‘असहयोग आंदोलन’ की विफलता और ‘सविनय अवज्ञा’ आंदोलन की शुरुआत के मध्य का समय (1922-30) इस दृष्टि से खासा महत्वपूर्ण कहा जा सकता है कि एक तरफ गांधी और जिन्ना अलग-अलग कारणों चलते हताशा और निराशा के सागर में डूबने लगे थे तो दूसरी तरफ गांधी के नेतृत्व को लेकर पहले से ही आशंकित कांग्रेसियों के एक बड़े वर्ग ने खुलकर उनकी मुखालफत शुरू कर दी थी। इसी दौर में सावरकर ‘हिंदू राष्ट्र’ की अपनी अवधारणा लेकर सामने आए थे। गांधी की निराशा के मूल में असहयोग आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा तो थी ही, उन्हें स्पष्ट नजर आने लगा था कि जिस हिंदू-मुस्लिम एकता के सहारे वे अंग्रेज हुकूमत से लोहा लेने का साहस कर रहे थे, वह केवल वक्ती एकजुटता थी जो खिलाफत आंदोलन की विफलता के साथ ही दरकने लगी थी। 14 फरवरी, 1924 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा’ ‘…Unity which I fondly believed, in 1922, had been nearly achieved has, so for as Hindu and Musalmans are concernedsuffered a severe check. Mutual trust has given place to distrust’ (1922 में जिस हिंदू-मुस्लिम एकता पर मैंभरोसा कर रहा था और जिसे स्थापित भी कर दिया था। उसे गहरा धक्का लग चुका है। अविश्वास ने आपसी विश्वास का स्थान ले लिया है)
महात्मा का विरोध कांग्रेस के भीतर भी होने लगा था और स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय कांग्रेस से इतर अन्य विचारधाराओं द्वारा भी। वामपंथी विचारधारा यूं तो शुरू से ही गांधी विरोध का भाव लिए हुए थी, इस दौर में विशेषकर महात्मा को कांग्रेस भीतर अलग-थलग करने के उसने तीव्र प्रयास किए। इन प्रयासों को प्रसिद्ध क्रांतिकारी शंचीद्रनाथ सान्याल के गांधी को लिखे उस पत्र से समझा जा सकता है जिसे महात्मा ने ‘यंग इंडिया’ में 12 फरवरी, 1925 में प्रकाशित किया था और सान्याल द्वारा उन पर आरोपित प्रश्नों का उत्तर भी दिया था। सशस्त्र क्रांति के पैरोकारों में अग्रणी सान्याल ‘हिन्दुस्तान पब्लिक आर्मी’ के संस्थापकों में से एक थे। इस सेना का गठन राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान आदि ने मिलकर 1924 में किया था। बाद में इसका नाम ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ कर दिया गया था। भगत सिंह ने आगे चलकर इसी संगठन का नेतृत्व संभाला था। सान्याल और उनके साथी गांधी को एक बड़ा नेता अवश्य मानते थे लेकिन उनकी अहिंसा की थ्यौरी से इत्तेफाक नहीं रखते थे। 12 फरवरी, 1925 को गांधी ने अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में एक पत्र प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने लेखक का नाम नहीं दिया। यह पत्र शचीन्द्र नाथ सान्याल ने उन्हें लिखा था और उनसे आग्रह किया था कि वे अब स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व छोड़ दें क्योंकि उनकी नीतियों के चलते इस संग्राम की राह में अड़चनें पैदा हो रही हैं। सान्याल ने लिखा- ‘I think it is my duty to remind you of the promise you made sometime ago that you would retire from the political field at the time when the revolutionaires will once more emerge from their silence and enter in to Indian political arena. The experiment with the non-violent non co-operation movement is now over. You wanted one complete year for your experiment, but the experiment lasted atleast four complete years, if not five, and still do you mean to say that the experiment was not tried long enougha?…Non- violent non-cooperation movement failed not
