शास्त्री सरकार बामुश्किल दक्षिण भारत के भाषाई विवाद को शांत कर ही पाई थी कि सुदूर उत्तर भारत से उसके समक्ष एक नई समस्या आन खड़ी हुई। विषम परिस्थितियों में भारतीय संघ में शामिल हुए जम्मू-कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र संघ में लगातार चर्चा का विषय बना हुआ था। विलय के दौरान जवाहरलाल नेहरू के निर्देश पर शेख अब्दुल्लाह को महाराजा सर हरि सिंह ने जेल से रिहा कर अपनी रियासत का अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। शेख ने भारतीय फौज के साथ मिलकर कबिलाई आक्रमणकारियों को श्रीनगर में कब्जा करने को रोका था। नेहरू और शेख के मध्य गहरी मित्रता इस काल में रही। यह मित्रता लेकिन जल्द ही परस्पर अविश्वास के रिश्ते में बदलने लगी। शेख अब्दुल्लाह निश्चित रूप से कश्मीर रियासत को पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनने देना चाहते थे लेकिन भारत के प्रति भी उनकी निष्ठा संदेह से परे नहीं थी। नेहरू और उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित के मध्य इस विषय पर हुए पत्राचार से स्पष्ट होता है कि नेहरू की नजरों में शेख की स्थिति एक संदिग्ध की होती जा रही थी। 10 मई, 1950 को नेहरू ने विजय लक्ष्मी पंडित को लिखा- I am sorry to say that Sheikh Abdullah is behaving in a most irresponsible manner. the most difficult thing in life is what to do with one’s friend.’ (मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि शेख अब्दुल्लाह बहुत गैर जिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे हैं। जीवन में सबसे मुश्किल काम अपने मित्रों संग क्या करें, का संकट होता है।)
भारत-पाक के मधुर संबंध के पक्षधर थे शास्त्री

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-62
18 मई, 1950 को अपने एक अन्य पत्र में नेहरू ने लिखा- ‘Sheikh Abdullah has been behaving very badly in regard to domestic affairs and he appears to be bent on securing a conflit with us. He has gone to wrong hands there and is being misled. (आंतरिक मामलां में शेख अब्दुल्लाह बहुत बुरा आचरण कर रहे हैं और जान-बूझकर हमारे साथ विवाद पैदा करना चाह रहे हैं। वह गलत हाथों के हवाले हो पूरी तरह भ्रमित हो चले हैं।)
शेख अब्दुल्लाह दरअसल महाराजा सर हरि सिंह की राह पर चलते हुए जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाए जाने का सपना देखने लगे थे। सितंबर, 1950 में शेख ने भारत में अमेरिकी राजदूत लॉय हिन्डरसन से कश्मीर की बाबत बातचीत के दौरान जानना चाहा कि क्या अमेरिका एक स्वतंत्र कश्मीर को मान्यता देगा? शेख अब्दुल्लाह के बिगड़ते मिजाज का हल तलाशने का प्रयास 1952 में भारत के प्रधानमंत्री नेहरू और जम्मू-कश्मीर रियासत के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्लाह के मध्य हुए ‘दिल्ली समझौते’ के रूप में सामने आया। इस समझौते के अंतर्गत कश्मीरियों को भारतीय नागरिक बनाए जाने की एवज में जम्मू-कश्मीर रियासत को कुछ विशेष रियायतें दिए जाने पर सहमति बनी। इन रियायतों में राज्य का एक अलग झंडा, राज्य में बाहरी लोगां द्वारा जमीन खरीदने में रोक (धारा 370) तथा कश्मीर सरकार की रजामंदी बगैर आंतरिक असंतोष की स्थिति में भारतीय सेनाओं की तैनाती नहीं किए जाना शामिल था। इस समझौते का हिंदू बाहुल्य जम्मू इलाके में भारी विरोध शुरू हो गया। ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान – नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे’ का नारा तेजी से और बुलंद आवाज में जम्मू की गली-गली में गूंजने लगा। इस आंदोलन को हवा देने का काम दक्षिणपंथी संगठन ‘जम्मू प्रजा परिषद’ कर रही थी। अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष रह चुके श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ‘दिल्ली समझौते’ का मुखर विरोध कर शेख अब्दुल्लाह की आशंकाओं को तेज कर डाला। श्यामा प्रसाद मुखर्जी संविधान सभा के सदस्य और नेहरू सरकार में 1947 से 1950 तक मंत्री भी रहे थे। 1951 में उन्होंने भारतीय जनसंघ की नींव रखी जिसके बैनर तले 1952 में हुए पहले आम चुनाव में वे जीत हासिल कर लोकसभा सदस्य बने थे। डॉ ़ मुखर्जी ने ‘जम्मू प्रजा परिषद्’ के समर्थन में श्रीनगर जाने का फैसला किया। 8 मई, 1953 को दिल्ली से ट्रेन के जरिए श्रीनगर के लिए निकले मुखर्जी को शेख अब्दुल्लाह सरकार ने राज्य में प्रवेश करते ही हिरासत में ले लिया था। 23 जून की रात हृदयगति रुक जाने से श्रीनगर जेल में उनकी मृत्यु हो गई। डॉ ़ मुखर्जी की मृत्यु ने जम्मू में शेख के खिलाफ हिंदुओं के असंतोष को और उग्र करने का काम कर डाला जिसकी आंच दिल्ली तक महसूसी जाने लगी जहां कई स्थानों पर शेख अब्दुल्लाह को जान से मार डॉ ़मुखर्जी की मौत का बदला लेने का ऐलान करते पोस्टर चिपकाए गए। शेख अब्दुल्लाह ने पूरी तरह से अलगाववाद की राह इस आंदोलन चलते पकड़ ली थी। उन्हें यकीन था कि जब कभी भी वह एक स्वतंत्र राष्ट्र की बात उठाएंगे उन्हें अमेरिका का समर्थन मिल जाएगा। नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं को 10 जुलाई, 1953 के दिन श्रीनगर में संबोधित करते हुए शेख ने भारत सरकार संग सभी रिश्ते तोड़ने की तरफ इशारा करते हुए कह डाला ‘जब समय आएगा, मैं उन्हें अलविदा कह दूंगा’। शेख के अलगाववादी सुर ने भारत सरकार को तत्काल कार्रवाई करने के लिए मजबूर कर दिया। 8 अगस्त, 1953 को जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक प्रमुख और पूर्व महाराजा सर हरि सिंह के उत्तराधिकारी कर्ण सिंह ने बतौर ‘सदर-ए-रियासत’ अपने अधिकारों के अंतर्गत शेख को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर जेल में डाल दिया। अब्दुल्लाह लगभग ग्यारह बरस तक जेल में ही कैद रहे। उन पर देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का मुकदमा दर्ज किया गया। 1958 में दर्ज इस मुकदमे को ‘कश्मीर कॉन्स्पेरेसी केस’ (Kashmir Conspiracy case) कहा जाता है। शेख अब्दुल्लाह के करीबी नेता मिर्जा अफजल बेग ने शेख की गिरफ्तारी काल में 1955 में जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की मांग को तेज करते हुए ‘प्लेबिसाइट फ्रंट’ नामक एक संगठन खड़ा कर शेख को तत्काल रिहा किए जाने और रियासत में भारत संग विलय को लेकर रायशुमारी कराए जाने का आंदोलन शुरू कर डाला। मिर्जा को भी शेख के स्थान पर प्रधानमंत्री बने बक्शी गुलाम मोहम्मद ने देश विरोधी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। शेख और उनके साथियों पर 6 बरस तक देशद्रोह का मुकदमा चला। दिसंबर, 1963 में कश्मीर स्थित हजरतबल दरगाह से पैंगबर मोहम्मद का पवित्र बाल यकायक गायब होने चलते घाटी में माहौल तेजी से बिगड़ने लगा था। शेख अब्दुल्लाह पर चल रहे देशद्रोह के मामले पर फैसला आने से ठीक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने मुकदमा वापस लिए जाने और शेख को रिहा किए जाने का फैसला ले लिया। नेहरू की मृत्यु पश्चात शास्त्री के प्रधानमंत्रित्वकाल में एक बार फिर से शेख अब्दुल्लाह ने भारत सरकार की नाराजगी मोल ली। 