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Editorial

कुछ बातें रवीश कुमार के बहाने

मेरी बात

प्रणव रॉय और राधिका रॉय के स्वामित्व वाले समाचार चैनल एनडीटीवी का प्रबंधन अडानी समूह के हाथों में जाने को लेकर इन दिनों मीडिया, सोशल मीडिया और आमजन के मध्य कोहराम मचा हुआ है। हिंदी भाषियों के लिए खासकर एनडीटीवी हिंदी से जुड़े ख्याति प्राप्त पत्रकार रवीश कुमार का चैनल से इस्तीफा किसी सदमे से कम नहीं है। रवीश कुमार का स्तुतिगान इन दिनों अपने चरम पर है। रवीश के प्रशंसकों को लग रहा है कि यह ‘सौदा’ अडानी समूह ने रवीश कुमार की बुलंद आवाज को खामोश करने की नीयत से किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों से नाइत्तेफाकी रखने वालों का मानना है कि ऐसा उनके ही इशारे पर, उनकी रजामंदी चलते हुआ है। ऐसा लगने के, ऐसा माने जाने के वाजिब कारण भी हैं। रवीश कुमार उन चुनिंदा टीवी पत्रकारों में से एक हैं जो बेहद विपरीत और विषम परिस्थितियों में भी सच्चाई के पक्ष में खड़े रहे हैं। मैं हिंदी पट्टी के कई ऐसे टीवी पत्रकारों का नाम गिना सकता हूं जिन्हें सच के पक्ष में खड़ा रहने के अपने जुनून चलते सत्ता के कोप का शिकार होना पड़ा। ऐसे बहुत सारे हैं जिन्होंने बड़े मीडिया संस्थानों की अपनी नौकरी को इसी जुनून चलते या तो स्वयं लात मार दी या फिर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। पुण्य प्रसून वाजपेयी, अजीत अंजुम, अभिषार शर्मा का नाम ऐसों में शामिल है। अब रवीश कुमार भी इस सूची में दर्ज हो गए हैं। यह सभी सोशल मीडिया के जरिए अपने जुनून को जिंदा रखे हुए हैं। बगैर किसी खौफ से आज भी सच को जिंदा रखने की अपनी मुहिम को चला रहे हैं। सोशल मीडिया में इन प्रशंसकों की तादात से स्पष्ट होता है, तसल्ली भी मिलती है कि अंधभक्ति के काल में सच को सुनने और समझने वालां की कमी इस देश में नहीं है। अब रवीश कुमार भी इन जुनूनियों के बगलगीर हो चुके हैं। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा महज चंद दिनों में ही उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के फॉर्लोवर्स की तादात का लाखों में पहुंच जाने से लगाया जा सकता है। एनडीटीवी को लेकिन केवल और केवल रवीश कुमार के चलते, केवल और केवल रवीश कुमार की आवाज को बंद करने की नीयत चलते अडानी समूह ने नहीं खरीदा है। बहुत संभव है कि रवीश कुमार भी एक कारण हों लेकिन वे मुख्य कारण मेरी समझ से नहीं हो सकते हैं। यदि रवीश ही एकमात्र कारण होते तो उन्हें चैनल से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए सत्ता प्रतिष्ठान के पास विकल्प मौजूद था। एनडीटीवी का स्वामित्व अपरोक्ष रूप से रिलायंस समूह के हाथों में लंबे अर्से से था। वर्ष 2009 में एनडीटीवी के संस्थापक रॉय दंपति द्वारा मुकेश अंबानी के रिलायंस समूह से 403 करोड़ रुपए बतौर कर्ज लिए गए थे। इस कर्ज की शर्तों के अनुसार ही समय पर कर्ज न अदायगी के चलते रिलायंस समूह इस कर्ज के बदले एनडीटीवी के 29 प्रतिशत का मालिक बन गया। रिलायंस समूह ने एनडीटीवी को यह कर्जा अपनी एक कंपनी विश्व प्रधान कर्मिशयल प्राइवेट लिमिटेड (वीसीपीएल) के जरिए दिया था। अडानी समूह ने इस कंपनी वीसीपीएल को रिलायंस से इस वर्ष (2022) में खरीद लिया और इस तरह से वह एनडीटीवी की 29 प्रतिशत भागीदार हो गया। रिलायंस समूह ने कर्ज देते समय एनडीटीवी के संस्थापकों संग एक बेहद कड़ा समझौता किया था जिस चलते रॉय दंपति का कर्ज अदायगी न कर पाने के चलते अंततः अपनी कंपनी से मालिकाना हक गंवा देना वक्ती बात थी। ठीक ऐसा ही हुआ भी। इस पूरे ‘खेला’ में एक बड़ा पेंच लेकिन है जिससे इस आशंका को बल मिलता है कि इस पूरे ‘खेला’ में कहीं न कहीं वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान की भूमिका रही है। गौतम अडानी के रिश्ते केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व संग बेहद मधुर हैं। यह ऐसा सच है जो प्रत्यक्ष है, जिसे प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कस्तूरी की गंध बाबत संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है- ‘यदि सन्ति गुणाः पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयं, म्नहि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते।’

