पिचहत्तर बरस का भारत -1
पीछे मुड़ कर देखना, वह भी पिचहत्तर बरस पीछे जाकर, हर वर्ष का लेखा-जोखा टटोलना, एक व्यक्ति की जीवन यात्रा का नहीं, एक देश की जीवन यात्रा का सिंहावलोकन करना, बेहद कठिन, बेहद दुर्गम यात्रा समान है। विशेषकर तब जब ऐसी यात्रा के पीछे कोई एजेंड़ा न छिपा हो। उद्देश्य इतना भर कि यह समझा जा सके यात्रा सफल रही या असफल। क्या कुछ पाया, क्या कुछ गंवाया। इसके पीछे मुड़कर देखने को 75 बरस का मुल्यांकन कहा जा सकता है। भारत, इंडिया, हिन्दुस्तान यानी एक देश तीन नाम। 75 बरस के मुल्क को, उसकी पिचहत्तरवीं वर्षगांठ में समझने के लिए ये तीन नाम प्रस्थान बिंदु यदि बनाए जायें तो इस यात्रा को न केवल समझने में आसानी होगी वरन् इस देश की सामाजिक बनावट को भी परखा जा सकेगा। इसलिए इन तीन नामों के जरिए 75 बरस के राष्ट्र की यात्रा, उसकी सफलताएं और असफलताएं सामने लाने का प्रयास मैं करने जा रहा हूं। सफलताएं इतनी कि हरेक भारतीय का, हिन्दुस्तानी का, इंडियन का सीना छप्पन इंची हो जाए। असफलताएं इतनी कि छप्पन इंच का सीना गायब हो जाए। इससे बड़ी त्रासदी किसी राष्ट्र और उसके नागरिकों संग कुछ और नहीं हो सकती। एक तरफ सफल, मजबूत, स्थिर लोकतंत्र है तो दूसरी तरह उसकी खोखली होती जा रही नींव है। एक तरफ खरबपति, अरबपति, करोड़पति और लखपति नागरिकों वाला, जनसंख्या के एक प्रतिशत का इंडिया है तो दूसरी तरफ वह भारत है जिसकी बहुसंख्यक जनसंख्या के पास दो वक्त की रोटी के लाले पड़े रहते हैं। और इस इंडिया और भारत के बीच है ऐसा हिन्दुस्तान जो जाति और धर्म के नाम पर रक्त रंजित होता जा रहा है। इतनी ज्यादा विडंबनाएं, शायद ही किसी देश के हिस्से में आईं हों। अतीत का स्मरण ‘वसुधैव कुटम्बक्म’ सहारे करने वाला मुल्क वर्तमान में धर्म और जाति के ऐसे दलदल में धंसता जा रहा हैं जिससे निकल पाना कठिन नहीं असंभव सा प्रतीत होता है। चारों तरफ गहरा कुहासा, कोहरा है। इस कोहरे से पार पाने की छटपटाहट लेकिन कहीं नजर नहीं आ रही। सभी इस विश्वास के साथ जी रहे हैं कि देश के नए हुक्मरान जादू की छड़ी घुमाएंगे और सब कुछ ठीक कर देंगे। विश्वास की बुनियाद नहीं है, फिर भी विश्वास अक्षुण्ण है। प्रधानमंत्री गिरती हुई अर्थव्यवस्था पर उठ रहे सवालों के जवाब में पांच ट्रिलियन इकोनॉमी का जुमला उछाल देते हैं। आप पूछते रहिए यह कैसे संभव होगा? जवाब देने की जहमत न तो प्रधानमंत्री उठाते हैं, न ही उन्हें कुछ फर्क पड़ता है जो एक वक्त का भोजन नहीं जुगाड़ कर पा रहे हैं। घनघोर अंधभक्ति। ऐसी अंधभक्ति जो अपने ईश्वर के खिलाफ कुछ भी बोलने-सुनने को तैयार नहीं। धर्म मानवीय संवेदनाओं पर, सरोकारों पर पूरी तरह हावी हो चला है। गंगा-जमुनी संस्कृति अब गर्व नहीं गाली का सबब बन चुकी है। यह सब कुछ एकाएक तो घटित हो नहीं सकता। संभव ही नहीं है। इसलिए जरूरी है कि पिचहत्तर बरस की यात्रा का पुनर्पाठ किया जाए ताकि इस पुनर्पाठ के जरिए समझा जा सके कि कहां चूंके। समझ सकें इंडिया, भारत और हिन्दुस्तान के फर्क को। समझ सकें इस छलावे को, झूठ के भंवरजाल को जो एक नकली गर्व की अनुभूति हमें कराता आ रहा है। नकली अनुभूति कि हमारा गौरवशाली अतीत है, नकली अनुभूति कि हम तरक्की के पथ पर हैं, नकली अनुभूति कि हम एक मजबूत लोकतंत्र हैं। साथ ही नकली आस कि आने वाला समय हमारा है। प्रख्यात शायर दुष्यंत कुमार ने इसे कुछ यूं बयां किया है-
तुम्हारे पांव के नीचे जमीन नहीं/कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीं नहीं/ मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं/मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं/तेरी जुबान है झूठी जम्हुरियत की तरह/तू एक जलील सी गाली से बेहतरीन नहीं/तुम्ही से प्यार जताएं, तुम्हीं को खा जाएं/अदीब यों तो सियासी है पर कमीन नहीं/तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर/तू इस मशीन का पुर्जा है तू मशीन नहीं/बहुत मशहूर हैं आएं जरूर आप यहां/ ये मुल्क देखने लाइक तो है हसीन नहीं/जरा सा तौर-तरीकों में हेर-फेर करो/तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं।
आजाद राष्ट्र के प्रथम प्रधानमंत्री ने 14 अगस्त 1947 की रात 12 बजे देश को संबोधित करते हुए कहा था ‘हमने नियति को मिलने का एक वचन दिया था और अब समय आ गया है कि हम अपने वचन को निभाएें। पूरी तरह न सही, लेकिन बहुत हद तक। आज रात बारह बजे, जब सारी दुनिया सो रही होगी। भारत जीवन और स्वतंत्रता की नई सुबह के साथ उठेगा। एक ऐसा क्षण जो इतिहास में बहुत ही कम आता है। जब हम पुराने को छोड़ नए की तरफ जाते है। जब एक युग का अंत होता है। और जब वर्षों से शोषित एक देश की आत्मा, अपनी बात रह सकती है … भविष्य में हमें विश्राम करना या चैन से नहीं बैठना है बल्कि निरंतर प्रयास करना है ताकि हम जो वचन बार-बार दोहराते हैं और जिसे हम आज भी दोहराऐंगे उसे पूरा कर सकें। ..हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हर एक आंख से आंसू मिट जाएं। शायद ये हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों की आंखों में आंसू हैं और वे पीड़ित हैं तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा। …भविष्य हमें पुकार रहा है। हमें किधर जाना चाहिए और हमारे क्या प्रयास होने चाहिए जिससे हम आम आदमी, किसानों और कामगारों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें? हम एक समृद्ध, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील देश का निर्माण कर सकें? ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना कर सकें जो हर एक आदमी-औरत के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके?’
