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Editorial

सही कदम का समर्थन जरूरी

मेरी बात

वैचारिक प्रतिबद्धता के बोझ तले दबकर हम बहुदा इतने दृष्टि बाधित हो जाते हैं कि अपने वैचारिक विरोधियों के सही प्रयासों को भी हर कीमत गलत साबित करने का प्रयास करते हैं, कुतर्क देते हैं और उनकी नीयत पर संदेह करते हैं। ऐसा अनेकों बार होता है। ताजातरीन उदाहरण प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ का वह प्रस्ताव है जिसका विरोध विपक्षी दलों के साथ- साथ भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा की खिलाफत करने वाले बुद्धिजीवि, लेखक, पत्रकार एक सुर में कर रहे हैं। मैं समझता हूं कि यह एक उचित विचार है और यदि इसे सभी दलों तथा सामाजिक संगठनों के साथ गहन विचार विमर्श कर, उनकी आशंकाओं का उचित निवारण कर आगे बढ़ाया जाता है तो इससे भारतीय लोकतंत्र को मजबूती भी मिलेगी, आयाराम-गयाराम की कुसंस्कृति पर भी रोक लगेगी और प्रति वर्ष होने वाले चुनावों चलते जो भारी भरकम रकम खर्च होती है, उसकी भी बचत होगी और वह रकम विकास कार्यों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को उपलब्ध हो जाएगी। तो चलिए समझने का प्रयास करते हैं कि इस व्यवस्था के लागू होने से क्या भारतीय लोकतंत्र के सामने वाकई कोई बड़ा संकट आ खड़ा होगा जिसकी आशंका विपक्षी दल व्यक्त कर रहे हैं? और यदि यह व्यवस्था लागू हो जाती है तो इसके सकारात्मक परिणाम क्या होंगे?

शुरुआत आजादी उपरांत हुए पहले आम चुनाव की करते हैं। 1951-52 में भारत में पहले आम चुनाव कराए गए थे। लोकसभा के साथ-साथ तब लगभग सभी राज्य विधानसभाओं के लिए भी एक साथ ही चुनाव हुए थे। 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में भी लोकसभा और अधिकांश विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। 1962 और 1967 में भी कमोबेश यही स्थिति बनी रही थी। चौथे आम चुनाव बाद देश की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिलता है। नेहरू और पटेल सरीखे नेताओं की मृत्यु बाद कांग्रेस तेजी से रसातल की तरफ बढ़ने लगी थी और उसके नेताओं को सत्ता लोलुपता तथा भ्रष्टाचार ने अपने आगोश में ले लिया था। शास्त्री जी की ताशकंद में हुई असमय मृत्यु बाद कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को अपना नेता चुन तो लिया था लेकिन नेहरूकाल के नेता इस युवा नेता का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। इंदिरा गांधी ने खुद की सत्ता स्थापित करने के लिए लोकतंत्रिक मूल्यों को दरकिनार करना इस दौर में बड़े पैमाने पर शुरू कर दिया था। 1968-69 में कई राज्यों की सरकारों को उन्होंने राष्ट्रपति शासन लगा भंग कर डाला जिस कारण लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने की परंपरा में खलल आ गया और तभी से लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने 2016 में पहली बार इस बाबत अपने विचार एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान व्यक्त करते हुए कहा था कि यदि ऐसा होता है तो इससे चुनावी खर्च और समय की बड़ी बचत होगी। 2019 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू की अध्यक्षता में एक समिति का गठन केंद्र सरकार ने किया और इसे सभी पक्षों से वार्ता कर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया था। बाद में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी दूसरी उच्च स्तरीय कमेटी ने 47 राजनीतिक दलों संग वार्ता की थी जिनमें से 32 दलों ने इस प्रस्ताव के लिए अपनी सहमति दी थी और 15 दलों ने इसका विरोध किया था। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 2020 में सरकार को सौंपी थी जिसे संसद में रखा जा चुका है। इसके बाद यह प्रस्ताव यदा-कदा चर्चा में रहा तो लेकिन इस पर कोई ठोस निर्णय उठाने का जोखिम केंद्र सरकार ने उठाया नहीं। नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने बाद अब यकायक ही एक बार फिर से यह मुद्दा गर्माने लगा है। स्मरण रहे आम चुनाव 2024 से ठीक पहले भी इस मुद्दे पर सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दलों के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला था।

कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन की तब यह आशंका बलवती हो उठी थी कि केंद्र सरकार 2024 के आम चुनाव को टालने के लिए इस मुद्दे को उठा रही है। हालांकि यह आशंका निर्मूल साबित हुई और समय पर ही आम चुनाव कराए गए। अब जबकि भाजपा तेलगुदेशम और जनता दल(यू) के दम पर तीसरी बार सरकार बनाने में सफल हो पाई है, एक बार फिर से यह मुद्दा गर्मा गया है क्योंकि अपनी सरकार के सौ दिन पूरे होने के अवसर पर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे को अपनी प्राथमिकता सूची में शामिल कर यह स्पष्ट कर दिया है कि अपने तीसरे कार्यकाल में मोदी इसे ट्टारातल पर उतारने का मन बना चुके हैं। मैं इसे एक आवश्यक सुधार के रूप में देखता हूं। आम चुनाव और राज्यों के विट्टाानसभा चुनावों में कई हजार का खर्च सरकारों को उठाना पड़ता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में 3870 करोड़ का खर्च आया था। इतना केवल सरकारी मशीनरी पर खर्च किया गया था और इसमें राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा किया गया खर्चा शामिल नहीं है। 2019 के आम चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे। यह आंकड़ा चुनाव आयोग ने जारी किया था और इसमें सरकारी तथा राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा किया गया खर्च शामिल है। 2024 के आधिकारिक आंकड़े अभी सामने नहीं आए हैं लेकिन निश्चित ही 2019 से कहीं ज्यादा रकम इस बार खर्च की गई होगी। सरकारी खर्च में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की खरीद और रखरखाव, चुनाव के दौरान सरकारी कर्मचारियों और अर्धसैनिक बलों की तैनाती, चुनाव आयोग, राज्य चुनाव आयोग, जिला स्तर तक अधिकारियों की टेर्निंग, पोलिंग बूथ बनाने, दुर्गम इलाकों में बुनियादी ढांचा तैयार करना, ट्रांसपोर्टेशन, मतदाताओं को जागरूक बनाने के लिए बड़े स्तर पर कार्यक्रम इत्यादि शामिल हैं। इसी प्रकार राजनीतिक दल और उम्मीदवार भारी धन राशि चुनावों के दौरान प्रचार इत्यादि में खर्च करते हैं। जाहिर है यदि लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराए जाएंगे तो सरकारी मशीनरी पर होने वाले खर्च में भारी कमी आएगी और राजनीतिक दलों को भी लोकसभा और विधानसभा के प्रत्याशियों का प्रचार एक साथ करने चलते कम खर्च करना पड़ेगा। यह इस विचार का आर्थिक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष आयाराम-गयाराम की कुसंस्कृति से जुड़ता है। वर्तमान दल बदल विरोट्टाी कानून अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाने में सर्वथा विफल रहा है। बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त के जरिए सरकारें आज भी गिरा दी जाती हैं। छोटे राज्यों में विशेषकर इस कुसंस्कृति चलते हमेशा राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना रहता है जो न केवल भ्रष्टाचार को खाद देने का काम कर रहा है, बल्कि विकास योजनाओं के सही क्रियान्वयन में भी बड़ी बाधा  बन उभरा है। यदि केंद्र सरकार ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ पर आगे बढ़ती है तो उसे इस समस्या का निदान भी करना होगा। यह निदान है एक बार सरकार का गठन होने बाद उसका तय कार्यकाल पूरा करना और यदि किसी कारण वश सरकार गिरती है तो शेष अवधि तक वहां राष्ट्रपति शासन का लागू होना। कोई भी राजनेता कभी नहीं चाहेगा कि उसके हाथों से सत्ता खिसक जाए और दोबारा संसद अथवा विधानसभा पहुंचने के लिए उसे लंबा इंतजार करना पड़े। नतीजा राजनीतिक अस्थिरता कम होगी और आयाराम-गयाराम की कुसंस्कृति पर भी रोक लगेगी। निश्चित ही ऐसी व्यवस्था लागू करने की राह में कई संवैधानिक दिक्कतें आएंगी। चुनाव संबंधी संविट्टाान के अनुच्छेदों को बदलना होगा और बड़े पैमाने पर चुनाव सुधार की प्रक्रिया नए सिरे से बनानी होगी। यह वर्तमान परिस्थितियों में तभी संभव है जब सत्ता पक्ष और विपक्ष मध्य इस विचार पर सहमति बने जिससे की लोकसभा और राज्यसभा में संविधान संशोधन सम्बंधी विधेयक दोनों सदनों की सहमति पा सकें।

यह सही है कि भाजपा की नीयत पर उन सभी को भारी संदेह होता है जो इस देश में बीते दस वर्षों के दौरान संवैधानिक व्यवस्थाओं और संस्थाओं को दिनोंदिन कमजोर होते देख पा रहे हैं और जो भयभीत हैं कि यदि यही हालात रहे तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो जाएगा। यह भी सत्य है कि बीते दस वर्षों में बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिसने लोकतंत्र की बुनियाद को चरमरा कर रख दिया है। केंद्रीय जांच एजेंसियों का भारी दुरुपयोग होता हम देख रहे हैं। प्रतिरोध के हर स्वर को दबाया जा रहा है और एक प्रकार का अघोषित आपातकाल देश में लागू है। इस सबके बावजूद यदि देश का प्रधान कुछ सकारात्मक पहल करना चाहता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए ताकि नकारात्मकता की पराकाष्ठा के दौर में कुछ सकारात्मक हासिल हो सके।

केवल विरोध किए जाने की मानसिकता से किया गया विरोध किसी भी दृष्टि से जायज नहीं करार दिया जा सकता है। उच्च सरकारी पदों पर लैटरल इंट्री के जरिए विशेषज्ञों की नियुक्ति भी मोदी सरकार द्वारा लागू की गई एक अच्छी पहल है जिसे यदि सही नीयत और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ लागू किया जाता तो नकारा नौकरशाही में कुछ सुधार अवश्य देखने को मिलता। ऐसा लेकिन हुआ नहीं क्योंकि इस विचार का भी विरोधा विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आरक्षण से जोड़ कुछ ऐसे अंदाज में किया कि भाजपा को अपने ओबीसी और दलित वोट बैंक के दरकने का डर सताने लगा और एक अच्छी पहल को रोक दिया गया। इस प्रकार का विरोध और इस प्रकार की राजनीति हर दृष्टि से स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है।

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