अर्थात कस्तूरी की गंध को सिद्ध नहीं करना पड़ता, वह तो स्वयं फैलकर अपनी सुबंध से वातावरण का सुवालित कर देती है। इसी प्रकार गुणवान और प्रतिभावान मनुष्य के गुण अपने आप फैल जाते हैं, उनका प्रचार नहीं करना पड़ता। यह कलयुग है। इसमें ‘गुणवान’ और ‘प्रतिभावान’ की परिभाषा सत्युग वाली नहीं रही है। आज के दौर में गौतम अडानी ‘गुणवान’ और ‘प्रतिभावान’, दोनों हैं और वर्तमान सत्ता संग उनके रिश्तों को किसी प्रमाण अथवा प्रचार की जरूरत नहीं है। कस्तूरी गंध समान इन रिश्तों को भी सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाले रिलायंस समूह ने एनडीटीवी का मालिकाना हक अपने पास क्यों नहीं रखा? क्यों उसने अपनी कंपनी अडानी समूह को बेच दी? वह भी तब, जब स्वयं रिलायंस समूह बड़ी तेजी से समाचार जगत में अपने पैर पसार रहा है। देश का सबसे बड़े न्यूज नेटवर्क ‘नेटवर्क-18’ का स्वामित्व रिलायंस समूह के पास ही है। ‘सीएनबीसी’ चैनलस् भी रिलायंस के ही हैं। ‘फोर्ब्स इंडिया’ और ‘ओवर ड्राइव’ पत्रिकाएं भी रिलायंस समूह की ही हैं। ‘फर्स्ट पोस्ट’ (www.firstpost.com) तथा मनी कंट्रोल (www.moneycontrol.com) भी रिलायंस की ही हैं। ऐसे में एनडीटीवी जैसे प्रतिष्ठित न्यूज चैनल को अपने कर्ज की एवज में रिलायंस बड़ी आसानी से अपने अधिकार में ले सकता था। वह बड़ी आसानी से रवीश कुमार को चैनल से बाहर किए जाने का निर्देश रॉय दंपत्ति को दे सकता था। अपने चैनल को बचाने के लिए रॉय दंपत्ति रिलायंस के इस निर्देश को मेरी समझ से तत्काल स्वीकार भी लेते। आखिरकार प्रणय रॉय-राधिका रॉय के लिए भी एनडीटीवी मिशनरी सोच वाली पत्रकारिता का माध्यम तो था नहीं। जिन्हें मेरी बात से इत्तेफाक न हो, वे प्रणय-राधिका के अतीत का पोस्टमार्टम करने के लिए स्वतंत्र हैं। उन्हें स्वयं ही सत्य से परिचय हो जाएगा। भारत में पत्रकारिता का इतिहास देख लीजिए। आजादी बाद से ही बड़ी पत्रिकाएं, समाचार पत्र और बाद में न्यूज चैनल का स्वामित्व ‘पवित्र पत्रकारीय’ मूल्यों की रक्षा करने वालों और प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानने वालों के हाथों कभी नहीं रहा है। फिर चाहे वह अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ समूह हो, ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह हो या फिर ‘इंडिया टूडे’ समूह, सभी के मालिकान बड़े औद्योगिक घराने से रहे हैं जिनको प्रेस की ताकत से व्यापारिक लाभ और सत्ता के साथ गठजोड़ का अवसर मिलता रहा है। ईमानदारी से, निष्पक्षता के साथ आकलन यदि करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि इन बड़े मीडिया घरानों का सत्ता संग रिश्ता समन्वयवाद और साहचर्य का रहता आया है। यही कारण है कि सरकार चाहे किसी की भी हो, कोई भी विचारधारा वालों की हो, इन बड़े प्रेस (मीडिया) घरानों ने हमेशा से ही ‘तटस्थता’ की नीति का अनुसरण ही किया है। कांग्रेस के लंबे शासनकाल के दौरान एक छद्म संपादकीय