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Editorial

भारत-नेपाल के रिश्तों में दरार की कहानी

रोटी-बेटी का रिश्ता रखने वाले दो देशों में इन दिनों गहरा तनाव चल रहा है। तनाव के मूल में है एक 80 किमी लंबी हिमालयी दुर्गम क्षेत्र में बनी रोड जिसका विगत 8 मई को कोरोना संकट के कठिन दिनों में वर्चुअल उद्घाटन किया गया। रोटी-बेटी के रिश्ते वाले दो देशों में इस रोड के चलते आपसी समझ और विश्वास की जमीं तेजी से दरकने लगी है। इस रोड को बनाया भारत ने और उद्घाटन किया हमारे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने। रिश्ते दरके हैं नेपाल के संग। इतनी तनातनी बढ़ी कि नेपाल ने बकायादा अपनी संसद से नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं का नया नक्शा पास/अनुमोदित कराकर इस रोड वाले इलाके को अपना इलाका पहली बार आधिकारिक तौर पर घोषित कर दिया। बस फिर क्या था भारत में नेपाल को लेकर मानों कोरोना से भारी बम फूट गया हो, रोटी-बेटी के पवित्र रिश्तों को तार-तार कर देनी वाली अमर्यादित भाषा में भारत के ‘चरणी’ मीडिया (गोदी चूंकि ज्यादा सम्मानजनक है) ने नेपाल के खिलाफ निंदा अभियान छेड़ दिया। ऐसा माहौल रच गया, रचा जा रहा है जिसके नेपाल को एहसान फरामोश मुल्क सावित किया जा सके।

तो चलिए इस 80 किमी की हिमालयी रोड के जरिए पूरे मामले को, दो स्वतंत्र राष्ट्रों के सदियों पुराने रिश्तों को, वर्तमान सरकार की Neighbourhood First Policy को, और इन दोनों की राष्ट्रों की दोस्ती की जड़ों पर मट्ठा डालने वाली चीन की साजिश को।

इस लेख को पढ़ने वाले सभी सुधिजनों से मेरा आग्रह है कि किसी भी प्रकार की विचारधारा के बोझ तले या अंधभक्ति के भार तले दब इसे न देखे। मैं जो बताने जा रहा हूं वह विभिन्न रिपोर्ट्स और दोनों देश के सीमा विवाद पर अपने-अपने दावों का सार है। इसलिए ‘चरणी’ मीडिया के एंकरों को पत्रकार समझने की भूल करने वालों से विशेष आग्रह है कि इतिहास बोध की दृष्टि को पैदा करें ताकि चारण-भाटों के अनर्गल प्रलाप से हटकर तथ्यों को समझा जा सके।

भारत ने चीन से सटी अपनी उत्तरी सीमा पर जो बेहद दुर्गम उच्च हिमालयी क्षेत्र में हैं, 80 किमी रोड का निर्माण वर्ष 2008 में शुरू किया था। यह रोड उत्तराखण्ड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के धरियाबागड़ (धारचूला) से चीन बॉर्डर लिपुलेख तक जाती है। यह प्रसिद्ध कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग भी है। Military/सामरिक दृष्टि से इस इलाके का बड़ा महत्व है। चीन पर नजर रखने के लिए भारत के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण स्थान है जो भारत के लिए फायदा तो चीन के लिए नुकसान का काम करती है।

