पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-17
साइमन कमीशन का भारी विरोध पूरे देश-भर में हुआ। जब यह कमीशन लाहौर यात्रा पर था तब नौजवानों के एक संगठन ‘भारत नौजवान सभा’ ने इसके खिलाफ बड़े प्रदर्शन का आयोजन किया। इस नौजवान सभा की स्थापना 1926 में एक 19 बरस के युवा भगत सिंह ने की थी। पंजाब के एक देश भक्त परिवार में 26 सितंबर, 1907 को गांव संगा, जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान) में जन्में भगत सिंह वामपंथी विचारधारा से प्रभावित एक ऐसे युवा थे जिनके प्रेरणा स्रोत गांधी और उनकी अहिंसावादी नीति कतई नहीं थी भगत सिंह के लिए आदर्श थे करतार सिंह ‘सरावा’। लुधियाना के जाट सिख करतार सिंह उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजे गए थे लेकिन वे प्रख्यात विश्वविद्यालय ‘यूनिवर्सिटी ऑफ बार्कले’ में दाखिला लेने के बजाए अनिवासी भारतीयों के क्रांतिकारी दल ‘गदर पार्टी’ में शामिल हो गए थे। भारत वापसी के बाद गदर पार्टी के अन्य क्रांतिकारियों जिनमें रास बिहारी बोस शामिल थे, ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की योजना बनानी शुरू कर दी थी। इस योजना का प्रथम चरण 21 फरवरी, 1915 के दिन फिरोजपुर और मियां मीर सैनिक छावनियों पर धावा बोलना था लेकिन एक साथी की मुखबरी चलते यह योजना परवान न चढ़ सकी। गदर पार्टी के कई कार्यकर्ताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। करतार सिंह इनमें शामिल थे। 19 वर्ष के करतार सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई और 1916 में उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया। भगत सिंह इन्हीं युवा क्रांतिकारी को अपना आदर्श मानते थे। उनके बटुए में हमेशा करतार सिंह की तस्वीर होती थी। लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध- प्रदर्शन में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता लाला लाजपत राय भी शामिल हुए थे। लाहौर के पुलिस सुपरिटेंडेट स्काट ने लाठीचार्ज का आदेश दिया जिसमें लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए थे और कुछ समय पश्चात् उनकी मृत्यु हो गई थी। भगत सिंह ने इसका बदला लालाजी पर लाठी बरसाने वाले अंग्रेज अफसर सार्न्डस को गोली मारकर लिया। इस हत्याकांड में भगत सिंह का साथ राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद ने दिया था। 17 नवंबर, 1928 को लालाजी की मौत हुई थी। 17 दिसंबर, 1928 को सार्न्डस को इन युवा क्रांतिकारियों ने मार डाला था। इस हत्याकांड को अंजाम देने के बाद इनके द्वारा लाहौर में चिपकाए गए पर्चो में जो लिखा था वह काबिल-ए-गौर है -‘With the death of J.P. Saunders the assissination of lala lajpat rai has been avenged. It is a matter of great regret that a respected leader of 30 Crores of people was attacked by an ordinary police officer like J.P. Saunders and met with his death at his mean hands. This national insult was a challange to young men. Today the world has seen that the people of India are not lifeless; their blood has not become cold. They can lay down their lives for the country’s honour. The proof of this has been given by the youth who are rediculed and insulted by the leaders of their own country…we are sorry to have killed a man. But this man was a part of cruel, despicable and unjust sytem that killing him was necessity…we are sorry for shedding