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  • कुछ अर्सा पहले एक खबर बजरिए ट्वीटर आई कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बीमार बच्चे को तत्काल उपचार उपलब्ध कराने के लिए अपना निजी विमान भेजा। इस खबर को मात्र तेरह सौ लोगों ने रिट्वीट किया यानी सोशल मीडिया में आगे बढ़ाया। खबर एकदम सच्ची थी।
  • एक अन्य खबर भी ट्वीटर के जरिए आई कि राष्ट्रपति ट्रंप के एक रिश्तेदार ने मरने से पहले अपनी वसीयत में लिखा था कि उन्हें किसी भी हालात में राष्ट्रपति नहीं बनना चाहिए। इसे अड़तीस हजार लोगों ने रिट्वीट किया। खबर पूरी तरज से फर्जी थी।
उपरोक्त दोनों उदाहरण अमेरिका की बेहद प्रतिष्ठित पत्रिका ‘साइंस’ में प्रकाशित एक शोध का हिस्सा हैं। फेक न्यूज यानी झूठी खबरों पर हुए व्यापक अध्यन पर आधारित इस रिपोर्ट से एक बात स्पष्ट तौर पर उभरी है कि झूठी खबरों का सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों पर तेजी से विस्तार होता है जबकि सच्ची खबरें ज्यादा टिक नहीं पाती।
फेक न्यूज यानी झूठी खबरों का मकड़जाल वर्तमान दौर में एक वैश्विक समस्या बन चुका है। चूंकि हमारे यहां वर्तमान में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रगति पर हैं और कुछ माह बाद ही आम चुनाव होने तय हैं, इसलिए यह आशंका बलवती होती जा रही है कि बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों ट्वीटर, वाट्सअप और फेसबुक के जरिए फेक न्यूज का इस्तेमाल इन चुनावों को प्रभावित करने के लिए किया जाएगा। केंद्रीय चुनाव आयोग केंद्र सरकार से इस विषय पर कठोर कानून बनाने की मांग तक कर चुका है। 2014 के आम चुनाव में पहली बार बड़े स्तर पर ऐसी झूठी खबरों की सुनामी देखने को मिली थी। मार्च 2014 में ‘विकी लीक्स’ के संस्थापक जूलियन असांज का एक संदेश पूरे देशभर में जबर्दस्त तरीके से वायरल हुआ था। इस संदेश में असांज भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे। यह पूरी तरह से झूठा यानी फेक था। स्वयं जूलियन असांज से इस बाबत एक आधिकारिक बयान जारी कर इसे फर्जी करार दिया था। सोशल मीडिया में इस प्रकार के फर्जी संदेशों की सुनामी इसके बाद से लगातार अपना कहर बरपा रही है। उदाहरण के लिए एक तस्वीर युवा उम्र के नरेंद्र मोदी की झाडू लगाते हुए खाली वायरल हुई। बाद में पता चला कि तस्वीर फोटोशॉप की गई थी यानी किसी अन्य की तस्वीर में मोदी का चेहरा चस्पा कर दिया गया था। तस्वीर का यह सच लेकिन सीमित सर्कुलेशन तक सिमट गया जिससे प्रसिद्ध आयरिश लेखक जोनाथन सिविफ्ट के कथन की पुष्टि होती है कि ‘झूठ उड़ता है जबकि सच उसके पीछे रगड़कर चल रहा होता है। (Falsehood flies, and truth comes limping after it) ‘इंडिया इस्पेंड’ नामक संस्था जो मुख्य रूप से समाचारों के पीछे का सच सामने लाने का काम कर रही है, के अनुसार सोशल मीडिया में फैल रही अफवाहों का एक भयावह परिणाम गौरक्षा से जुड़ी हिंसा का विस्तार होना रहा है। प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदू’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष अप्रैल माह में सोशल मीडिया प्लेटफार्म वाट्सअप में एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक मोटरसाइकिल सवार व्यक्ति को पार्क में खेल रहे बच्चे को अगवा करते दिखाया गया था। इस वायरल मैसेज के चलते देशभर में हिंसा भड़क उठी। बीस से अधिक मौत इस वीडियो के चलते देशभर में हुई जहां भीड़ ने निर्दोष लोगों को बच्चों का अपहरणकर्ता समझ पीट-पीटकर मार डाला। बाद में पता चला कि वीडियो कराची, पाकिस्तान के एक एनजीओ का बनाया गया था जिसमें आम जनता को बच्चों के अपहरणकर्ताओं से सावधान रहने की अपील की गई थी। इस वीडियो के कुछ अर्सा बाद ही पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता विजेता मलिक पर एक ऐसा ही वाट्सअप मैसेज भेजने का आरोप लगा जिसमें एक महिला संग कुछ मुस्लिम युवक छेड़छाड़ करते दिख रहे थे। बाद में पुलिस जांच में पता चला कि वीडियो एक फिल्म से काटकर बनाया गया था।
