जनता दरबार का आशय है जनता का ऐसा समागम जहां आमजन सीधे जनप्रतिनिधियों को अपनी समस्या से अवगत कराए और उसका त्वरित निराकरण किया जा सके। महिला शिक्षिका और मुख्यमंत्री के बीच हुए संवाद का जो वीडियो देखने को मिल रहा है उसमें जनता दरबार के बजाए किसी राज दरबार की अनुभूति होती है। एक भव्य मंच में सीएम बैठे नजर आ रहे हैं। सीएम और जनता के मध्य चारों तरफ बैरिकेडिंग है। पुलिस का भारी बंदोबस्त भी नजर आ रहा है। पूरा माहौल किसी राजा के दरबार सरीखा है। जाहिर है जब राजदरबार समान व्यवस्था होगी तो आचरण भी राजाओं जैसा ही होगा
रावण को महाज्ञानी होने के साथ-साथ महा अहंकारी भी माना जाता है। रामायण में दशरथ पुत्र राम नायक तो रावण खलनायक के बतौर सामने आता है। हमारी पौराणिक कथाओं के अनुसार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में एक थे ऋषि पुलस्त्य। माना जाता है कि पुलस्त्य ने ब्रह्मा से विष्णु पुराण सुना और कालांतर में उसे ऋषि पराशर को सुनाया। पराशर ने विष्णु पुराण की रचना की। पुलसत्य के पुत्र थे ऋषि विश्रवा। विश्रवा को अपनी एक पत्नी से रावण, कुंभकर्ण, विभीषण जैसे पुत्र हुए तो दूसरी पत्नी से कुबेर का जन्म हुआ। रावण को शिव का परम भक्त, उच्च कोटि का राजनीतिज्ञ, शूरवीर, शास्त्रों और शस्त्रों का प्रखर ज्ञाता और महाज्ञानी माना गया है। इसके बावजूद वह एक निष्कासित राजकुमार राम और उनकी वानर सेना से यदि पराजित हो गया तो इसके मूल में उसका अति अहंकारी होना था। राम चरित्र मानस और बाल्मीकि रामायण में रावण के ज्ञान, उसके बाहुबल और लंका के ऐश्वर्य का भरपूर वर्णन है। बाल्मीकि ने हनुमान के रावण दरबार में प्रवेश करते समय का वर्णन करते हुए लिखा :
अहो रूपमहो धैर्य महोत्सव महो धु्रतिः
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षण युक्तता।
आज के दौर में, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था होने पर भी, अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को राजाओं समान अहंकारी आचरण करते हुए देख मुझे महाबली, महा ऐशवर्यवान्, परमज्ञानी रावण का स्मरण हो आया। तात्कालिक संदर्भ उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का है जो पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में एक निरीह शिक्षिका संग अपने बर्ताव चलते छाऐ हुए हैं। यह उत्तराखण्ड की त्रासदी है कि गलत कारणों के चलते वह सुर्खियों में रहने को अभिशप्त राज्य बन चुका है। मान्यता अनुसार देवभूमि कहे जाने वाला राज्य 2013 में केदारनाथ में आई प्राकृतिक आपदा के चलते भगवान शिव के दर्शन करने गए तीर्थयात्रियों की अकाल मृत्यु से पूरे विश्व में चर्चा का विषय रहा था। आपदा को दैवीय आपदा कहा गया था। सच लेकिन यह कि वह पूरी तरह मनुष्य जनित आपदा थी। प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ का नतीजा थी जिसके घटित होने के पश्चात् तत्कालीन विजय बहुगुणा सरकार की संवेदनहीनता और काहिली के चलते भी उत्तराखण्ड लंबे अर्से तक सुर्खियों में रहा। अब एक बार फिर यदि वह फोकस में है तो इसके पीछे डबल इंजन की सरकार के मुखिया का वह आचरण है जो उनके अहंकार को प्रदर्शित करता है। जनता दरबार में राज्य के मुखिया को अपनी समस्या बताने पहुंची एक सत्तावन वर्षीय महिला संग