human blood but it becomes necessary to bathe the alter of Revolution with blood- our aim is to bring about a revolution which would end all exploitation of man by man. long live revolution’ (जे ़पी ़सार्न्डस की मौत से लाला लाजपत राय की हत्या का बदला पूरा हो गया है। यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि 30 करोड़ लोगों के एक सम्मानित नेता पर एक जे ़पी ़ सार्न्डस सरीखे एक मामूली पुलिस अफसर ने हमला किया जिस चलते उनकी मृत्यु हो गई। यह राष्ट्रीय अपमान भारतीय युवाओं के समक्ष एक चुनौती थी। आज पूरे विश्व ने देख लिया कि भारत के लोग निर्जीव नहीं हैं, उनका खून अभी ठंडा नहीं हुआ है। अपने देश के लिए वे अपने प्राणों की बाजी लगा सकते हैं। इसका प्रमाण उन युवाओं ने दे दिया है जिन्हें उनके ही देश के नेता अपमानित करते हैं, उनका मजाक उड़ाते हैं …. हम इस हत्या के लिए क्षमा मांगते हैं लेकिन यह व्यक्ति एक निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अंग था इसलिए उसे खत्म करना जरूरी था …. मनुष्य का रक्त बहाने के लिए हमें खेद है लेकिन क्रांति की वेदी पर रक्त चढ़ाया जाना जरूरत है। हमारा लक्ष्य ऐसी क्रांति है जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देगी। इंकलाब जिंदाबाद)
भगत सिंह फ्रांस के अराजकतावादी अगस्ते वेंला (Auguste Vaillant) से खासे प्रभावित थे। वेंला ने 1893 में फ्रांस की संसद में बम धमाके करे थे। ‘मैं भगत सिंह बोल रहा हूं’ पुस्तक माला के पहले खंड में वेंला के प्रति भगत सिंह के झुकाव का जिक्र इस पुस्तक श्रृंंखला के लेखक राजशेखर व्यास ने किया है। वे लिखते हैं ‘भगत सिंह को एक दिन श्री राजाराम (द्वारकादास पुस्तकालय, लाहौर के अध्यक्ष) ने ‘अराजकतावादी’ पुस्तक पढ़ने को दी। इस पुस्तक में एक अध्याय था-‘हिंसा का मनोविज्ञान’। इसमें फ्रांस के अराजकतावादी नवयुवक ‘वेंला’ का वह बयान भी दिया गया था जो उसने फ्रांस में गिरफ्तार होने पर अदालत के सामने दिया था। इसमें उसने बताया था कि किस प्रकार पहले अपने ट्रेड यूनियनों को संगठित किया था, सार्वजनिक सभाओं में व्याखान दिए थे और शांतीमय प्रदर्शन किए, पर श्रमजीवियों तथा मेहनतकश श्रमिकों के शोषण पर कायम पूंजीवादी समाज के कर्णधारों पर उनको कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब ‘वेंला’ के मन में यह विचार उठा कि क्यों न फ्रांस की असेम्बली में बम का धमाका किया जाए, जिससे बहरे शासक जग जाएं, ‘बहरे कानों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज की जरूरत होती है।’ वेंला का बयान काफी लंबा और जोशीला था जिसे पढ़कर भगत सिंह उछल पड़े। इस पुस्तक को उन्होंने लाइब्रेरी से लगभग 64 बार निकालवाकर पढ़ा। वेंला के बयान को उन्होंने याद कर लिया। निश्चय ही वेंला के उदाहरण ने उनके मन में संकल्प धारण कर लिया था कि अवसर आने पर मैं भी ऐसा ही करूंगा।’
जल्द ही उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया। साइर्न्डस की हत्या के बाद भगत सिंह और उनके साथी लाहौर छोड़ पहले कलकत्ता (अब कोलकत्ता) और फिर दिल्ली पहुंच गए थे। ब्रिटिश पुलिस पूरी ताकत लगाकर भी इन क्रांतिकारियों को पकड़ पाने में विफल रही थी। 8, अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय परिषद् की दर्शक दीर्घा से दो बम सदन में फेंक धमाका कर दिया। इन बमों के फटने के बाद मची अफरातफरी के दौरान दोनों नवयुवक भाग भी सकते थे लेकिन वे अपनी जगह पर ही डटे रहे। उन्होंने असेम्बली हॉल में पर्चे फेंके जिनमें लिखा था। ‘बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाके करना जरूरी है।’ दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। इन धमाकों से थर्राई ब्रिटिश हुकूमत ने जल्द ही ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन द्वारा लाहौर और सहारनपुर (उ ़प्र ़) में बम बनाने की दो फैक्ट्रियों को जब्त कर लिया और साथ ही इस संगठन के कई सदस्यों निनमें सुखदेव और राजगुरू, शामिल थे, गिरफ्तार कर लिया गया। इन सब पर दो मुकदमें एक साथ चले थे। पहला मुकदमा सार्न्डस की हत्या का था जिसे ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ कहा जाता है। दूसरा असेम्बली हाल में बम विस्फोटक का था। साइर्न्डस की हत्या के आरोप में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई। असेम्बली बम धमाकों के लिए इन्हें आजीवन कारावास दिया गया था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। यह ऐतिहासिक सत्य है कि इन तीनों ने अंग्रेज हुकूमत से किसी भी प्रकार की क्षमा याचना करने से स्पष्ट इंकार कर दिया था। इनकी शहादत पर पूरा देश रोया। आक्रोशित युवाओं ने ‘गांधी मुर्दाबाद’ के नारे भी लगाए क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि गांधी चाहते तो तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इविंन पर दबाव डालकर इस फांसी को रूकवा सकते थे। उनका ऐसे सोचने के पीछे कई कारण थे। गांधी के प्रति नाराजगी का पहला कारण था सार्न्डस की हत्या बाद महात्मा की प्रतिक्रिया। गांधी ने इस हत्याकांड की कड़े शब्दों में निंदा की थी। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाला जाना न तो तर्क संगत है, न ही ऐतिहासिक दस्तावेजों के अध्ययन से यह साबित होता है कि गांधी ने इन युवा क्रांतिकारियों की जान बचाने के लिए प्रयास नहीं किए। गांधी अपने विचारों के प्रति कठोर प्रतिबद्वता रखते थे। उन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा की न केवल कड़ी निंदा की थी बल्कि चौरी चोरा कांड के बाद आंदोलन ही वापस लेने का एकतरफा निर्णय ले लिया था। यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि सार्न्डस की हत्या को महात्मा ने गलत ठहराया था लेकिन इस हत्याकांड के लिए उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों को जिम्मेवार करार दिया था। भगत सिंह एवं उनके साथियों को फांसी के फंदे से गांधी बचा सकते थे या नहीं एक ऐसा प्रश्न है जिसको लेकर इतिहासकारों ने अपनी-अपनी विचारधारा के बोझ तले निष्कर्ष निकाला है। इस विवाद के मूल में ‘गांधी-इविंन समझौता’ है जिसके इर्द-गिर्द ही इस प्रश्न का सही उत्तर तलाशने का काम आजतक होता आया है। यह वह समझौता था जिसके बाद ही कांग्रेस ब्रिटिश सरकार द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार हुई थी। असहयोग आंदोलन के दौरान हुई हिंसक घटनाओं से व्यथित गांधी 1922 से 1928 तक स्वघोषित राजनीतिक वनवास में रहे थे। इसी दौरान 1925 में गुजरात के किसानों ने राजस्व में की गई भारी बढ़ोत्तरी से परेशान हो आंदोलन की राह पकड़ ली। उनका नेतृत्व स्थानीय नेता वल्लभ भाई पटेल कर रहे थे। गुजरात के बारदोली (सूरत जिले की एक तहसील) से इस आंदोलन की शुरूआत हुई। गांधी की सलाह पर वल्लभ भाई पटेल ने सभी किसानों से आह्नान किया कि वे ब्रिटिश सरकार को किसी भी प्रकार का टैक्स न दें। इस आंदोलन को दबाने के लिए सरकार बहादुर ने अपनी पूरी ताकत झौंक दी थी। किसानों की संपत्ति को कुर्क कर उसकी नीलामी की गई। गांव के गांव सरकारी तंत्र के उत्पीड़न से