because there was sporadic out burst of suppressed feeling here and there but because the movement was lacking in a worthy ideal. The ideal that you preached was not in keeping with Indian culture and traditions. It devoured of imitation…It was not the spirit of ‘kshama’ of the indian rishis, it was not the spirit of ‘ahimsa’ of the great indian yogis…'(मैं इसे अपना कर्तव्य समझता हूं कि मैं आपको स्मरण कराऊं कि कुछ अर्सा पहले आपने वायदा किया था कि यदि खामोश बैठे क्रांतिकारी दोबारा सक्रिय होते हैं तो आप भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से संन्यास ले लेंगे। अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन का आपका प्रयोग अब समाप्त हो चला है। इस प्रयोग के लिए आपने देश से एक वर्ष का समय चाहा था जो पूरे चार बरस तक चला और विफल हो गया। यह आंदोलन यहां-वहां हुई हिंसक घटनाओं के चलते विफल नहीं हुआ बल्कि इसकी विफलता का कारण एक योग्य और सही आदर्श का न होना था। आपका आदर्श (अहिंसा का सिद्धांत) भारतीय परंपराओं और संस्कृति के अनुकूल नहीं था। इस सिद्धांत में भारतीय ऋषियों की आत्मा और क्षमा भावना वास नहीं करती है और न ही इसमें भारत के महान योगियों का अहिंसा का सिद्धांत समाहित है)
सान्याल और उनके क्रांतिकारी साथियों के गांधी संग मतभेदों को इस पत्र के जरिए समझा जा सकता है। अपने उत्तर में महात्मा ने विस्तार से सभी आरोपों का जवाब देते हुए कहा ‘मैंने कभी भी किसी से भी, यह वायदा नहीं किया था कि मैं कब और कैसे राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लूंगा। हां यह मैंने अवश्य कहा था और एक बार फिर दोहराता हूं कि मैं निःसंदेह राजनीति से संन्यास ले लूंगा यदि मुझे लगेगा कि भारत मेरे संदेश को नहीं समझ पा रहा है और उसे खूनी क्रांति सही प्रतीत होती है। मैं किसी भी ऐसे आंदोलन का हिस्सा नहीं बनना चाहता हूं क्योंकि मेरी दृष्टि में इससे न तो भारत को और न ही विश्व को कोई लाभ मिल सकता है। मैं स्वीकारता हूं कि देशवासियों ने असहयोग के दौरान भारी संयम का परिचय दिया लेकिन मेरा मानना है कि अहिंसा के सिद्धांत का सही पालन करने में देश चूक गया…मैं क्रांतिकारियों के साहस और बलिदान से इंकार नहीं करता किंतु यह व्यर्थ का साहस और बलिदान है जिसके कारण एक महान लक्ष्य को पाने में बाधा उत्पन्न होती है।’
अतीत के जरिए वर्तमान को समझने और भविष्य का अनुमान लगाने के लिए इतिहास के साथ-साथ समकालीन साहित्य का भी अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण है। कहा भी जाता है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’ इसलिए वह अपने कथानक के भीतर बहुत कुछ ऐसा समाहित किए होता है जिसकी प्रतिबद्ध इतिहासकार अनदेखी कर देते हैं। इतिहास अध्ययन में साहित्य की भूमिका को लेकर मुख्य रूप से दो मत हैं। पहला मत जर्मन इतिहासकार लियोपाल्ड वॉन रांके द्वारा स्थापित किया गया जिसमें इतिहास को ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे लिखे जाने पर बल दिया गया है। दूसरा मत ब्रिटिश इतिहासकार एडवर्ड एच ़रार द्वारा प्रस्तुत किया गया जिसमें उन्होंने परंपरागत इतिहास लेखन जो केवल तथ्यों एवं घटनाओं पर निर्भर करता है, को खारिज करते हुए इतिहास को ‘अतीत और वर्तमान के मध्य संवाद’ करार दिया है। इस मत के समर्थक इतिहास के अध्ययन में समकालीन साहित्य को महत्वपूर्ण मानते हैं। रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकात्ता में इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर हितेंद्र पटेल की पुस्तक ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्त’ इस विषय पर प्रकाशित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। प्रो ़पटेल ने अपनी इस पुस्तक के जरिए साहित्य और इतिहास के मध्य के पुल को रेखांकित करने का गंभीर काम किया है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने चार दिग्गज भारतीय साहित्यकारों की कृतियों के जरिए 1885 से 1962 के भारतीय कालखंड को परखने का प्रयास किया है। ये चार साहित्यकार हैं भगवती चरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर और गुरुदत्त। इन चारों के राजनीतिक उपन्यास 75 बरस के आधुनिक भारत की यात्रा को समझने के लिए इस दृष्टि से खासे महत्वपूर्ण हैं कि इनके जरिए स्वतंत्रता संग्राम दौर में जनमानस की मानसिक स्थिति का अध्ययन कर कई ऐसे निष्कर्षों तक पहुंचा जा सकता है जिन्हें आधुनिक भारत के इतिहासकारों ने या तो जानबूझ कर अनदेखा किया या फिर उनके ऊपर ऐसा करने का वैचारिक दबाव रहा। भगवती शरण वर्मा के उपन्यास ‘भूले बिसरे चित्र’ का कथाकाल 1880 से 1930 के मध्य का है। वर्मा ने इस उपन्यास के प्रथम भाग में पुराने सामंती मूल्यों के टूटने और नए पूंजीवादी मूल्यों के उभरने का सशक्त चित्रण किया है। इस उपन्यास का एक पात्र गजराज सिंह नामक जमींदार है जो अपने गांव के साहूकार से कुछ रुपया उधार में लेता है और उसे अपनी बेटी के विवाह में झूठी शान शौकत दिखाने में उड़ा देता है। जमींदार का छोटा भाई ठाकुर बरजोर सिंह भी इसी बनिए से ऋण लेता है लेकिन उसे चुका पाने में असमर्थ हो जाता है। बनिया ठाकुर पर मुकदमा दर्ज करवा देता है। यह सामंती व्यवस्था के कमजोर होने की तरफ तो इशारा है ही, पूंजी के बढ़ते वर्चस्व की तरफ भी संकेत है। वर्तमान में जब शासन व्यवस्था पूरी तरह पूंजीपतियों के हाथों गिरवी हो चली है, भगवती बाबू के पात्रों का आपसी संवाद स्थापित करता है कि अतीत के जरिए वर्तमान और भविष्य को समझा जा सकता है। ठाकुर गजरात सिंह का यह कथन इस दृष्टि से खासा रोचक है- ‘बनिया अब राजा बनना चाहता है’। इसके जवाब में इलाके का नायब तहसीलदार कहता है ‘अब ताकत रुपए में है, शरीर की ताकत में नहीं। अंग्रेजों का राज है और अंग्रेज भी तो बनिए ही हैं।’ प्रोफेसर हितेंद्र पटेल अपनी इस पुस्तक में कहते हैं कि ‘तहसीलदार गंगा प्रसाद के माध्यम से भगवती जी ने यह दिखलाया है कि जब खिलाफत आंदोलन चल रहा था और हिंदू-मुसलमान एकता का नारा बुलंद हो रहा था, जमीनी स्तर पर लोग हिंदू और मुसलमान के रूप में ही सोच रहे थे। ऐसा लगता है कि भगवती जी का वर्णन यही संकेत दे रहा है कि खिलाफत आंदोलन के द्वारा गांधी भारत की एकता के लिए नहीं बल्कि इस्लाम के गर्व और उसकी ताकत के लिए काम कर रहे थे।’
1928 की शुरुआत में भारत आए एक ब्रिटिश आयोग जिसे ‘साइमन कमीशन’ कह पुकारा जाता है, का देश व्यापी विरोध एक बार फिर से गांधी और कुछ हद तक जिन्ना को राजनीतिक अवसान से बाहर लाने का कारण बना। इस कमीशन का उद्देश्य भारत का भविष्य तय करना था लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसमें एक भी भारतीय को शामिल न करके कमीशन के घोषित उद्देश्य पर प्रश्न चिन्ह लगाने का काम स्वयं ही कर डाला था। गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इस आयोग के संपूर्ण बहिष्कार का निर्णय लिया और पूरा देश ‘साइमन कमीशन गो बैक’ के नारों में डूब गया। मुस्लिम लीग का एक धड़ा इस आयोग के साथ वार्ता करने के लिए तैयार था लेकिन जिन्ना की कोशिशों के बाद लीग ने भी कांग्रेस का साथ दे एक बार फिर से हिंदू- मुस्लिम एकता की लौ जलाने का काम किया। हालांकि यह लौ क्षणिक थी और जल्द ही यह भभक कर बुझ गई।
क्रमशः