नेहरू का यह उद्बोधन अतीत को समझते हुए, वर्तमान को भोगते हुए, एक ऐसे भविष्य निर्माण की कल्पना लिए हुए था जिसे लेकर स्वयं वे आश्वस्त नहीं थे। शुरुआत की सुबह ही उन्होंने एक तरह से इस कल्पना के साकार न होने पाने के सच को स्वीकार किया था, यह कहते हुए कि ‘हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति (महात्मा गांधी) की यहीं महत्वाकांक्षा है कि हर एक आंख से आंसू मिट जाएं। शायद यह हमारे लिए संभव न हों।’ नेहरू यदि आजाद राष्ट्र की पहली भोर ही आशंकित थे तो उनकी आशंका निर्मूल नहीं थी। आधी रात मिली आजादी अपने साथ विभाजन का दंश लेकर आई थी। ऐसा दंश जिसने धर्म के आधार पर समाज को बांट डाला था, काट डाला था। रक्त रंजित नींव पर खड़े होने जा रहे राष्ट्र के पास लेकिन इतिहास की गलतियों से सबक लेने का विकल्प था। पहली और सबसे बड़ी चूक यही, यहीं हो गई। नतीजा आज का भारत, हिन्दुस्तान, इंडिया है। जहां जाति और धर्म की अफीम चौतरफा हिंसा, घृणा और हाहाकार का दानवी रूप ले 21वीं सदी में हमारा सब कुछ लील जाने को तैयार बैठी है।
75 बरस की यात्रा का मूल्यांकन कई तरीकों से किया जा सकता है। सफलताओं के पहाड़ को आगे रख, असफलताओं की गहरी खाई को आगे रख, साथ जन्में पड़ोसी मुल्क की विफलताओं से खुद की तुलना कर, एक नहीं कई तरीकों से इसकी शुरुआत की जा सकती है। मैं इस पिचहत्तर वर्षों को, दशकों में बांट समझने, समझाने का प्रयास कर रहा हूं ताकि साढ़े सात दशक की यात्रा का हर महत्वपूर्ण पहलू समेटा जा सके। प्रयास इस बात का भी किया है कि मुल्यांकन किसी विचारधारा विशेष से प्रभावित हो पूर्वाग्रसित न होने पाए।
75 बरस की यात्रा का मूल्यांकन कई तरीकों से किया जा सकता है। सफलताओं के पहाड़ को आगे रख, असफलताओं की गहरी खाई को आगे रख, साथ जन्में पड़ोसी मुल्क की विफलताओं से खुद की तुलना कर, एक नहीं कई तरीकों से इसकी शुरुआत की जा सकती है। मैं इस पिचहत्तर वर्षों को, दशकों में बांट समझने, समझाने का प्रयास कर रहा हूं ताकि साढ़े सात दशक की यात्रा का हर महत्वपूर्ण पहलू समेटा जा सके। प्रयास इस बात का भी किया है कि मुल्यांकन किसी विचारधारा विशेष से प्रभावित हो पूर्वाग्रसित न होने पाए।
आजादी पूर्व का दशक आजाद भारत के इतिहास की नींव में धर्म के ऐसे रूप को स्थापित करने वाला समयकाल था जिसके चलते शांति, आस्था, सर्वधर्म सदभाव के बजाए धर्म आतंक का प्रतीत बन हमारे वर्तमान को डस रहा है। 1937 से 1947 तक का इतिहास समझे बगैर आजाद भारत की यात्रा को समझा नहीं जा सकता। भारत का विभाजन इस देश के इतिहास का सबसे स्याह, सबसे दुखद अध्याय है। इस विभाजन की बुनियाद तो 1937 से कहीं पहले, बहुत पहले ही पड़ चुकी थी, उस बुनियाद को मजबूती लेकिन इस कालखण्ड (1937-47) में ही मिली। इसलिए इस दशक की उन महत्वपूर्ण घटनाओं को समझा जाना, समझाया जाना जरूरी है जिनके कारण हमारे देश का वर्तमान प्रभावित हुआ है, हो रहा है और होते रहने को अभिशप्त है। पीछे मुड़कर देखने के इस प्रयास में मैंने पाया कि 1947 के बाद की घटनाओं का सही मुल्यांकन करने के लिए एक दशक पीछे से शुरुआत करनी होगी।
क्रमशः