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Editorial

संजय और उनकी मां का दौर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-86
 
जेपी की रैली में गूंजे नारों की धमक इंदिरा तक उनकी खुफिया एजेंसियां लगातार पहुंचा रही थी। बगैर वक्त गंवाए प्रधानमंत्री आपातकाल लगाने का निश्चय कर राष्ट्रपति से सलाह-मशिवरा करने राष्ट्रपति भवन जा पहुंची। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद इंदिरा की कृपा चलते ही देश के सर्वोच्च पद पर पदासीन हुए थे। उन्होंने प्रधानमंत्री से मात्र इतना जानना चाहा था कि क्या उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठक बुला सहमति प्राप्त कर ली है? प्रधानमंत्री का जवाब था कि हालात बेहद नाजुक हैं और मंत्रिमंडल की बैठक बुलाए जाने तक का समय नहीं बचा है। उन्होंने राष्ट्रपति से अनुरोध किया कि आपातकाल की घोषणा किए जाने पश्चात् वे मंत्रिमंडल से इस बाबत अनुमोदन प्राप्त कर लेंगी। फखरुद्दीन अली अहमद ऐसा करने के लिए तैयार हो गए। प्रधानमंत्री दरअसल अपने मंत्री मंडलीय सदस्यों तक को अविश्वास भरी नजरों से देखने लगी थीं। विशेषकर दलित नेता और सरकार में रक्षामंत्री जगजीवन राम को वे पार्टी भीतर अपना प्रतिद्वंद्वी मानती थीं। उन्हें आशंका थी कि आपातकाल लगाए जाने की भनक यदि जगजीवन राम को लग गई तो वे मंत्रिमंडल की बैठक में इसका विरोध कर सकते हैं। एक कमजोर हड्डी वाले राष्ट्रपति से कुछ भी करा लेने की अपनी क्षमता से प्रधानमंत्री परिचित थी। उन्होंने फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल की उद्घोषणा बगैर मंत्रिमंडल की सहमति प्राप्त किए, स्वीकृत करा 25 जून की मध्य रात्रि आजाद भारत के स्वर्णिम लोकतांत्रिक इतिहास को बदलने और कुचलने का काम कर दिखाया। राष्ट्रपति से उद्घोषणा पर हस्ताक्षर कराने के साथ ही इंदिरा और उनके छोटे पुत्र संजय ने दमन चक्र धारण करने में देर नहीं लगाई थी। 25 जून 1975 की रात (अथवा 26 जून की सुबह) से ही विपक्षी दलों के नेताओं की धर-पकड़ शुरू कर दी गई। प्रधानमंत्री आवास पर तत्कालीन गृह राज्यमंत्री ओम मेहता और दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल बिशन चंद पूरी रात मौजूद रह संजय गांधी के इशारे पर लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार करने में जुटे रहे थे। रात तीन बजे जब सिद्धार्थ शंकर रे प्रधानमंत्री आवास से बाहर जा रहे थे तो उन्हें ओम मेहता ने जानकारी दी कि दिल्ली के सभी समाचार पत्रों के दफ्तर और प्रिंटिंग प्रेस की बिजली काटी जा रही है और सभी अदालतों को भी कल बंद रखने के आदेश दिए जा रहे हैं। शंकर यह सुन हतप्रभ हो उठे। तत्काल इस ‘बकवास’ को रोकने की बात कह वे दोबारा प्रधानमंत्री से मिले। इंदिरा गांधी यह सुन हैरान हो उठीं। सिद्धार्थ शंकर को थोड़ा इंतजार करने के लिए कह वे संभवतः संजय गांधी से बात करने घर भीतर चली गईं। शंकर अनुसार लगभग पंद्रह मिनट बाद जब वे बाहर आईं तो उनकी आंखें लाल थीं। वे निश्चित ही रोई थीं। उन्होंने रे से कहा था कि ऐसा कुछ नहीं होगा। न तो अखबार के दफ्तरों की बिजली काटी जाएगी और न ही अदालतें बंद रहेंगी। इस बीच संजय गांधी ने हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल को फोन कर इस घटनाक्रम की जानकारी दी तो बंसीलाल ने उन्हें कहा-‘इस आदमी (सिद्धार्थ शंकर रे) को निकाल बाहर कीजिए . . .यह सारा खेल बिगाड़ रहा है . . .यह खुद को बड़ा कानूनी विशेषज्ञ समझता है, हकीकत में इसे कुछ आता-जाता नहीं है।’ प्रधानमंत्री के कहे का लेकिन कुछ असर नहीं हुआ। सरकार समर्थक अंग्रेजी दैनिक ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ और ‘स्टेट्मैन’ को छोड़कर सभी महत्वपूर्ण अखबारों के दफ्तरों की बिजली 25 जून की रात काट दी गई।