जिस प्रकार का बर्ताव मुख्यमंत्री का रहा वह हर दृष्टि से निदंनीय है। जनता दरबार का आशय है जनता का ऐसा समागम जहां आमजन सीधे जनप्रतिनिधियों को अपनी समस्या से अवगत कराए और उसका त्वरित निराकरण किया जा सके। महिला शिक्षिका और मुख्यमंत्री के बीच हुए संवाद का जो वीडियो देखने को मिल रहा है उसमें जनता दरबार के बजाए किसी राज दरबार की अनुभूति होती है। एक भव्य मंच में सीएम बैठे नजर आ रहे हैं। सीएम और जनता के मध्य चारों तरफ बैरिकेडिंग है। पुलिस का भारी बंदोबस्त भी नजर आ रहा है। पूरा माहौल किसी राजा के दरबार सरीखा है। जाहिर है जब राजदरबार समान व्यवस्था होगी तो आचरण भी राजाओं जैसा ही होगा। प्रार्थी शिक्षिका शुरुआती संवाद में बहुत शालीनता से अपनी व्यथा मुख्यमंत्री को सुना रही हैं। मुख्यमंत्री लेकिन सुनने के मूड में नहीं हैं। वे शिक्षिका की समस्या, उसकी व्यथा पर कुछ कहने के बजाए उल्टे उस पर नाराज होने लगते हैं। शिक्षिका सीएम से बहस करती है, उन्हें बताना चाहती है कि वह पिछले पच्चीस बरस से राज्य के दुर्गम क्षेत्र में नौकरी करती आ रही है जो अब उसके पति की मृत्यु के पश्चात संभव नहीं है। वह राजधानी देहरादून में अपने स्थानांतरण की मांग करती हैं। सीएम भड़क उठते हैं और उसे सस्पेंड कर दिए जाने की चेतावनी देते हैं। शिक्षिका, जो निश्चित ही बेहद आक्रोशित है, सीएम को पलट कर जवाब दे देती है। इससे सीएम साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। वे सुरक्षाकर्मियों को आदेश देते हैं कि इस शिक्षिका को गिरफ्तार कर लिया जाए। उनके आदेश का तत्काल अनुपालन होता है। मुख्यमंत्री का गुस्सा इतने से ही शांत नहीं होता। वे शिक्षका को नौकरी से सस्पेंड भी करने का आदेश सुना देते हैं। सीएम साहब का यही आचरण राष्ट्रीय खबर बन जाता है और उत्तराखण्ड एक बार फिर गलत कारणों के चलते सुर्खियों में आ जाता है। उत्तराखण्ड में सरकारी कर्मचारियों का ट्रांसफर एक बड़ी समस्या है। समस्या के मूल में है राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं का टोटा होना। इसके चलते कोई भी पहाड़ में जाना नहीं चाहता। राज्य गठन से पूर्व उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते पहाड़ों में तैनाती सजा के तौर पर की जाती थी। राज्य बनने के बाद निश्चित ही सुविधाओं में इजाफा हुआ है। संपर्क मार्ग बने हैं। सरकारें प्राथमिक सुविधाओं को उपलब्ध कराने का भरसक प्रयास भी करती आई हैं। लेकिन तमाम प्रयायों के बावजूद हालात बहुत सुधरे नहीं हैं। पहाड़ों में स्वास्थ्य सेवाओं का बेहद खराब हाल है। स्कूल हैं तो शिक्षक नहीं हैं। ऐसे में सरकारी कर्मचारियों का पूरा प्रयास मैदानी इलाकों में तैनाती पाने का रहता है। यही कारण है कि ट्रांसफर राज्य में भ्रष्टाचार का केंद्र बन चुका है। सुगम यानी मैदानी इलाकों में तैनाती दिलाने के लिए दलाल सक्रिय हैं जो लाखों रुपये ले यह काम करा देते हैं। खण्डू़़ी जी के मुख्यमंत्री रहते इस धंधेबाजी पर अंकुश लगाने की नीयत से एक कठोर ट्रांसफर नीति बनी लेकिन वह कागजों तक ही सिमट कर रह गई। हालात अब यह हैं कि यदि आप रसूख वाले हैं या फिर आप रिश्वत दे सकने की सामर्थ्य रखते हैं तो मनमाफिक पोस्टिंग हाजिर है। अन्यथा दुर्गम स्थानों पर पड़े रहिए। जिन शिक्षिका पर