1965 में शेख मक्का की यात्रा पर निकले थे। वह पहले ब्रिटेन गए और वहां से उत्तरी अफ्रिकी देश अल्जीरिया गए जहां उन्होंने चीन के प्रधानमंत्री चाऊ इन लाई संग एक गोपनीय बैठक कर कश्मीर मुद्दे को एक अलग ही दिशा दे डाली। हालांकि इस मुलाकात का विवरण कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया लेकिन उस दौर में यही माना गया था कि शेख ने शत्रु राष्ट्र के प्रधानमंत्री संग कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र बनाए जाने की संभावना पर चर्चा करी थी। लाल बहादुर सरकार ने इसे देशद्रोह का आचरण करार देते हुए शेख अब्दुल्लाह को भारत वापस लौटते ही फिर से गिरफ्तार कर सुदूर दक्षिण भारत के शहर कोडईकनाल में नजरबंद कर दिया। इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर से भारतीय सीमा में सैन्य गतिविधियां तेज करनी शुरू कर दी। लाल बहादुर शास्त्री पाकिस्तान के साथ मधुर संबंध बनाए जाने के पक्षधर थे। बतौर प्रधानमंत्री देश के नाम अपने पहले संबोधन में 11 जून, 1964 को पाकिस्तान का जिक्र करते हुए शास्त्री ने कहा था-…For too long have India and Pakistan been at odds with each other. The unfortunate relations between the two countries have somehow have had their repurcussions on the relation between communities in the two countries, giving rise to tragic human problems. We must reverse the tide. This will require the determinations and good sense on the part of the governments and people of both India and Pakistan. President Ayub Khan’s recent broadcast showed wisdom and understanding and it has come just at the appropriate time. However a great deal of patience will still be necessary.'(..लंबे अर्से से भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के विपरीत खड़े हैं। दोनों देशों के मध्य दुर्भाग्यपूर्ण संबंधों का असर दोनों ही देशों के समुदायों के बीच दुखद मानवीय समस्याओं को जन्म दे रहा है। हमें इसे रोकना होगा। ऐसा करने के लिए दोनों देशों की सरकारों और नागरिकों की ओर से दृढ़ संकल्प और सद्भावना की जरूरत है। राष्ट्रपति अयूब खान का हालिया भाषण उनकी समझदारी का परिचायक है लेकिन हमें बहुत धैर्य रखने की अभी जरूरत है।) अक्टूबर, 1964 में शास्त्री गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में शामिल होने मिस्र गए थे। वापसी में वे पाकिस्तानी राष्ट्रपति से मुलाकात करने कराची में रुके। दोनों के मध्य 12 अक्टूबर के दिन सौहार्दपूर्ण वातावरण में आपसी संबंधों को सुधारने की बाबत सार्थक बातचीत हुई थी। पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने इस बातचीत के दौरान शास्त्री पर अपने असली इरादे जाहिर नहीं होने दिए। अयूब की मंशा सैन्य हस्तक्षेप के जरिए कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने की थी। पाकिस्तानी सेना के 1965 में प्रमुख रहे जनरल मोहम्मद मूसा ने इस बाबत अपनी पुस्तक ‘माई वर्जन’ में लिखा है- ‘In one of its sessions kashmir cell in December 1964, as far as I recollect, which was also attented by me at the request of the chief of the General Staff, Aziz Ahmad told us that he had discussed with the President, that morning, the Foreign office view that the time had come for GHQ to play a positive part in Kashmir and launch the raids they had proposed and that field Marshal Mohammad Ayub khan had approved it.’ (जहां तक मुझे याद पड़ता है, कश्मीर सेल की एक बैठक में जो दिसंबर, 1964 में सेना प्रमुख के अनुरोध पर बुलाई गई थी, अजीज अहमद ने हमें बताया कि उन्होंने राष्ट्रपति से विदेश मंत्रालय की राय बाबत बातचीत कर ली है। विदेश मंत्रालय का मानना है कि अब सेना मुख्यालय को कश्मीर मसले पर ‘सकारात्मक’ पहल शुरू कर देनी चाहिए और हमले शुरू कर देना चाहिए। राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान इस राय से सहमत हैं।)
क्रमशः