विपक्षी दल के नेताओं की गिरफ्तारी का दौर तत्काल ही शुरू हो गया। 25 जून की रात तीन बजे दिल्ली स्थित ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ के एक कमरे में रुके जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी का समाचार सुन तत्काल जेपी के पास पहुंचे चंद्रशेखर को भी हिरासत में ले लिया गया। मोरारजी देसाई, राजनारायण भी इसी रात गिरफ्तार कर लिए गए। 26 जून की सुबह साढ़े सात बजे बैंगलौर (अब बेंगलुरु) के विधायक हॉस्टल में रुके जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी हिरासत में ले लिए गए। 26 जून की सुबह 6 बजे इंदिरा मंत्रिमंडल की आपात बैठक प्रधानमंत्री आवास पर बुलाई गई। इस बैठक में मौजूद मंत्रियों को पता तक नहीं था कि आपातकाल लागू हो चुका है। प्रधानमंत्री ने संक्षिप्त वक्तव्य में इस बात की जानकारी अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों से साझा की। बगैर किसी प्रतिरोध मंत्रिमंडल ने आपातकाल पर अपनी मोहर लगाने में देर नहीं लगाई थी। संजय गांधी इस दौरान प्रधानमंत्री आवास के सर्वेसर्वा बन चुके थे। उनके निर्देश न मानने का परिणाम तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल पर खासा भारी पड़ा था। आपातकाल लगने के दूसरे ही दिन उनके स्थान पर संजय गांधी के विश्वस्त विद्याचरण शुक्ल को सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना दिया गया था। प्रेस (मीडिया) पर सख्त पाबंदियों का दौर विद्याचरण की निगरानी पर बड़े पैमाने में शुरू कर दिया गया। हरेक समाचार को प्रकाशित करने से पहले सरकार से स्वीकृत कराए जाने का आदेश जारी कर पूर्ण सेंसरशिप लागू कर दी गई। सेंसरशिप का विरोध करते हुए अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने 28 जून से अपना संपादकीय पृष्ठ पूरी तरह काला प्रकाशित किया। इसी समूह के आर्थिक अखबार ‘फाइनेंसियल एक्सप्रेस’ ने रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता ‘जहां चित्त भय से शून्य हों (Where mind is tree fo fear) प्रकाशित कर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया था। रवींद्रनाथ की बांग्ला में लिखी इस कविता का अनुवाद हिंदी में कवि शिवमंगल सिंह सुमन ने कुछ यूं किया है-
जहां चित्त भय से शून्य हो
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्त हो
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खण्डों में विभाजित कर
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों
जहां हर वाक्य हृदय की गहराई से निकलता हो
जहां हर दिशा में कर्म की अजस्र नदी के स्रोत फूटते हों
और निरंतर अबाधित बहते हों
जहां विचारों की सरिता तुच्छ आचारों की मरु भूमि में न
खोती हो
जहां पुरुषार्थ सौ-सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो
जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभुतियां तुम्हारे
अनुगत हो
हे पिता, अपने हाथों से निर्दयतापूर्ण प्रहार कर
उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ!
एक्सप्रेस समूह को उनके प्रतिरोध के लिए आपातकाल में भारी संकट का सामना सरकारी तंत्र के हाथों झेलना पड़ा था। भारतीय प्रेस के साथ-साथ विदेशी अखबारों को भी सरकार ने नहीं बक्शा। ‘लंदन टाइम्स’, ‘न्यूज वीक’ और ‘लंदन डेली टेलीग्राफ’ के संवाददाताओं को तत्काल भारत छोड़ने के आदेश दे दिए गए थे। ‘न्यूज वीक’ के संवाददाता लॉरेन जेनकिन्स ने भारत निकाला के आदेश पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखाः
‘फ्रेंको के स्पेन से माओ के चीन तक दुनिया को कवर करने के 10 वर्षों में, मैंने कभी भी इस प्रकार की कठोर और सम्पूर्ण सेंसरशिप का सामना नहीं किया।’

