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Editorial

बोल कि लब आजाद हैं तेरे

मेरी बात

वर्ष 1975 में आपातकाल लागू होने के साथ ही तत्कालीन सत्ताधीशों ने प्रतिरोध के हर स्वर को चुप कराने की मुहिम छेड़ दी थी। भारतीय समाचार पत्रों  (तब निजी टीवी चैनल नहीं हुआ करते थे) के साथ-साथ विदेशी पत्रकारों को भी नहीं बख्शा गया था। ‘लंदन टाइम्स’, ‘न्यूज वीक’, ‘बीबीसी’ और ‘लंदन डेली टेलीग्राफ’ के संवाददाताओं को तत्काल भारत छोड़ने के आदेश जारी कर दिए गए थे। ‘न्यूज वीक’ के संवाददाता लॉरेन जेनक्न्सि ने भारत निकाले जाने के आदेश पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा था- ‘In 10 years of covering the world from Franco’s Spain to Mao’s China, I have never encountered such stringent and all encompassing censorship.’ (फ्रेंको के स्पेन से माओ के चीन तक दुनिया को कवर करने के 10 वर्षों में, मैंने कभी भी इस प्रकार की कठोर और संपूर्ण सेंसरशिप का सामना नहीं किया।) आपातकाल के काले काल का जिक्र आज इसलिए क्योंकि वर्तमान समय में भी प्रतिरोध के सुरों को बेसुरा साबित करते हुए उन्हें दबाने का प्रयास अपने चरम पर पहुंचता स्पष्ट नजर आने लगा है। यह मेरी आशंका मात्र नहीं है। एक नहीं कई ऐसे उदाहरण हैं जिनकी निष्पक्ष विवेचना प्रमाणित करती है कि वर्तमान समय में सत्ताधारियों के विरोध में स्वर बुलंद करना कठिन होता जा रहा है। नाना प्रकार के हथकंडे और सरकारी तंत्र का दुरुपयोग कर प्रतिरोध की हर आवाज को खामोश करने का चलन बीते कुछ बरसों के दौरान महामारी का रूप ले चुका है। अपनी बात को मैं बीते दिनों की दो घटनाओं के जरिए प्रमाणित करने का प्रयास कर रहा हूं। इस प्रयास के पीछे मेरा मकसद किसी दल विशेष को टारगेट करना कतई नहीं है। मेरा उद्देश्य केवल और केवल इतना भर है कि लोकतंत्र में प्रतिरोध की आजादी का सम्मान किया जाए ताकि लोकतंत्र बचा रहे, तानाशाही में न बदल जाए।