आइए नक्शों की मदद से पहले अंतरराष्ट्रीय सीमा को समझा जाए। भारत के उत्तराखण्ड का सीमांत जनपद है पिथौरागढ़ जिसकी अंतरराष्ट्रीय सीमाएं चीन और नेपाल से जुड़ती हैं। नेपाल को भारत से अलग करती है काली नदी। इसी काली नदी के एक पार पिथौरागढ़ का धारचूला है जो दूसरी पार नेपाल का दारचूला। भारत और नेपाल के मध्य दोस्ताना और ऐतिहासिक कारणों के चलते सीमाओं का अधिकारिक तौर पर निर्धारण नहीं हुआ था। 1814 में नेपाल पर गोरखा राज्य था ईस्ट इंडिया कंपनी अपने साम्राज्य का विस्तार कर रही थी। नवंबर 1814 में ब्रिटिश और गोरखाली सेनाओं के मध्य युद्ध शुरू हुआ जो 14 महीनों तक चलता रहा। दिसंबर 1815 में गोरखा राजा ने अपनी हार स्वीकार कर ली। नेपाल और ब्रिटिश भारत के मध्य 2 दिसंबर 1815 को युद्ध समाप्ति के बाद एक संधि हुई जिसे सीमा विवाद सुलझाने या सीमा निर्धारण की कवायद माना जाता है। इसे ‘सुगौली’ संधि कहा जाता है। नेपाल का और नेपाल समर्थक बुद्धिजीवियों, इतिहासकारों का मानना है कि इस संधि के चलते नेपाल को अपनी काफी जमीन का नुकसान हुआ जिसे अंग्रेज हुकुमत ने अपने अधीन तले भारत में मिला लिया। यह अर्धसत्य है। नेपाल का अपना हमलावर इतिहास रहा है। 1723 से 1775 तक नेपाल में गोरखा शासक पृथ्वी नारायण शाह का राज था जिन्होंने सिक्कम और वर्तमान उत्तराखण्ड के बड़े भूभाग पर अपना कब्जा जमा लिया था। महाराजाधिराज पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल को ’असल हिन्दुस्तान’ कह पुकारा क्योंकि तब मुस्लिम साम्राज्य भारत में आ चुका था। नेपाल के खिलाफ ब्रिटिश सेना ने 1814 में युद्ध छेड़ वर्तमान उत्तराखण्ड के गढ़वाल और कुमाऊं में काली नदी से सटे इलाकों को वापस छीन लिया। इस युद्ध में पराजय के बाद अंग्रेजों और गोरखाओं के बीच शांति वार्ता बिहार के सिगोली में दिसंबर 1815 में शुरू हुई और 4 मार्च 1816 को इसमें हस्ताक्षर हुए। नेपाल को इस संधि के चलते बहुत सारा इलाका ब्रिटिश को देना पड़ा जिसकी एवज में ब्रिटेन ने नेपाल पर अपनी सीधी हुकुमत नहीं बनाई। इस संधि के चलते काली अथवा महाकाली नदी के पूर्व का इलाका नेपाल तो पश्चिम का ब्रिटिश भारत में आ गया। इस संधि में महाकाली नदी का उद्गम लिंपियाधारा को माना गया। यदि इस संधि को सीमा निर्धारण का प्रस्थान बिंदु माना जाए तो वर्तमान में दोनों देशों के मध्य य बड़ी रार-तकरार का कारण बन चुके कालापानी और लिपुलेख का इलाका काली नदी के पूर्व में पड़ता है।