स्वतंत्रता का आभाष जरूर महसूस होता था, लेकिन वह था छद्म ही। वर्तमान समय में उस छद्मता को भी पूरी तरह से नकार दिए जाने चलते चौथे स्तंभ की कथित निष्पक्षता को निर्ममतापूर्वक दबाए-कुचले जाने की बात तेजी से उठने लगी है। कांग्रेस के लंबे शासनकाल के दौरान एकतरफा कथन (नैरेटिव) जरूर नहीं था। सत्ता की धारा के विपरीत जाने वालों को साधने की कांग्रेसी कला अलग थी, वर्तमान सत्ताधीशों की अलग है। यहां यह भी समझा जाना जरूरी है कि ऐसा अकेले हमारे देश में नहीं हो रहा है। जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता लोकतांत्रिक देशों में प्रेस (मीडिया) के पास है भी, वामपंथी सत्ता वाले देशों में तो वह भी नहीं है। सत्य को, विपरीत विचारधारा को ऐसे मुल्कों में ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति अपना पूरी तरह से कुचल दिया जाता है। वहां सत्ता बंदूक की नाल के बल पर ऐसा करती है। लोकतांत्रिक मुल्कों में पूंजी के बल पर ऐसा किया जाता है। अमेरिका में 1983 तक पचास कंपनियां देश के नब्बे प्रतिशत मीडिया को संचालित करती थीं। 2011 आते-आते यह स्वामित्व मात्र 6 बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों में चला गया है। हमारे यहां भी यही कुछ हो रहा है। रिलायंस समूह की ताकत अपरम्पार है। उससे टकराने या चुनौती देने का काम कोई अकेला अखबार या चैनल कर ही नहीं सकता। रिलायंस जिओ नेटवर्क आम भारतीय के जीवन पर पूरी तरह काबिज हो चुका है जिसके जरिए आमजन को वही परोसा जा रहा है जो यह समूह चाहता है, आज की सत्ता चाहती है। रिलायंस की इस ताकत को सत्ता भी बखूबी समझती है। यही कारण है कि 2014 के बाद मुकेश अंबानी की बरअक्स गौतम अडानी को खड़ा करने का खेला शुरू किया गया। भले ही गौतम अडानी विश्व के सबसे धनी व्यक्ति बन गए हों, उनका समूह कर्ज के दलदल में गहरे धंसा हुआ है। दूसरी तरफ रिलायंस समूह धीरे-धीरे कर्ज मुक्त होते जा रहा है। ऐसे में उसे कोई आवश्यकता नहीं थी कि वह एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल का स्वामित्व अपने हाथों ले जाने देता। वह भी अपने प्रतिद्वंद्वी के हाथों में।
बहरहाल कारण भले ही कुछ भी क्यों न हों, यह तय है कि काफी हद तक स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता का एक और माध्यम पूंजी और सत्ता की शक्ति के हाथों परास्त हो गया है इससे लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है। सोशल मीडिया जब तक सरकारी अंकुश से बाहर है, निष्पक्ष, बुलंद और मिशनरी सोच जिंदा रहेगी। यह प्रकृति का नियम है कि सत्य भले ही तात्कालिक तौर पर हारा हुआ प्रतीत हो, अंततः जीत उसी की होती है। ‘सत्यमेव जयते’ पर विश्वास बनाए रखने के सिवा हाल-फिलहाल हमारे पास कोई चारा है भी नहीं। इसलिए इसे अपने विश्वास में जिंदा रखिए और इसके सहारे ‘अच्छे दिन’ आने की उम्मीद जिलाए रखिए।

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