बचने के लिए जंगलों में जा छिपे थे। तमाम हथकंड़े अपनाने के बाद अंततः सरकार को झुकना ही और टैक्स वृद्धि को वापस लेना पड़ा। इस आंदोलन की सफलता और इसके पूरी तरह अहिंसक रहने चलते गांधी का आत्मविश्वास वापस लौटा। पटेल भी इसी आंदोलन के कारण राष्ट्रीय स्तर के नेता बन उभरे। उन्हें सरदार की उपाधि बारदलोई की महिलाओं ने ही दी थी। इसी दौर में साइमन कमीशन का भारत में आगमन और भारी विरोध हुआ। कमीशन के रिपोर्ट आने से पहले ही कांग्रेस ने संवैधानिक सुधारों को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी कर दी जिसे मोतीलाल नेहरू ने तैयार किया था।
भगत सिंह फ्रांस के अराजकतावादी अगस्ते वेंला (Auguste Vaillant) से खासे प्रभावित थे। वेंला ने 1893 में फ्रांस की संसद में बम धमाके करे थे। ‘मैं भगत सिंह बोल रहा हूं’ पुस्तक माला के पहले खंड में वेंला के प्रति भगत सिंह के झुकाव का जिक्र इस पुस्तक श्रृंंखला के लेखक राजशेखर व्यास ने किया है। वे लिखते हैं ‘भगत सिंह को एक दिन श्री राजाराम (द्वारकादास पुस्तकालय, लाहौर के अध्यक्ष) ने ‘अराजकतावादी’ पुस्तक पढ़ने को दी। इस पुस्तक में एक अध्याय था-‘हिंसा का मनोविज्ञान’। इसमें फ्रांस के अराजकतावादी नवयुवक ‘वेंला’ का वह बयान भी दिया गया था जो उसने फ्रांस में गिरफ्तार होने पर अदालत के सामने दिया था। इसमें उसने बताया था कि किस प्रकार पहले अपने ट्रेड यूनियनों को संगठित किया था, सार्वजनिक सभाओं में व्याखान दिए थे और शांतीमय प्रदर्शन किए, पर श्रमजीवियों तथा मेहनतकश श्रमिकों के शोषण पर कायम पूंजीवादी समाज के कर्णधारों पर उनको कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब ‘वेंला’ के मन में यह विचार उठा कि क्यों न फ्रांस की असेम्बली में बम का धमाका किया जाए, जिससे बहरे शासक जग जाएं, ‘बहरे कानों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज की जरूरत होती है।’ वेंला का बयान काफी लंबा और जोशीला था जिसे पढ़कर भगत सिंह उछल पड़े। इस पुस्तक को उन्होंने लाइब्रेरी से लगभग 64 बार निकालवाकर पढ़ा। वेंला के बयान को उन्होंने याद कर लिया। निश्चय ही वेंला के उदाहरण ने उनके मन में संकल्प धारण कर लिया था कि अवसर आने पर मैं भी ऐसा ही करूंगा।’
जल्द ही उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया। साइर्न्डस की हत्या के बाद भगत सिंह और उनके साथी लाहौर छोड़ पहले कलकत्ता (अब कोलकत्ता) और फिर दिल्ली पहुंच गए थे। ब्रिटिश पुलिस पूरी ताकत लगाकर भी इन क्रांतिकारियों को पकड़ पाने में विफल रही थी। 8, अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय परिषद् की दर्शक दीर्घा से दो बम सदन में फेंक धमाका कर दिया। इन बमों के फटने के बाद मची अफरातफरी के दौरान दोनों नवयुवक भाग भी सकते थे लेकिन वे अपनी जगह पर ही डटे रहे। उन्होंने असेम्बली हॉल में पर्चे फेंके जिनमें लिखा था। ‘बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाके करना जरूरी है।’ दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। इन धमाकों से थर्राई ब्रिटिश हुकूमत ने जल्द ही ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन द्वारा लाहौर और सहारनपुर (उ ़प्र ़) में बम बनाने की दो फैक्ट्रियों को जब्त कर लिया और साथ ही इस संगठन के कई सदस्यों निनमें सुखदेव और राजगुरू, शामिल थे, गिरफ्तार कर लिया गया। इन सब पर दो मुकदमें एक साथ चले थे। पहला मुकदमा सार्न्डस की हत्या का था जिसे ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ कहा जाता है। दूसरा असेम्बली