नेपाल इसी संधि के आधार पर इन दोनों इलाकों पर अपना दावा करता रहा है। भारत का तर्क अपनी जगह वाजिब है। भारत महाकाली अथवा काली नदी का उद्गम लिंपियाधारा को नहीं मानता, बल्कि लिपुलेख दर्रा (भारत के हिस्से वाला) के नीचे से मानता है इसलिए भारत का कहना है कि सिगोली संधि का इन दोनों इलाका ‘कालापानी’ और ‘लिपूलेख’ से लेना-देना नहीं है। यह दोनों ही इलाका बेहद-बेहद दुर्गम उच्च हिमालयी इलाके हैं। समुद्रतल से काला पानी 20,000 फीट की ऊंचाई पर है जिसके चलते चीन पर नजर रखने के लिए यह भारत के लिए अति महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र विशेष को लेकर नेपाल के साथ 1990 तक हमारा कोई विशेष विवाद नहीं था। भारत की आजादी के पहले 12 बरसों तक तो संबंध बेहद मित्रता के रहे। 1950 में दोनों देशों के मध्य ‘मित्रता संधि’ हुई जिसके अनुसार दोनों देशों के बीच खुली सीमाओं की (ओपेन बॉर्डर) की व्यवस्था की गई। नेपाल चूंकि लैंड लॉकेड देश है यानी चौतरफा घिरा ऐसा देश है जिसके पास समुद्र तक नहीं है, इसलिए भारत के तटों से उसके यहां सामान लाने-ले जाने की बगैर टैक्स लगाए छूट दी गई। नेपाल के नागरिकों को भारत के सरकारी नौकरियों में स्थान दिया गया इत्यादि। संधि पर 31 जुलाई 1950 के दिन काठमांडू में तत्कालीन प्रधानमंत्री शमशेर जंग बहादुर राणा और भारत के राजदूत चंद्रशेखर नारायण सिंह ने दस्तखत किए। जवाहरलाल नेहरू चीन के खतरे को भांपते हुए नेपाल को हल हालत में भारत के पक्ष में रखना चाहते थे। 1956 में नेपाल में विकास योजनाओं के लिए एक ‘हेल्प मिशन’ नेहरू ने शुरू किए। नेपाल का प्रसिद्ध ‘त्रिभुवन हाइवे’ इसका एक शानदार उदाहरण है जो काठमांडू को बीरगंज/रक्सोल से जोड़त है। भारत का एनएच-28 के जरिए यहां हाइवे दोनों देशों के मध्य एक महत्वपूर्ण लिंक हैं। यह 189 किमी लंबा है। भारत ने नेपाल में विकास कार्यों पर भारी पूंजी निवेश किया। कई बिजली परियोजनाएं जिनमें छह एयरपोर्ट, कई अस्पताल, आदि शामिल हैं। नेपाल संग रिश्तों में तनाव लेकिन समय के साथ बढ़ता चला गया। जितना भारत संग नेपाल की दूरी बढ़ी, चीन ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का भारत संग संबंध बिगाड़ने में खासा योगदान रहा। नेपाल में जैसे-जैसे कम्युनिस्टों का प्रभाव बढ़ा भारत विरोध के स्वर भी तेज होते गए। जिस कालापानी क्षेत्र को लेकर बवाल मचा है उस पर भारतीय सेनाएं 1962 में चीन संग युद्ध के समय से ही तैनात रही हैं। नेपाल का एक बड़ा वर्ग मानता है कि नेपाली राजा महेंद्र चूंकि भारत की सहायता पर निर्भर थे इसलिए उन्होंने इस मामले पर पर्दा डाले रखा। 1990 के दशक में जहां एक तरफ नेपाल में राजशाही के खिलाफ जनता का आंदोलन मुखर हुआ, भारत का अपने देश की आंतरिक गतिविधियों में हस्तक्षेप को लेकर भी स्वर बुलंद होने लगे। राजा के खिलाफ आंदोलनों ने भारत विरोधी स्वर अपनाया। ‘कालापानी हमारा है, उसे खाली करो की मांग इस दौरान तेज हुई। नेपाल में 1990 में राजशाही को केवल संवैधानिक राजशाही में बदल लोकतंत्र की स्थापना हुई। लेकिन 1996 में वहां गृहयुद्ध शुरू हो गई। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी ने राजशाही को पूरी तरह हटाने की मांग शुरू कर दी। 2001 में रहस्यमय परिस्थितियों में राजा बिरेंद्र, महारानी ऐश्वर्या और राजकुमार दीपेंद्र की हत्या कर दी गई थी। नए राजा ज्ञानेंद्र को हटाकर 28 मई 2008 के दिन राजशाही को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया था। पष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ प्रधानमंत्री बने। उनके समय में सबसे ज्यादा संबंध हमारे नेपाल संग बिगड़े। प्रचंड ने अपनी चीन परस्त नीति को कभी छिपाया नहीं। 1950 की ‘मित्रता संधि’ का प्रचंड हमेशा से विरोध करते रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली विदेश यात्रा भारत के बजाय चीन की कर डाली। 60, 70, 80 और 90 के शुरुआती समय तक प्रचंड ने कभी भी भारतीय नेताओं से संपर्क नहीं रखा। उनका दृष्टिकोण भारत को दुश्मन और चीन को मित्र मानने का रहा। हालांकि जब 1996 के गृहयुद्ध के दौरान नेपाली सेना ने प्रचंड की सघन तलाश शुरू की तो वे छिपे भारत में ही रहे। उनका भारत विरोध इस हद तक है कि 2008 में उन्होंने प्रसद्धि पशुपति नाथ मंदिर से भारतीय पुजारियों को हटाए जाने और नेपाली पुजारियों की नियुक्ति तक का प्रयास किया था। नेपाली सेना के प्रमुख को उन्होंने बर्खास्त कर भारत की नाराजगी बढ़ा डाली थी। भारत का मानना था कि ऐसा चीन के उकसावे पर वे कर रहे हैं। प्रचंड से लेकिन कहीं ज्यादा भारत विरोधी वर्तमान प्रधानमंत्री केपी ओली हैं। (क्रमशः)

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