पहला उदाहरण ‘बीबीसी’ द्वारा गुजरात में वर्ष 2002 में हुए दंगों पर आधारित एक वृत्त चित्र पर प्रतिबंध लगाने और उसके बाद भारत स्थित इस समाचार प्रतिष्ठान के कार्यालयों में आयकर विभाग द्वारा कर चोरी की आशंका चलते छापेमारी का है। अंग्रेजी दैनिक ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अपने एक आलेख ‘ए बैफलिंग साइलेंस’ (एक चौंकाने वाली चुप्पी) में प्रख्यात लेखक और महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी लिखते हैं- ‘Is it really difficult, in today’s India, to speak out? Is it that tough, even in private, conversation, just to utter the simple truth that, our current government refuses, in parliament or outside, to answer the most obvious of questions?… Is it too risky to say that the government seems to be turning off the switches of India’s democratic institutions?’ (क्या आज भारत में अपनी बात कहना वाकई कठिन हो चला है? क्या यह इतना कठिन है, यहां तक कि निजी बातचीत में भी, एक सत्य कह पाना कि हमारी वर्तमान सरकार, संसद में या बाहर, प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर देने से इनकार कर देती है? . . .क्या यह कहना इतना जोखिम भरा है कि सरकार सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं के स्विच बंद करने में जुटी है?) राजमोहन गांधी का मानना है कि बीबीसी के दफ्तरों में आयकर विभाग की कार्रवाई का बड़ा असर अप्रवासी भारतीयों पर पड़ा है जो बड़ी तादात में पश्चिमी देशों में वास करते हैं। ऐसे अप्रवासियों को भारत सरकार की कार्रवारई चलते असहज स्थिति का शिकार होना पड़ रहा है।
दूसरा उदाहरण मलयाली पत्रकार जॉन ब्रिटास का है। ब्रिटास ‘कैराली टीवी’ के प्रबंध निदेशक और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के राज्यसभा सांसद हैं। 20 फरवरी को उनका एक लेख ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित हुआ। अपने इस लेख- पेरिल्स ऑफ प्रोपेगांडा’ (प्रचार के खतरे) में उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के कुछ बयानों पर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया है। बकौल जॉन ब्रिटास केंद्रीय गृहमंत्री ने कर्नाटक में चुनाव प्रचार के दौरान केरल की गलत तस्वीर सामने रखी है। अमित शाह ने कर्नाटक में दिए गए एक भाषण में कहा था कि ‘केवल भाजपा ही कर्नाटक को सुरक्षित रख सकती है। यह न भूलें कि केरल आपके निकट है।’ ब्रिटास का मानना है कि केंद्रीय गृह मंत्री का यह कथन कि ‘यह न भूलें कि केरल आपके निकट है’, आपत्तिजनक है क्योंकि ऐसा कह केंद्रीय गृह मंत्री केरल के खिलाफ दुष्प्रचार कर रहे हैं। वे अपने इस लेख में कहते हैं ‘…The state (Kerala) has a healthy political culture and it continues to withstand the corporate style hostile takeover and merger politics pursued by the BJP else where… it is this idea of Kerala that irks that BJP. In fact, Shah’s declarations are some what fataliotic because he senses that Kerala is an impregnable fortress of communal amity and therefore, beyond his reach-which also means he feels that he loses nothing by denigrating the state. His reason for belittling Kerala has to be seen as a bid to pull in votes else where. It ill-behoves a Union Home Minister to speak so harshly about a state that is part of the Union of India. This suggests a capitulation of all the values that Sardar Patel, who is zealously invoked by Shah- stood for.’ (केरल राज्य की एक स्वस्थ राजनीतिक संस्कृति है और भाजपा द्वारा कॉरपारेट शैली के तरीके से विपक्षी दलों को हथियाने या विलय करने की राजनीति का सामना करता रहा है . . .केरल की इस विचार शक्ति से भाजपा परेशान रहती है। वास्तव में शाह केरल की बाबत ऐसी बातें इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि केरल सांप्रदायिक सौहार्द का ऐसा अभेद किला है जिसे भेद पाना भाजपा के लिए संभव नहीं। इसका यह भी अर्थ है कि वे जानते हैं कि केरल को बदनाम करने से उनका कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि ऐसा करके किसी अन्य राज्य में वोट बटोरे जा सकते हैं। एक केंद्रीय गृह मंत्री के लिए भारतीय संघ के एक राज्य के लिए ऐसी कठोर बात कहना शोभा नहीं देता। इससे स्पष्ट होता है कि ऐसा कहना सरदार पटेल- जिन्हें पूरी शिद्दत से अमित शाह याद करते हैं, के सिद्धांतों संग समझौता है।)
वामपंथी सांसद जॉन ब्रिटास के उपरोक्त विचार पूरी तरह उनके निजी विचार हैं जो किसी भी दृष्टि से अत्यधिक उत्तेजक, विभाजनकारी, देशद्रोही और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण’ करने वाले नहीं हैं। केरल भाजपा के वरिष्ठ नेता पी सुधीर को लेकिन कुछ ऐसा ही लगा और उन्होंने राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को एक शिकायती पत्र भेजकर उनसे राज्यसभा सांसद पर कार्रवाई की मांग कर डाली। राजनीतिक दलों के नेता अक्सर ऐसा करते रहते हैं। लेकिन संसद के किसी सदस्य के निजी विचारों को लेकर सदन प्रमुख को शिकायत करना और सदन प्रमुख का ऐसे शिकायती पत्र को संज्ञान में लेते हुए संबंधित सदस्य को कारण बताओ नोटिस जारी करना संभवतः आजाद भारत में पहली बार हुआ है। लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान विशेषज्ञ पीडी आचार्य का स्पष्ट मत है कि संसद के दोनों सदनों के पीठाधिपतियों के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि जिसके अंतर्गत वे किसी सदस्य द्वारा लिखे गए किसी लेख पर कार्यवाही कर सकते हों। राज्यसभा के उपसभापति ने लेकिन ऐसा ही किया। प्रश्न उठता है कि क्या संघ के किसी मंत्री के विचारों से असहमति रखना देशद्रोह की श्रेणी में आता है? भारतीय संविधान अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देता है। असहमति लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है, बुनियादी आवश्यकता है। आपातकाल के दौरान इस बुनियाद को दरकते इस देश ने देखा-भोगा है। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मुगालता हो चला था कि देश केवल उन्हीं के हाथों में सुरक्षित है।
इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाए जाने के निर्णय को सही ठहराते हुए एक विदेशी पत्रकार से कहा था कि ‘मेरे अलावा भला और कौन है जो देश की रक्षा कर सकता है?’ उन्हें बड़ी गलतफहमी हो चली थी कि देश उनके ही हाथों में सुरक्षित है और उसे सुरक्षित रखने के लिए वे जो चाहे, जैसा चाहे निर्णय ले सकती हैं। संविधान संग खिलवाड़ इसी गलतफहमी का नतीजा था। 38वें, 39वें और सबसे ज्यादा 42वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए उन्होंने पूरा संविधान ही बदल डाला था। अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को वह खामोश करने में जुट गई थीं। 1974 में बिहार छात्र आंदोलन के दौरान ही प्रधानमंत्री के भीतर अंकुरित हो रहे तानाशाह को ललकारते हुए जनकवि बाबा नागार्जुन ने कविता लिखी और पटना के गांधी मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की उपस्थिति में पढ़ी थी- ‘इंदूजी क्या हुआ आपको/सत्ता की मस्ती में भूल गई बाप को/छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको/काले चिकने माल का मस्का लगा आपको।’ वर्तमान में भी कुछ ऐसा ही मुगालता आज के सत्ताधारियों को होता स्पष्ट नजर आने लगा है। हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती और सबसे बड़ी ताकत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह भारत की आत्मा का अभिन्न अंग है। यदि यही नहीं रहा तो भारत जड़ हो जाएगा। फैज अहमद फैज ने इस स्वतंत्रता की बाबत तभी तो कहा था-
बोल कि लब आजाद हैं तेरे।
बोल जबां अब तक तेरी है।।
बोल कि सच जिंदा है अब तक।
बोल जो कुछ कहना है कह दे।।

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