वक्त के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है। हमारी उम्र बढ़ती है, चेहरा बदल जाता है, ऊर्जा कम होने लगती है, अमूमन नहीं बदलती है तो व्यक्ति की सोच, उसके विचार। मैंने अमूमन कहा क्योंकि ऐसा भी होता है कि वक्त के साथ, वक्त की मार, आपकी पूरी सोच बदल डालती है। जीवन यात्रा में मिले अनुभव किसी को बहुत स्वार्थी तो किसी को बैरागी बना डालते हैं। राजनीति में, विशेषकर हमारे मुल्क की राजनीति में लेकिन वक्त के साथ छोड़िए, वक्त से पहले ही, वक्त की नजाकत अनुसार राजनेताओं का चाल-चरित्र और चेहरा बदलने लगता है। बहुत पीछे न जाकर वर्तमान राजनेताओं की जमात पर चर्चा करें तो हमारे सामने खांटी समाजवादी आंदोलन की पैदाइश बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं।
नीतीश वक्त की जरूरत अनुसार कभी धर्म निरपेक्ष हो जाते हैं तो कभी दक्षिणपंथी। उनके ही राज्य के एक अन्य दिग्गज हैं जो सत्ता में बने रहने के लिए यही गुर आजमाते हैं। नाम है रामविलास पासवान। इन दिनों चूंकि मोदी का दौर है इसलिए दोनों नेता भाजपामय हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पुत्र चौधरी अजीत सिंह, उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, तेलगुदेशम के सर्वेसर्वा चंद्रबाबू नायडू, हरियाणा के दुष्यंत चौटाला आदि कई नाम हैं जिनकी सोच वक्त की जरूरत के मुताबिक बदलती है। व्यक्तियों से इत्तर यदि राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दलों की बात करें तो हालिया समय में महाराष्ट्र का उदाहरण सामने है जहां घोर दक्षिणपंथी और क्षेत्रीय अस्मिता की बात करने वाली शिवसेना संग हाथ मिलाने में कांग्रेस ने संकोच नहीं किया। राजनीति और सत्ता का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि समय आने पर बड़े-बड़े सूरमे ढह जाते हैं, समर्पण कर देते हैं। जिन चंद बड़े नामों का मैंने जिक्र किया उनसे, उनकी राजनीति से प्रेरणा लेते इन दिनों मुझे मेरे पुराने मित्र और वर्तमान में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल नजर आने लगे हैं।
अरविंद संग मेरा परिचय अन्ना आंदोलन के दौरान हुआ था। खास पुराना इतिहास नहीं, आपके-हमारे सामने की बात है। क्या दौर था, क्या वक्त था। बूढ़े भारत में आई फिर से नई जवानी हम सभी ने महसूसी थी। मनमोहन सरकार के दूसरे टर्म में लगातार घोटालों का होना आमजन की सबसे बड़ी शिकायत बनने लगा था। अन्ना के आंदोलन ने इस शिकायत को स्वर दिया। घर-घर अन्ना पहुंच गए। मुझे याद है जंतर-मंतर में धरने पर बैठे एक युगल जोड़े से मैंने जानना चाहा कि वे किस मकसद से यहां जमे हैं। उत्तर गद्गद् करने वाला था। लड़की ने जवाब दिया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना समर्थन देने हम यहां आए हैं। मैंने पूछा आप लोग अन्ना हजारे के बारे में क्या जानते हैं तो उत्तर था इतना जानना काफी है कि गांधी सरीखा एक वृद्ध है जो अपना सबकुछ त्याग देश को दिशा देने निकला है, बाकी इतिहास जान क्या करना?
