंदिरा के लिए कहा था ‘वह बित्ते भर की लड़की।’ अब उसी बित्ते भर की लड़की के अधीन काम करना देसाई को बेहद अपमानजनक लगने लगा था। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से देसाई ने शिकायती भरे लहजे में कहा था। ‘छोकरी सुनती नहीं है।’ एक तरफ इंदिरा गांधी की ‘सिंडिकेट’ संग टकराव लगातार बढ़ने लगा था तो दूसरी तरफ उनका अमेरिका संग तेजी से मोहभंग उन्हें साम्यवादी नीतियों की तरफ ले जाने लगा था। मई, 1967 में उन्होंने अपनी सरकार के 10 सूत्री कार्यक्रम को सार्वजनिक करते हुए निजी क्षेत्र के बैंकां पर सरकारी नियंत्रण मजबूत करने, बीमा क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण करने, आवश्यकता से अधिक अचल सम्पत्ति पर रोक लगाने खाद्य निर्यात पर सरकारी नियन्त्रण बढ़ाने और राजे-रजवाड़ों को दिए जाने वाली विशेष आर्थिक सहायता ‘प्रिवी पर्स’ को समाप्त किए जाने की बात कह डाली। इस घोषणा ने स्पष्ट संकेत देने का काम किया कि अब इंदिरा अपने पिता के पदचिन्हों पर चल पड़ी हैं। खाद्य संकट अभी टला नहीं था और अमेरिकी सरकार इस संकट का राजनीतिक लाभ लेने के उद्देश्य से समय पर यथोचित सहायता जान-बूझकर नहीं भेज रहा था। इंदिरा गांधी ने इसका जवाब कृषि क्षेत्र में भारी सुधार कर भारत को आत्मनिर्भर बनाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया। हालांकि भारत को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की कवायद नेहरूकाल में ही शुरू हो चुकी थी और शास्त्री के प्रधानमंत्रित्वकाल में भी इस पर खासा काम जारी रहा था, इंदिरा गांधी ने अपने अमेरिकी अनुभव से सबक लेकर इस मिशन को युद्ध स्तर पर शुरू कर डाला। उनकी सरकार में कृषि मंत्री सी ़ सुब्रमण्यम ने भारतीय किसानों को उन्नत कृषि तकनीक, संकर बीज (हाइब्रिड बीज) और सुलभ सिंचाई व्यवस्था उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नतीजा कुछ ही वर्षों में सफल ‘हरित क्रांति’ के रूप में सामने आया और भारत खाद्यान्न के क्षेत्र में पूरी तरह आत्मनिर्भर राष्ट्र बन गया। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में इस ‘हरित क्रांति’ को गिना जाता है।

कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी इंदिरा के दोबारा प्रधानमंत्री बनने बाद तेजी से उभरने लगी थी। 1967-68 में एक तरफ संगठन मध्य अंतर्विरोधों का इंदिरा सामना कर रही थीं तो दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में वर्ग संघर्ष हिंसक हो केंद्र सरकार के समक्ष नई चुनौती बन उभरने लगा था। पश्चिम बंगाल में इस हिंसक और सशस्त्र संघर्ष का केंद्र दार्जिलिंग जिले की सिलीगुड़ी तहसील का नक्सलबाड़ी ब्लॉक था जहां बड़े जमींदारों के उत्पीड़न से त्रस्त किसानों और मजदूरों ने उनके खिलाफ एकजुट हो हथियारबंद संघर्ष की राह पकड़नी 1965 से ही शुरू कर दी थी। नक्सलबाड़ी क्षेत्र की पश्चिमी सीमा नेपाल से सटी है, पूर्व में पाकिस्तानी सीमा इससे मिलती है। यहां बड़े जमींदारों के पास हजारों एकड़ चाय बगान हैं जिनमें खेतिहर मजदूर बेहद कम मजदूरी में जीवन-यापन करने को विवश दशकों से रहते आए थे। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीएम) के नेता कानू सान्याल ने यहां के कामगारों को एकजुट कर ‘कृषक समिति’ नाम से एक संगठन की नींव रखी थी। सान्याल का कम्युनिस्ट पार्टी से मोहभंग होने लगा था। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार के गठन बाद सान्याल ने ‘कृषक समिति’ के जरिए नक्सलबाड़ी इलाके में बड़े जमींदारों के खिलाफ जनआंदोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन जल्द ही हिंसक हो गया। 1967 में हुए चुनाव में कांग्रेस को पहली बार पश्चिम बंगाल में सत्ता से बाहर होना पड़ा था। कभी कांग्रेस के नेता रहे अजॉय मुखर्जी की बंगाल कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव को वामपंथी दलों के साथ गठबंधन कर लड़ा था। इस गठबंधन की ही सरकार ने अजॉय मुखर्जी के नेतृत्व में 2 मार्च, 1967 को शपथ ली थी। सीपीएम नेता ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे। सान्याल और उनके साथियों का मानना था कि वामपंथियों के सहारे बनी सरकार उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलन को समर्थन देगी। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। ‘कृषक समिति’ ने जमींदारों की जमीन पर कब्जा करने और उनकी सम्पत्तियों को लूटना शुरू कर दिया। इससे पूरे क्षेत्र में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई। वामपंथी नेता और सरकार में गृहमंत्री ज्योति बसु ने पहले तो कानू सान्याल एवं उनके साथियों को पार्टी के माध्यम से समझाने का प्रयास किया लेकिन हालात काबू में न आता देख उन्होंने पश्चिम बंगाल पुलिस को सख्त कार्रवाई के निर्देश दे दिए। 23 मई, 1967 को तब हालात बेहद विस्फोटक हो गए जब सान्याल समर्थकों ने झारुगांव में एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या कर दी। अपने अधिकारी की मौत से तिलमिलाई पुलिस ने जवाबी कार्रवाई में नौ महिलाओं और बच्चों को मार डाला। इसके बाद तो हालात पूरी तरह से काबू से बाहर हो गए। नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन देश के अन्य राज्यों में भी फैलने लगा। कानू सान्याल रातोंरात एक ‘क्रान्तिकारी हीरो’ का दर्जा पा गए। चीन ने तत्काल ही इस विद्रोह को अपना समर्थन दिए जाने का ऐलान कर दिया। 5 जुलाई 1967 को चीन के सरकारी समाचार पत्र ‘पीपुल्स डेली’ ने इस मुद्दे पर अपनी राय प्रकट करते हुए लिखा- A peal of spring thunder has crashed over the land of india. revolutionary peasents in darjeeling area have risen to rebillion. under the leadership of a revolutionary group of the indian communist party, a red area of revolutionary armed struggle has been established in india… the chinese people joyfully applaud this revolutionary storm of the indian peasents in the darjeeling area as do all the marxist-leninists and the revolutionary people of the world.’ (भारत की भूमि में बसंत ऋतु की गड़गड़ाहट छा गई है। दार्जिलिंग इलाके के क्रांतिकारी किसानों ने विद्रोह कर दिया है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक क्रांतिकारी समूह के नेतृत्व में भारत में एक लाल गलियारा सशस्त्र क्रांति के लिए स्थापित हो चुका है। …. चीन की जनता बेहद खुशी के साथ भारतीय किसानों के इस क्रांतिकारी तूफान की सराहना करती है और मार्क्सवादी-लेनिनवादी एवं विश्व के सभी अन्य क्रांतिकारी लोग भी इसका स्वागत करते हैं)।

क्रमशः 

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