पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-11
सावरकर लंबी समुंद्र यात्रा के बाद 3 जुलाई, 1906 को लंदन पहुंच गए। यहां उनकी रिहाइश बना श्यामजी कृष्ण वर्मा का ‘इंडिया हाउस’। श्यामजी ने ही सावरकर को इंलैंड में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी थी। सावरकर इग्लैंड में जुलाई, 1906 से लेकर जुलाई 1910 तक रहे। 1 जुलाई, 1910 के दिन उन्हें बतौर ‘राष्ट्रद्रोही’ वापस भारत के लिए एक बंदी के बतौर इंलैंड से निकाल दिया गया था। इन चार वर्षों के अपने लंदन प्रवास के दौरान सावरकर ने वकालत की पढ़ाई के साथ-साथ अपनी संस्था ‘अभिनव भारत’ की गतिविधियों को आगे बढ़ाने का काम जमकर किया। इंडिया हाउस में सावरकर की मित्रता पांडुरंग महादेव बापट, हेमचंद्र दास, मिर्जा अब्बास, लाला हरदयाल, मदन लाल धिगड़ा सरीखे उग्र विचारों वाले ऐसे भारतीयों से हुई जो सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजों की सत्ता भारत से उखाड़ फेंकने के प्रबल पैरोकार थे। अपने चार बरस के लंदन प्रवास के दौरान सावरकर और उनके साथियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अप्रवासी भारतीयों से बड़े स्तर पर संपर्क कर उन्हें अपना समर्थक बनाने के साथ-साथ सशस्त्र क्रांति के लिए संसाधन जुटाने में पूरी ताकत लगा काम किया। इटली के क्रांतिकारी नेता ज्यूसेपे मेत्सिनी (Giuseppe Mazzini) से प्रभावित सावरकर ने लंदन आने के बाद एक बड़ा काम मेत्सिनी की आत्मकथा ‘Life and writings of joseph Giuseppe Mazzini’ का मराठी भाषा में ‘जोजेफ मेत्सिनी यांचे ‘आत्मचरित्र व राजकरण’ शीर्षक से अनुवाद कर किया। सावरकर का मानना था कि मेत्सिनी के नेतृत्व में शुरू हुई 1848 की इतावली क्रांति अपने मकसद को भले ही नहीं पा सकी, भारतीयों को उससे प्रेरणा लेकर अंग्रेज साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करनी चाहिए। पुस्तक को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया क्योंकि ब्रिटिश सरकार को लगता था कि इतावली क्रांति के नायक की जीवनी के बहाने सावरकर भारतीयों को उनकी हुकूमत के खिलाफ उकसाना चाहते हैं।
1857 के संग्राम की पचासवीं वर्षगांठ 1907 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा बड़ी धूमधाम से मनाई गई। एक मई 1907 को पूरे ब्रिटेन में ‘धन्यवाद दिवस’ का आयोजन हुआ। अखबारों में उन अंग्रेजों की शहादत को याद किया गया जिन्होंने 1857 में अंग्रेजी सत्ता की रक्षा करते हुए अपने प्राण गंवा दिए थे। चर्चा में प्रार्थना सभाओं का आयोजन किया गया और 1857 के संग्राम में शामिल भारतीयों को हत्यारों के बतौर पेश किया गया। ‘इंडिया हाउस’ ने इसके जवाब में एक बड़ा आयोजन किया जिसमें 1857 के संग्राम में मारे गए भारतीयों को शहीद कह पुकारा गया। ‘इंडिया हाउस’ इन गतिविधियों चलते ब्रिटिश सरकार की नजरों में आ गया और ब्रिटिश खुफिया पुलिस उस पर नजरें रखने लगी।
सावरकर ने 1857 के गदर को आजादी की पहली लड़ाई का दर्जा देते हुए एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था ‘अट्ठारह सौ सतावन स्वतंत्रता समर’ ‘(The Indian War of Independence of 1857)’। मराठी में लिखी गई इस पुस्तक को प्रकाशित कराने के लिए अभिनव भारत को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी। ब्रिटिश सरकार की सख्ती चलते न तो इस किताब को इग्लैंड में प्रकाशित कराया जाना संभव था, न ही भारत में। बमुश्किल हॉलैंड के एक प्रकाशक ने इसे प्रकाशित किया। भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो ने इस किताब को ‘खतरनाक’ मानते हुए भारत में बिक्री के लिए प्रतिबंधित कर डाला था। विनायक दामोदर सावरकर बचपन में ही बाल गंगाधर तिलक के विचारों और लेखनी से प्रभावित हो चुके थे। उग्र राष्ट्रीयता की चेतना के उभार के साथ-साथ उनके भीतर मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के दमन और शोषण की बात भी घर कर चुकी थी। ‘गणेश’ और ‘शिवाजी’ उत्सवों के जरिए उन्होंने भागुर, नासिक और पुणे में हिंदुओं के भीतर राष्ट्रवाद की चेतना उभारने को कार्य करते हुए हमेशा मुस्लिमों को संदेह की दृष्टि से देखते रहे। 1857 के गदर पर लिखी अपनी पुस्तक में लेकिन सावरकर इस मुद्दे पर विरोधाभास का शिकार हो गए। बाद के वर्षों में लिखी अपनी पुस्तकों में सावरकर का घोर हिंदुत्ववादी चेहरा स्पष्ट हो उभरता है, 1857 के संग्राम को कलमबद्ध करते समय सावरकर ने स्वीकारा कि इस गदर में और इसके दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता देखने को मिली। बकौल सावरकर ‘हिंदुओं और मुसलमानों के मध्य आपसी रंजिश का कारण अतीत की वे घटनाएं थी जिनमें मुसलमान आक्रमणकारियों ने भारत पर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए अनगिनत अत्याचारों हिंदुओं पर किए थे। लेकिन अब दोनों के सामने अंग्रेज एक दुश्मन के भांति सामने खड़ा था जो दोनों के धर्म और सत्ता के लिए खतरा बन चुका था। इसलिए आपसी मतभेद भुलाकर एक आम दुश्मन के खिलाफ दोनों ने हाथ मिला लिए। सावरकर लिखते हैं-
‘ … तो अब आपसी मतभेदों और दुश्मनी को किनारे रखना ही ठीक है। अब दोनों के मध्य शासक और प्रजा का, स्थानीय और विदेशी का, रिश्ता न रहकर केवल एक ही रिश्ता कहा जाता है, भाई चारे का, जिसमें फर्क केवल दोनों के अलग-अलग धर्मों का है। दोनों अब हिंदुस्तान की मिट्टी का संतानें हैं।’
अपनी इस किताब में सावरकर ने 1857 के नायक बतौर बहादुरशाह जफर का उल्लेख किया और किताब के अंत में बहादुरशाह की गजल का भी जिक्र किया। जफर अपनी इस गजल में कहते हैं-
‘दमदमे में दम नहीं खैर मांगों जानकी
अली जफर ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।
गाजियों में बू रहेगी जबतक इमान की
तब तक लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।’
‘दमदमे में दम नहीं खैर मांगों जानकी
अली जफर ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।
गाजियों में बू रहेगी जबतक इमान की
तब तक लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।’
सावरकर के लंदन आने के बाद से ही ‘इंडिया हाउस’ की गतिविधियों पर ब्रिटिश पुलिस नजर रखने लगी थी। ‘इंडिया हाउस’ के कर्त्ताधर्ता श्यामजी का कृष्णा वर्मा पर विशेष रूप से अंग्रेज सरकार की नजरें टेढ़ी होने लगी थी। श्यामजी ब्रिटेन के अखबारों में प्रकाशित होने वाले अपने लेखों और अपने अखबार ‘इंडियन सोशियोलोजिस्ट (Indian Sociologist) के जरिए ब्रिटिश भारत की दुर्दशा पर खुलकर लिखते थे। हालात धीरे-धीरे ऐसे बने कि श्यामजी ब्रिटेन छोड़ 1907 के अंत में पेरिस चले गए। ‘इंडिया हाउस’ की जिम्मेदारी उन्होंने विनायक दामोदर के हवाले कर दी। ‘इंडिया हाउस’ की कमान हाथ में आने के बाद सावरकर ने सशस्त्र क्रांति के अपने सपने को मूर्त रूप देने की दिशा में तेजी से काम करना शुरू कर दिया। विक्रम संपत ने अपनी पुस्तक में सावरकर की इन गतिविधियों का विस्तार से उल्लेख किया है। बकौल संपत सावरकर ने अपने साथियों की मदद से बम बनाने का तरीका सीखा और बकायदा एक ‘बम मैन्युअल’ प्रकाशित कराया ताकि भारत में ‘अभिनव भारत’ के लोग बम बनाने की तकनीक में पारंगत हो जाए। 