यह जज्बा अकेले जंतर-मंतर में नहीं था। घर-घर यही हाल था। अन्ना आंदोलन अपने लक्ष्य तक लेकिन पहुंच नहीं पाया। कारणों की विवेचना की जाए तो कहा जा सकता है कि आंदोलन के सूत्रधार या उसकी कोर टीम में विचारों की परिपक्वता नहीं थी, न ही उन्हें खुद इस बात का हल्का सा भी इल्हाम था कि आंदोलन इतना बड़ा हो जाएगा। लम्हों की खता ने एक बड़े जनज्वार की आग को बुझा डाला। टीम अन्ना ने सक्रिय राजनीति में जाने का निर्णय ले लिया। बहुतों को लगता है कि यह सब सुनियोजित था। मैं चूंकि टीम अन्ना से जुड़ा था इसलिए निसंकोच कह सकता हूं कि टीम अन्ना के पास कोई रोडमैप पहले ही दिन से था नहीं। सबकुछ अपने आप होता चला गया। यह शर्तिया कह पाना संभव नहीं कि अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, संजय सिंह आदि के दिलोदिमाग में यह कीड़ा कब घुसा, इतना पक्का है कि यह निर्णय भी आंदोलन की सफलता और लक्ष्य प्राप्ति के बाद अब क्या जैसे प्रश्नों से निकला निर्णय था।
बहरहाल, आम आदमी पार्टी का गठन हुआ। आंदोलन की कोर टीम बिखर गई। अन्ना को छले जाने का एहसास हुआ। वे हताश वापस रालेगांव सिद्धि चले गए और केजरीवाल ने पार्टी का गठन कर लिया। 2014 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया और हालात ऐसे बने कि केजरीवाल अल्पमत की सरकार का मुखिया बन सत्ता पा गए। पहली सरकार के केजरीवाल आंदोलनकारी केजरीवाल थे। उन्होंने उन्हीं तेवरों के साथ सत्ता संभाली। नौकरशाही, उपराज्यपाल और केंद्र सरकार संग सीधे जा भिड़े। नतीजा 49 दिनों में ही सरकार का पतन हो गया। यहां तक के अरविंद को मैं पहचानता था। इसके बाद लेकिन सत्ता का स्वाद पा चुके मेरे मित्रगण तेजी से बदलते चले गए। राजनीति का ककहरा उन्होंने बुलेट ट्रेन की स्पीड भांति सीखा। नई प्रकार की स्वच्छ राजनीति का इरादा लिए आए इन चुनावों ने समझ लिया यदि सत्ता दोबारा पानी है तो उसी कीचड़ में डूबना पड़ेगा जिसकी सफाई का लक्ष्य लेकर उन्होंने राजनीति में प्रवेश लिया था। फिर क्या था चुनाव जीतने के हर हथकंडे को अपने दोस्तों ने अंगीकर कर लिया। एक चंदा सभा, जिसे फंड रेजिंग इवेन्ट कहा जाता है, में एक दिन मैं भी अरविंद के साथ शरीक हुआ।
मुख्यतः व्यापारियों की इस सभा में अरविंद ने जब यह कह डाला कि वे भी बनिया हैं और अपना गोत्र बताया तो वहां मौजूदा लोगों ने भले ही भारी तालियों से उनका इस्तकबाल किया, मैं सकते में आ गया। बाद में बहुत कुछ ऐसा हुआ जिससे ‘आप’ संग अपना रिश्ता दरक गया। निश्चित ही केजरीवाल समझौता परस्त हो गए। उन्होंने लोकपाल की लड़ाई आधी-अधूरी छोड़ दी। टीम अन्ना की पसंद अनुसार पहला लोक आयुक्त कानून उत्तराखण्ड में तत्कालीन मुख्यमंत्री जनरल खण्डूड़ी ने 2011 में बनवाया था। इस कानून को लाने में मेरी भी थोड़ी बहुत भूमिका रही। अन्ना इस कानून के बनने से खासे प्रसन्न हुए थे। मेरे और मनीष सिसोदिया के अनुरोध पर वे स्वयं कृतज्ञता ज्ञापित करने दिल्ली स्थित उत्तराखण्ड भवन में खण्डूड़ी जी से मिलने गए। उस रात का हर दृश्य मेरे मानस पटल में आज भी जीवंत है। जब अरविंद, मनीष, कुमार विश्वास और मैं अन्ना संग उत्तराखण्ड भवन पहुंचे तो पूरे देश का मीडिया वहां मौजूद था।
खण्डूड़ी जी अन्ना से मिलकर गदगद थे। सबकुछ टीवी पर लाइव चल रहा था। वहीं मुझे हिमाचल के तत्कालीन सीएम प्रेम कुमार धूमल जी का फोन आया। उन्होंने टीम अन्ना से तत्काल मिलने की इच्छा जाहिर की। हम अन्ना को वहीं छोड़ हिमाचल भवन जा पहुंचे। रात के ग्यारह बज चुके थे। धूमल जी ने भी ऐसा ही लोकायुक्त कानून बनाने की हामी भरी। मुझसे मजाकिया लहजे में बोले ‘अपूर्व जी आपने तो जनरल साहब को हीरो बना दिया, मुझे याद तक नहीं किया।’ खण्डूड़ी जी का कानून अगली सरकार जो कांग्रेस की थी, ने ठंडे बस्ते में ऐसा डाला कि आज तक वह लागू न हो सका। तात्कालिक लाभ उठाने के बाद टीम केजरीवाल भी खामोश हो गई। अरविंद ने लेकिन बतौर मुख्यमंत्री शानदार काम अपने दूसरे टर्म में किया है। इसके लिए वे और उनकी टीम साधुवाद की पात्र है। जो नहीं जानते या फिर मोदीमय हो, आप सरकार को, विशेषकर अरविंद को गरियाते हैं, उन्हें हमारी बातों पर यकीन न कर स्वयं दिल्ली के सरकारी स्कूलों, दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिकों, दिल्ली के कमजोर तबकों में मुफ्त बिजली, साफ पानी, टैंकर माफिया से मुक्ति से मिल रही खुशी को समझना चाहिए।
