विश्व की सबसे ताकतवर शख्सियत अपने लाव लश्कर, अपने परिवार समेत भारत आए, अहमदाबाद में एक विशाल जनसमूह से बतियाए, बापू के आश्रम गए, चरखा काता, फोटो सेशन किया फिर आगरा निकल गए। विश्वभर में प्रेम प्रतीक के तौर विख्यात ताजमहल में कुछ समय बिताया, ट्वीट कर ताज की तस्वीरें सोशल मीडिया में साझा की और दिल्ली के लिए रवाना हो गए। राष्ट्रपति ट्रम्प के अहमदाबाद पहुंचने से लेकर राष्ट्रपति भवन में उनके सम्मान में आयोजित रात्रि भोज तक, भारत के निजाम पूरी तरह ट्रम्पमय हो गये। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने अजीज मित्र की मेहमाननवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने गृह नगर अहमदाबाद में उन्होंने सवा लाख भारतीयों की भीड़ एक स्टेडियम में जुटा ली। इस विशाल जनसमूह ने अपने प्रिय नेता मोदी के अजीज मित्र का गर्मजोशी से स्वागत किया।
जब-जब प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में टंªप का नाम लिया, जनता जनार्दन ने पूरे स्टेडियम को तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान कर डाला। टंªप ने भी इस विशाल जनसमूह को संबोधित किया। जनता इस महान हस्ती को अपने बीच पाकर इतनी अभिभूत थी कि जब उन्होंने भारत रत्न से विभूषित सचिन तेन्दुलकर को ‘सूचिन’ कह पुकारा और विराट कोहली को ‘विरोट कोली’ कहा, तब भी मुदित जनसमुदाय ने जमकर तालियां बजा डाली। इस महान विभूति के पहले भारत दौरे के दौरान पूरी शासन व्यवस्था ‘महामना’ के स्वागत-सत्कार में इतनी मशगूल रही कि अपने घर में सुलग रही आग में पानी डालने तक का समय उसे नहीं मिला।
मीडिया में, विशेषकर सोशल मीडिया में छिटपुट खबरें पढ़ने को मिली कि किस प्रकार महामना की नजरों से छिपाने के लिए अहमदाबाद की झुग्गी-झोपड़ियों के आगे रातों रात दीवार खड़ी कर दी गई, कि किस प्रकार आगरा शहर का रातोंरात कायाकल्प हो गया, कि किस प्रकार महामना की यात्रा से पहले शहर के बाजारों को उनकी सुरक्षा पुख्ता करने की सद्इच्छा के चलते बंद करा दिया गया।
विश्व के सबसे शक्तिशाली, महाबली की भारत यात्रा को लेकर देश की खुफिया एजेंसियां हाई एलर्ट पर रहीं। स्वयं स्थानीय जूनियर महाबली, देश के सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोभाल पूरे समय हाई अलर्ट पर रहे। इतने चैंकन्ने कि इंटरनेशनल महाबली के पास परिंदा भी पर न मार सकने के इंतजाम लोकल महाबली ने सफलतापूर्वक कर डाले। इस सबके बीच देश का दिल यानी दिल्ली जल उठा, अठारह से अधिक मौतें हो गई।
महामना के भारत प्रवास के दौरान राजधानी की सड़कों में हिंसा का नंगा नाच खुलकर हुआ। दो धर्मों के अनुयायियों ने एक-दूसरे पर जमकर लाठियां भांजी, पत्थर मारे, गोली चलाई। दर्जनों मारे गए और दर्जनों घायल हुए दिल्ली के पुराने बाशिंदों की रूह कांपने लगी कि कहीं 1984 सा हाल न हो जाए। स्कूलों को बंद कर दिया गया। दंगा प्रभावित क्षेत्रों में धारा 144 लगा दी गई।