1909 में इसी बम मैन्युअल और अवैध तरीकों को भारत में हथियार मंगाने और उन्हें ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ प्रयोग में लाने के आरोप चलते विनायक के बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर को नासिक में गिरफ्तार किया गया था। गणेश सावरकर पर राजद्र्रोह का मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सुना अडमान निकोबार की जेल जिसे ‘काला पानी’ कह पुकारा जाता था, भेज दिया गया। अपने बड़े भाई को मिली कठोर सजा विनायक सावरकर के लिए बड़ा आघात थी। जेल भेजे जाने से पहले जनता में डर पैदा करने के लिए गणेश सावरकर को नासिक की सड़कों में हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़ कर घुमाया गया था। नासिक और पुणे जेल में कुछ समय बिताने के बाद गणेश सावरकर को काला पानी भेज दिया गया। अब ब्रिटिश सरकार के विनायक सावरकर पर फंदा कसना शुरू किया। उनकी हर गतिविधि पर लंदन में नजर रखी जानी लगी थी। इसी दौरान एक बड़ी घटना घट गई जिसके तार सीधे तौर पर सावरकर से जोड़ दिए गए। सावरकर विलायत में वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद वहां की प्रतिष्ठा ग्रेस इन बार (Grey’s Inn Bar) में शामिल होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। गणेश सावरकर को काला पानी की सजा दिए जाने के बाद भारतीय मामलों के मंत्री लॉर्ड जॉर्ज हेमिल्टन के विशेष सहायक सर विलियम हर कर्जन वायसी ने ग्रेस इन बार को पत्र लिखकर विनायक सावरकर को बार की सदस्यता न दिए जाने की बात कही थी। बार ने सावरकर को सदस्यता दिए जाने की इजाजत नहीं दी। एक जुलाई 1909 के दिन विनायक दामोदर सावरकर के साथी मदन लाल धीगड़ा ने एक कार्यक्रम में भाग ले रहे सर विलियम कर्जन वायसी की गोली माकर हत्या कर दी। इस दिन दहाड़े हुए हत्याकांड ने पूरे इग्लैंड को स्तब्ध कर डाला। इस हत्याकांड से ठीक एक दिन पहले धीगड़ा ने सावरकर से मुलाकात की थी। इस मुलाकात के दौरान सावरकर ने धीगड़ा को कहा था ‘यदि हम असफल हुए तो मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना।’ आगे चलकर सावरकर की इन्हीं गतिविधियों ने उन्हें इग्लैंड से सीधे ‘काला पानी’ भेजने का काम किया था। धीगड़ा के इस कृत्य ने अंग्रेजों को तो गहरा सदमा दिया ही, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समेत उस दौर के महत्वपूर्ण भारतीयों, राजा-महाराजाओं और नवाबों ने भी इस घटना की खुलकर भर्त्सना की। सावरकर और ‘अभिनव भारत’ के उनके साथियों ने लेकिन धीगड़ा के इस कृत्य को न केवल जायज ठहराया बल्कि इस हत्याकांड के बाद धीगड़ा पर चले मुकदमें के दौरान भी उनके साथ खड़े रहे। 17 अगस्त, 1909 को धीगड़ा फांसी के फंदे पर लटका दिए गए। धीगड़ा के अंतिम वक्तव्य को सावरकर ने सामने लाने का महत्वपूर्ण काम किया। धीगड़ा ने अपने पर चले मुकदमें के दौरान किसी भी प्रकार की पैरवी करने से साफ इंकार कर दिया था। उन्होंने कोर्ट को सख्त लहजे में कहा ‘मैं बार-बार कह चुका हूं कि मैं इस अदालत को मान्यता नहीं देता हूं। आप जो चाहें फैसला लें, चाहें तो मुझे फांसी पर लटका दें, मुझे परवाह नहीं है। आप गोरे लोग अभी शक्तिशाली हैं लेकिन याद रखना कभी न कभी हमारा समय भी आएगा जब हम जैसा चाहेंगे, जो चाहेंगे, आप लोगों के साथ कर सकेंगे।’ फांसी की सजा मिलने के बाद मदन लाल धीगड़ा एक अंतिम वक्तव्य अदालत के सामने पढ़ना चाहते थे लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। सावरकर और उनके साथियों ने इस वक्तव्य को किसी प्रकार हासिल कर उसे लंदन के एक अखबार ‘डेली न्यूज’ में प्रकाशित करवा डाला।
क्रमशः