समझना चाहिए कि क्योंकर दिल्लीवासियों का एक बड़ा वर्ग घोर मोदी समर्थक होने के बावजूद विधानसभा चुनावों में अपना वोट केजरीवाल की पार्टी को देना चाहता है। समझना यह भी चाहिए कि इस वर्ग के लिए मुफ्त बिजली-पानी और हाइटेक सरकारी स्कूल का महत्व धर्म-संप्रदाय और जात-पात से ऊपर है। जो अर्थशास्त्र के ‘ज्ञाता’ सरकारी धन को वोट के लिए खर्च करने का आरोप आप सरकार पर लगाते हैं उन्हें शायद इल्हाम नहीं कि देश की सत्तर प्रतिशत आबादी आज भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए दिन-रात खटकटी है और दस प्रतिशत के पास भारत के कुल बजट से ज्यादा संपत्ति है। इतनी बड़ी असमानता वाले देश इंडिया में जीडीपी, वर्ल्ड बैंक, वैश्विक अर्थव्यवस्था के मॉडल पर बात केवल दिल्ली के वातानुकूलित ‘सेंटरों’ में और मुंबई कॉरपोरेट जगत के बोर्ड रूम में ही भली लगती है। संकट यह है कि हमारे देश में मुल्क की मय्यार को कोठियों से आंका जा रहा है।
फुटपाथ पर आबाद हिन्दुस्तान को इंडिया में देखने की जहमत नहीं उठाने वाले समझ ही नहीं सकते कि अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली में वह कर दिखाया है जो आजाद मुल्क के बहत्तर बरस की यात्रा में हुआ ही नहीं था। वोट बैंक साधने के लिए नारे जरूर गढ़े गए, जुमले उछाले गए, उछाले जा रहे हैं, लेकिन धरातल पर कुछ हुआ नहीं, हो नहीं रहा। इंदिरा जी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया और उनकी पार्टी के नेता सही में करोड़पति हो गए। मोदी जी पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की बात कर रहे हैं, अडानी और अंबानी की संपत्ति में कई खरब इजाफा होता जा रहा है। ‘सुथन्ना’ लेकिन इंदिराकाल में भी फटा सुथन्ना पहनता था, आज भी उसकी पोशाक वही है। ऐसी गरीब-गुरबा जनता के लिए केजरीवाल ने वह कर दिखाया जो आजतक कोई नहीं कर सका था। दिल्ली के सरकारी स्कूल आदर्श शिक्षण संस्थान बन चुके है। केवल इन्फ्रास्ट्रक्चर ही नहीं बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता में भारी इजाफा हुआ है।
मोहल्ला क्लीनिक में आम जनता को हर प्रकार की चिकित्सालय सुविधाएं उपलब्ध हैं। टैंकर माफिया का दौर लगभग समाप्ति की ओर है। महिलाओं की सुरक्षा में विफल दिल्ली पुलिस चूंकि दिल्ली सरकार के अधीन नहीं है, इसलिए उनकी कमियों को ढाल बनाने के बजाए दिल्ली सरकार ने हर सरकारी बस में प्रशिक्षित मार्शल तैनात कर डाले हैं ताकि महिला चैन से, सम्मान से यात्रा कर सके। इसलिए मैं आम आदमी पार्टी में आए भारी विचलन को नजरअंदाज कर कहना चाहता हूं। अरविंद तुम निश्चित ही साधुवाद के पात्र हो।
कहना चाहता हूं कि तुम्हारी कई नीतियों, विशेषकर आम आदमी पार्टी को एक व्यक्ति केंद्रित पार्टी बनाने के लिए मैं तुम्हें आरोपित करना चाहता हूं कि तुम तानाशाही प्रवृत्ति के पोषक बन रहे हो, लेकिन जब दिल्ली में तुम्हारी सरकार के द्वारा उठाए गए जनसरोकारी कदमों को देखता हूं तो ठिठक जाता हूं। आरोप लगाना, आलोचना करना, बेहद सरल है। कुछ कर दिखाना बेहद कठिन। इसलिए निश्चित ही टीम केजरीवाल को सलाम, साधुवाद। दिल्ली की गद्दी तुम्हें तीसरी बार मिलेगी यह सौ प्रतिशत तय है। तब उन मुद्दों पर तुमसे मुखातिब होऊंगा जिन पर करेक्शन जरूरी है।