विश्वभर में इस समय गहन मंथन चल रहा है कि फेक न्यूज पर कैसे काबू पाया जा सके। समस्या इतनी गंभीर, इस कदर विकराल रूप ले चुकी है कि सरकारें अब सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए कठोर कानून बनाने की बातें करने लगी हैं। जाहिर है ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न उठने लगा है। एक बड़े वर्ग को अशंका है कि फेक न्यूज के बहाने सरकारें ऐसे समाचारों को दबाने का प्रयास करेंगी जो उनके अनुकूल नहीं हैं। यह एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की स्थिति है। पत्रकारिता में सबसे महत्वपूर्ण समाचारों के स्रोत की विश्वसनीयता होती है। प्रिंट मीडिया में किसी भी खबर के प्रकाशित होने से पहले सभी तथ्यों की गहरी जांच-पड़ताल किया जाना बेहद आवश्यक माना जाता है। न्यूज चैनलों में भी इसी प्रक्रिया का पालन किया जाता है। सोशल मीडिया ऐसे किसी भी बंधन से पूरी तरह मुक्त है। यहां किसी भी प्रकार के कायदे-कानून नहीं लागू हैं। फेसबुक, वाट्सअप से लेकर सैकड़ों अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म किसी समाचार, वीडियो आदि की विश्वसनीयता से कोई सरोकार न होने का दावा करते आए हैं। इन सभी का कथन है कि वे केवल माध्यम भर हैं। यानी जो कुछ भी इन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों में चलता है उसकी किसी भी प्रकार से जिम्मेदारी लेने से ये साफ-साफ इंकार करते आए हैं। एक भयावह सच फेक न्यूज की बाबत यह भी है कि विभिन्न देशों की सरकारें भी अपने पक्ष में इस प्रकार की झूठी खबरों का इस्तेमाल खुलकर कर रही हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों में बड़े स्तर पर सोशल मीडिया के जरिए झूठ का जाल फैलाया गया। हालांकि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप स्वयं फेक न्यूज के खिलाफ लगातार अपनी चिंता व्यक्त करते आए हैं, उन पर सबसे ज्यादा आरोप इसी फेक न्यूज के जरिए अपना प्रचार करने के लगे हैं। ट्रंप को ईसाई धर्म गुरु पोप का 2016 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान समर्थन दिए जाने के समाचार हों या फिर हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ जांच कर रहे अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई के एक अफसर की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत का झूठा समाचार इसकी बानगी भर हैं। फेसबुक और ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया के माध्यम इस कदर हरेक की जिंदगी में अपनी पैठ बना चुके हैं कि उन पर प्रतिबंध लगाने अथवा उन्हें रोक पाने में अमेरिका तक की कानून व्यवस्था असहाय नजर आ रही है। अमेरिकी संसद की एक समिति लगातार इन दोनों सोशल मीडिया संस्थानों संग वार्ता कर उन्हें कानूनी धमक दिखाकर, आर्थिक दंड का भय दिखाकर फेक न्यूज पर काबू पाने का रास्ता निकालने का प्रयास अवश्य कर रही है लेकिन कुछ सार्थक कर पाने में वह सफल होती नजर नहीं आ रही है। हमारे देश में तो हालात और ज्यादा चिंताजनक इसलिए भी हैं क्योंकि यहां अकेले वाट्सअप के ही लगभग बीस करोड़ से ज्यादा इस्तेमाल करने वाले हैं। कानून और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पिछले दिनों वाट्सअप प्रमुख क्रिस डेनियल संग लंबी बातचीत की। उन्होंने चेतावनी तक दे डाली कि यदि अफवाहों के प्रचार तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण लगाने में वाट्सअप और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म सार्थक कदम नहीं उठा पाते हैं तो भारत सरकार कठोर कदम उठाने से नहीं हिचकिचाएगी। रविशंकर प्रसाद की चेतावनी का कुछ असर तब देखने को अवश्य मिला जब वाट्सअप ने एक बार में पांच से ज्यादा लोगों को कोई संदेश भेजने पर रोक लगाई। वाट्सअप अब विभिन्न सूचना माध्यमों के जरिए फेक न्यूज के खिलाफ एक अभियान भी शुरू कर चुका है। ‘मिलकर मिटाएंगे अफवाहों का बाजार’ नाम से शुरू इस अभियान की शुरुआत अगस्त 2018 में एफएम रेडियो के जरिए बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में की गई। जिसे बाद में पूरे देशभर में भी प्रसारित किया गया है। वाट्सअप ने लेकिन कानून मंत्री के इस अनुरोध पर अभी तक अमल नहीं किया है कि झूठे संदेश को भेजने वाले व्यक्ति की पहचान स्थापित करने का तंत्र विकसित किया जाए।
सरकार चाहती है कि सोशल मीडिया की कंपनियां ऐसे संदेश के शुरुआती स्रोत तक पहुंचने की तकनीक को प्रयोग में लाए ताकि झूठ का व्यापार करने वालों पर कानूनी कार्यवाही की जा सके। वाट्सअप ऐसा करने को राजी नहीं। उसका तर्क है कि यह उसके ग्राहक की निजता के अधिकार का हनन होगा। चूंकि आम चुनाव सिर पर है इसलिए केंद्र सरकार और चुनाव आयोग की चिंता फेक न्यूज को लेकर बढ़ गई है। बहुत संभव है कि चुनाव आयोग 2019 में प्रस्तावित आम चुनाव से ठीक पहले सोशल मीडिया पर किसी प्रकार का अंकुश लगाने संबंधी कोई कठोर कदम उठाए। ऐसी चर्चा है कि सोशल मीडिया पर किसी पार्टी विशेष के पक्ष में चल रहे ट्वीट, पोस्ट अथवा वीडियो को पेड न्यूज की श्रेणी में रख दिया जाए। यदि ऐसा कुछ निर्णय चुनाव आयोग लेता है तो भी इसका कोई बड़ा असर पड़ने वाला है नहीं। झूठ का व्यापार और उसके व्यापारी इस प्रकार के प्रतिबंधों से पीछे हटने वाले नहीं।

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