विश्व भर में इस आपातकाल को लेकर तीव्र प्रतिक्रियाएं बौद्धिक समूह से देखने को मिलती है। विश्व की सरकारों ने लेकिन सीधे तौर पर प्रतिक्रिया देने से परहेज तब किया था। आपातकाल का प्रभाव लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्र पर अवश्य पड़ा। 1974 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को ‘वाटरगेट कांड’ में फंस जाने पश्चात इस्तीफा देना पड़ा था। उनके स्थान पर राष्ट्रपति बने जेराल्ड फोर्ड ने भारत में आपातकाल घोषित किए जाने पश्चात् अपनी प्रस्तावित भारत यात्र को टाल दिया। एक वर्ष पश्चात् अपनी चीन यात्र से पहले भारत में चल रहे आपातकाल पर टिप्पणी करते हुए दिसंबर 1975 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा था-

‘साठ  करोड़ लोग वह गंवा चुके हैं जो उनके पास 1940 के मध्य से था। मैं उम्मीद करता हूं कि आने वाले समय में वहां लोकतांत्रिक प्रणाली, जैसी अमेरिका में है, वापस लागू हो जाएंगी।’

वाशिंगटन में अप्रवासी भारतीयों ने आपातकाल का विरोध करने के लिए एक संस्था ‘इंडियंस फॉर डेमोक्रेसी’ का गठन करा। इस संस्था के बैनर तले भारतीय दूतावास के सामने एक विशाल प्रदर्शन 30 जून को आयोजित किया गया था। अमेरिकी श्रमिक संगठनों ने आपातकाल की कठोर शब्दों में निंदा करते हुए एक बयान जारी कर कहा-

‘भारत एक पुलिस राज्य में बदल गया है जहां लोकतंत्र का गला घोटा जा रहा है।’

ब्रिटेन ने युवराज प्रिंस चार्ल्स की भारत यात्र रद्द कर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया था। ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग
कॉरपोरेशन (बीबीसी) के प्रतिनिधि मार्क टली को सेंसरशिप न मानने चलते भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। पश्चिमी देशों की बनिस्पत पूर्वी देशों, विशेषकर सोवियत संघ व अन्य पूर्वी यूरोपियन देशों से इंदिरा को आपातकाल के दौरान किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं देखने को मिलता है। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य पत्र ‘प्रावदा’ ने खुलकर भारतीय प्रधानमंत्री के निर्णय को सराहते हुए लिखा था-

‘दक्षिणपंथी दलों के नेताओं की गिरफ्तारी लोकतांत्रिक है, सेंसरशिप के जरिए प्रेस को सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार करने से रोका जा सकेगा।’

भारतीय प्रेस को खामोश करने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपनाए जाने लगे। नए सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्यााचरण शुक्ल ने समाचार पत्रों के लिए दिशा-निर्देश जारी करते हुए सरकार के विरोध में लिखे हर समाचार, लेख, कार्टून इत्यादि के प्रकाशन पर पाबंदी लगा डाली थी। जयप्रकाश नारायण की पत्रिका ‘एवरीमैन’ और ‘प्रजानीति’, जॉर्ज फर्नांडीस की ‘प्रतिपक्ष’ और स्वतंत्र पार्टी के नेता पीलू मोदी की पत्रिका ‘मार्च ऑफ इंडिया’ का प्रकाशन कड़े सेंसरशिप नियमों चलते बंद कर दिया गया। जनसंघ के मुख्य पत्रों ‘मदरलैंड’ और ‘ऑर्गेनाइजर’ को सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। कई विदेशी समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों को आपातकाल लगने के साथ ही भारत छोड़ने के आदेश थमा दिए गए थे। अमेरिकी अखबार ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ के प्रतिनिधि लुइस- एम साइमन्स को सबसे पहले भारत निकाला दिया गया। साइमन्स को यह आदेश उनके एक लेख ‘संजय गांधी एंड हिज मदर’ के चलते थमाया गया था। इस लेख में उन्होंने संजय और इंदिरा पर कड़े प्रहार करते हुए लिखा था-
‘अपने सबसे निकटतम मंत्रिमंडलीय सदस्यों तक को शक की नजरों से देखने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, भारत के सबसे नाजुक दौर में, अपने विवादास्पद पुत्र संजय पर निर्भर रहने लगी हैं . . .एक पारिवारिक मित्र जो कुछ महीनों पहले संजय एवं इंदिरा के घर रात्रि भोज पर आमंत्रित था, का कहना है कि उसने बेटे (संजय) को मां (इंदिरा) के मुख पर ‘छह’ बार तमाचे मारते देखा। इस मित्र के अनुसारः ‘वह (इंदिरा) चुपचाप तमाचे खाती रहीं। वे संजय से मृत्यु समान डरती हैं।’

क्रमशः
 

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