महामना वापस अपने देश चले गए। हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री ने अपने अजीज मित्र की यात्रा को यादगार बनाने के लिए दिन-रात मेहनत की। इतने मशगूल रहे कि दिल्ली को भूल गए। उनके कर्मठ, विश्वसनीय और शक्तिशाली सहयोगी, देश के गृह मंत्री भी इस दौरान बेहद मशरूफ रहे। दिल्ली की कानून व्यवस्था सीधे उनके अधीन है। देश के तमाम पैरामिलिट्री बल भी उनके अधीन हैं। उन्हें प्रधानमंत्री के बाद देश का सबसे ताकतवर राजपुरुष माना जाता है। लेकिन वे भी दिल्ली की आग को समय रहते बुझा पाने में विफल रहे।
एनडीटीवी, टीवी 18, बीबीसी समेत कई मीडिया संस्थानों के पत्रकारों को इस हिंसा के दौरान उपद्रवियों ने अपना निशाना बनाया। हिंसा में शामिल हिंदू भी थे, मुस्लिम भी। हिंदू उपद्रवी नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में नारे लगा रहे थे, जय श्री राम के जयकारे भी लग रहे थे तो दूसरी तरफ मुस्लिम इस नागरिकता संशोधन के विरोध में सड़कों पर थे। जब देश के प्रधानमंत्री अपने खास मित्र की मेहमानवाजी में जुटे थे, उनकी सरकार के नुमाइंगे विश्व स्तर पर बढ़ रहे आतंकवाद से लड़ने की रणनीति पर अमेरिकियों संग गंभीर विचार-विमर्श कर रहे थे, तब प्रधानमंत्री की पार्टी भाजपा के एक नेता कपिल मिश्रा भड़काऊ बयान दे दिल्ली की फिज़ा को खराब करने में जुटे थे।
एक जाहिल नेता वारिस पठान ‘अपने वालों’ की नुमाइंदगी करते हुए दहाड़ रहा था कि ‘हम पंद्रह करोड़, सौ करोड़ पर भारी हैं।’ बीते कुछ दिनों की घटनाओं का थोड़ा सा विश्लेषण साफ कर देता है कि या तो हमारा खुफियातंत्र स्थिति की गंभीरता को समझ पाने में पूरी तरह विफल रहा या फिर उसे खामोश रहने की हिदायत कहीं, किसी बड़े स्तर से दी गई थी।
विश्वविद्यालयों के भीतर बगैर ठोस कारण, बगैर विश्वविद्यालय प्रशासन की इजाजत लिए घुस जाने वाली दिल्ली पुलिस, दिल्ली को जलाने वालों को काबू नहीं कर पाई, जाहिर है या तो उसके पास फोर्स की कमी थी, या फिर आदेश थे कि मूकदर्शक बने रहो। कपिल मिश्रा भड़काऊ बयान देकर भी कानून की गिरफ्त से बाहर हैं, उन्होंने ऑन रिकार्ड कुछ कर गुजरने की धमकी शाहीन बाग में धरनारत लोगों की बाबत दी थी। उनके बयान के बाद दिल्ली का माहौल बिगड़ना शुरू हुआ।
वारिस पठान ने उस पर अपनी आहुति दी। जाफराबाद में हालात बिगड़ते साफ नजर आ रहे थे। लेकिन दिल्ली पुलिस का सारा ध्यान महामना की यात्रा पर था। सरकार चिंतित थी कि जिस पंचतारा होटल में महामना रुके हैं वहां की हवा को कैसे शुद्ध रखा जाए ताकि पीएम के अजीज मित्र को सांस लेने में तकलीफ न हो। इस सबके बीच दिल्ली की सांस घुटने लगी, अठारह की मौत हो गई, लेकिन लोकतंत्र के मजबूत स्तंभ मुदित होते रहे, इन महान शख्स पर, उनके ट्वीट्स पर, उनकी बेटी और दामाद पर, उनके भारत प्रेम पर।