हाल में बम विस्फोटक का था। साइर्न्डस की हत्या के आरोप में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई। असेम्बली बम धमाकों के लिए इन्हें आजीवन कारावास दिया गया था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। यह ऐतिहासिक सत्य है कि इन तीनों ने अंग्रेज हुकूमत से किसी भी प्रकार की क्षमा याचना करने से स्पष्ट इंकार कर दिया था। इनकी शहादत पर पूरा देश रोया। आक्रोशित युवाओं ने ‘गांधी मुर्दाबाद’ के नारे भी लगाए क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि गांधी चाहते तो तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इविंन पर दबाव डालकर इस फांसी को रूकवा सकते थे। उनका ऐसे सोचने के पीछे कई कारण थे। गांधी के प्रति नाराजगी का पहला कारण था सार्न्डस की हत्या बाद महात्मा की प्रतिक्रिया। गांधी ने इस हत्याकांड की कड़े शब्दों में निंदा की थी। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाला जाना न तो तर्क संगत है, न ही ऐतिहासिक दस्तावेजों के अध्ययन से यह साबित होता है कि गांधी ने इन युवा क्रांतिकारियों की जान बचाने के लिए प्रयास नहीं किए। गांधी अपने विचारों के प्रति कठोर प्रतिबद्वता रखते थे। उन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा की न केवल कड़ी निंदा की थी बल्कि चौरी चोरा कांड के बाद आंदोलन ही वापस लेने का एकतरफा निर्णय ले लिया था। यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि सार्न्डस की हत्या को महात्मा ने गलत ठहराया था लेकिन इस हत्याकांड के लिए उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों को जिम्मेवार करार दिया था। भगत सिंह एवं उनके साथियों को फांसी के फंदे से गांधी बचा सकते थे या नहीं एक ऐसा प्रश्न है जिसको लेकर इतिहासकारों ने अपनी-अपनी विचारधारा के बोझ तले निष्कर्ष निकाला है। इस विवाद के मूल में ‘गांधी-इविंन समझौता’ है जिसके इर्द-गिर्द ही इस प्रश्न का सही उत्तर तलाशने का काम आजतक होता आया है। यह वह समझौता था जिसके बाद ही कांग्रेस ब्रिटिश सरकार द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार हुई थी। असहयोग आंदोलन के दौरान हुई हिंसक घटनाओं से व्यथित गांधी 1922 से 1928 तक स्वघोषित राजनीतिक वनवास में रहे थे। इसी दौरान 1925 में गुजरात के किसानों ने राजस्व में की गई भारी बढ़ोत्तरी से परेशान हो आंदोलन की राह पकड़ ली। उनका नेतृत्व स्थानीय नेता वल्लभ भाई पटेल कर रहे थे। गुजरात के बारदोली (सूरत जिले की एक तहसील) से इस आंदोलन की शुरूआत हुई। गांधी की सलाह पर वल्लभ भाई पटेल ने सभी किसानों से आह्नान किया कि वे ब्रिटिश सरकार को किसी भी प्रकार का टैक्स न दें। इस आंदोलन को दबाने के लिए सरकार बहादुर ने अपनी पूरी ताकत झौंक दी थी। किसानों की संपत्ति को कुर्क कर उसकी नीलामी की गई। गांव के गांव सरकारी तंत्र के उत्पीड़न से बचने के लिए जंगलों में जा छिपे थे। तमाम हथकंड़े अपनाने के बाद अंततः सरकार को झुकना ही और टैक्स वृद्धि को वापस लेना पड़ा। इस आंदोलन की सफलता और इसके पूरी तरह अहिंसक रहने चलते गांधी का आत्मविश्वास वापस लौटा। पटेल भी इसी आंदोलन के कारण राष्ट्रीय स्तर के नेता बन उभरे। उन्हें सरदार की उपाधि बारदलोई की महिलाओं ने ही दी थी। इसी दौर में साइमन कमीशन का भारत में आगमन और भारी विरोध हुआ। कमीशन के रिपोर्ट आने से पहले ही कांग्रेस ने संवैधानिक सुधारों को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी कर दी जिसे मोतीलाल नेहरू ने तैयार किया था।
क्रमशः
23 जुलाई, 2022