मुख्यमंत्री भड़के वह कई बरसों से दुर्गम स्थान पर नौकरी कर रही हैं। अब वे अपने बच्चों की परवरिश की खातिर देहरादून आना चाहती हैं। समस्या यह कि उत्तराखण्ड शिक्षा विभाग के नियमनुसार जिस जिले का कॉडर उन्हें एलाट हुआ है, वहीं उनको ट्रांसफर किया जा सकता है। ऐसा मैंने सोशल मीडिया में पढ़ा। यदि ऐसा है तो भी मुख्यमंत्री को उनकी समस्या को सहानुभूतिपूर्वक सुनना चाहिए था। दो बोल यदि वे मीठे बोल देते तो शायद इतना बवाल न होता। शिक्षिका का रोष जायज है। उन्होंने अपना आपा खोते हुए यदि मुख्यमंत्री जी के सम्मान में कुछ गलत कह भी दिया तो त्रिवेंद्र सिंह रावत को चाहिए था कि वे बड़प्पन का परिचय देते। कैसी बिडम्बना है, कितनी हृदयविहीन सत्ता है कि रसूखदारों को तो तमाम नियम कानून दरकिनार कर मनचाही पोस्टिंग तत्काल मिल जाती है, आमजन को जेल भेज दिया जा रहा है। एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जहां नियमों को दरकिनार कर ऐसा किया गया है। राज्यसभा सभा अनिल बलूनी की शिक्षिका पत्नी को दिल्ली स्थित रेजिडेंट कमिश्नर के कार्यालय में प्रतिनियुक्ति मिल सकती है। राज्य के मुख्यमंत्री की पत्नी जो स्वयं शिक्षिका हैं, लंबे अर्से से सुगम यानी देहरादून में तैनात हैं। एक अन्य भाजपा नेता ज्योति गैरोला की पत्नी को गत् वर्ष भाजपा के सत्ता संभालने के साथ ही देहरादून अटैच कर दिया गया था। प्रदेश के नंबर दो मंत्री प्रकाश पंत की शिक्षिका पत्नी भी पिछले कई वर्षों से देहरादून में तैनात हैं। क्या अद्भुत शासन व्यवस्था है?
जाहिर है रसूखदारों के लिए नियम-कानून ताक में रख दिए जाते हैं जिसका नतीजा है सीएम के जनता दरबार, माफ कीजिएगा राजदरबार में हुआ घटनाक्रम जहां हताश महिला शिक्षिका अपना आपा खो बैठी क्योंकि उन्हें सत्ता तंत्र प्रताड़ित कर रहा था। मुख्यमंत्री ने आपा खोया क्योंकि उनके मन में चोर था और सत्ता का मद उनके सिर चढ़कर बोल रहा था। हिंदी में एक बड़े कवि हुए वैद्यनाथ मिश्र। दरभंगा, बिहार में जन्मे। फकीर किस्म के व्यक्ति थे। श्रीलंका जा पहुंचे 1936 में, बौध धर्म ग्रहण कर लिया। फिर भारत लौट आए। फक्कड़पन तो था ही, साथ ही व्यंग्य उनकी लेखनी में धार का काम करता था। शब्दों की ताप ऐसी कि सरकारें उसे सह न पाती। नतीजा कवि को जेल जाना पड़ता। कांग्रेस गांधी के नाम को लंबे अर्से तक भुनाती रही, आज तक सभी राजनीतिक दल इस काम को कर रहे हैं। वैद्यनाथ मिश्र जिन्हें आप और हम बाबा नागार्जुन के नाम से जानते हैं, ने इस पर लिखा-
‘गांधी जी का नाम बेचकर, बतलाओ कब तक खाओगे?
यम को भी दुर्गंध लगेगी, नरक भला कैसे जाओगे?’
इन्हीं नागार्जुन की एक कविता उत्तराखण्ड में घटित इस घटना के संदर्भ में याद हो आई। कुछ अशं बांचे शायद आप भी इससे जुड़ पाएंगे :
सच न बोलना
जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है। ़ ़ ़
ख्याल मत करो जनसाधारण की रोजी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमेरिका।
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज सजे। ़ ़ ़
सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा मिसरी पाओगे।
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-मजदूरों का,
हम मर-भुक्कों का क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का।