मुख्यधारा के मीडिया में यही सब छाया रहा, सरकार का पूरा अमला अमेरिकी राष्ट्रपति की आवभगत में मशगूल रहा, न्यायपालिका के एक बड़े न्यायमूर्ति भी इस बीच प्रधानमंत्री के विराट व्यक्तित्व से खासे प्रभावित हो इतने भावुक हो गए कि खुलकर उनका स्तुतिगान कर डाला। तो इस तरह से कार्यपालिका, विधायकी (जो पहले से ही मोदीमय है), न्यायपालिका और प्रेस, सभी एक ही रौ में बह गए। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को ज्यादा चिंता, ज्यादा नाराजगी, ज्यादा मलाल उनकी अध्यक्ष सोनिया गांधी को ट्रंप साहब के सम्मान में राष्ट्रपति द्वारा दिए गए भोज में आमंत्रित न किए जाने का रहा, जल रहे दिल्ली से कहीं ज्यादा।
कुल मिलाकर यह कहने से मुझे गुरेज नहीं कि दिल्ली का माहौल बिगाड़ने के पीछे तंत्र की नाकामी और कुछ हद तक, जैसी आशंका एक वर्ग द्वारा व्यक्त की जा रही है, सत्ता की सहभागिता रही है। इस सबके बीच राष्ट्रपति ट्रंप की यात्रा से दोनों देशों के मध्य संबंध निश्चित तौर पर अधिक प्रगाढ़ हुए हैं, रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों का करीब आना भारत के लिए इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि अपने पुराने एवं विश्वस्त सहयोगी रूस पर उसकी निर्भरता कुछ कम होगी, द्विपक्षीय व्यापार बढ़ने से दोनों देशों में चल रही मंदी पर कुछ न कुछ सकारात्मक असर जरूर पड़ेगा।
वैश्विक स्तर पर बढ़ रहे आतंकवाद पर रोकथाम लगाने में भी दोनों मुल्कों के प्रयास कुछ न कुछ रंग अवश्य दिखाएंगे। निश्चित ही अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की नजरों में भारत-अमेरिकी संबंधों को तौला जाए तो राष्ट्रपति टंªप की यात्रा सफल कही जाएगी। प्रश्न लेकिन जरूर उठेंगे कि क्या दोनों देशों के नेता बगैर शोबाजी के, करोड़ों का धन खर्च बगैर, वह सब कुछ नहीं पा सकते थे जो कुछ भी इस यात्रा के दौरान और बाद में दोनों मुल्कों को एक-दूसरे से मिला।
प्रश्न आज नहीं तो कल प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार पर दिल्ली की हिंसा बाबत भी उछलेंगे। हालांकि, प्रधानमंत्री को शायद ही इस सबकी कोई परवाह हो। उनकी सफलता के मूल में राजनीति के स्थापित नियमों को दरकिनार कर प्रोडक्ट मार्केर्टिंग का ऐसा मायाजाल रचना रहा है जिसके बिना पर वे लगातार अपने अश्वमेध रथ पर सवार जीत हासिल करते जा रहे हैं। जो कुछ इन दिनों मुल्क में हो रहा है उसमें सबसे ज्यादा चिंतित और व्यथित करने का काम धर्म के नाम पर बढ़ रहे सामाजिक विद्वेष की आंधी में कथित बुद्धिजीवी वर्ग का शामिल हो जाना है।
मुझे वारिस पठान और कपिल मिश्रा सरीखे जाहिलों की सोच भयभीत नहीं करती। ऐसे नासमझों से तो हमारा मुल्क भरा पड़ा है। चिंता उन ‘चिंतकों’ के चलते जिसने समाज का पथ-प्रदर्शक होने की अपेक्षा रहती है। यदि ये भी धर्म के नाम पर पक्षकार हो गए तो तय समझिए कि समाज में गहरी पनप रही धर्म आधारित विभाजक रेखा एक और विभाजन का कारक बन कर रहेगी।