भारत में कानून द्वारा स्थापित किसी प्रक्रिया के अलावा कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकता है।
-अनुच्छेद 21, भारतीय संविधान
छह दिसंबर 1948 का दिन बेहद सर्द था। दिल्ली ठिठुर जरूर रही थी लेकिन उसके उत्साह में कोई कमी नहीं थी क्योंकि देश दशकों की गुलामी बाद आजाद हो चुका था और यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगा लाल किले की प्राचीर से लहराते हुए स्वतंत्र भारत की घोषणा करने लगा था। स्वतंत्र राष्ट्र का विधान लेकिन तब तक तैयार नहीं हुआ था।
संविधान सभा के सदस्यों मध्य गर्मागर्म बहस सर्दी के मौसम में भी माहौल को गर्म करने का काम कर रही थी। बहस एक ऐसे मुद्दे पर हो रही थी जिसका सीधा वास्ता आजाद भारत के नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकरों से जुड़ता था। यह अधिकार है जीवन और व्यक्तिगत् स्वतंत्रता का अधिकार जिसे संविधान के अनुच्छेद 21 में व्याखित किया गया है। कांग्रेस के दिग्गज नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साहित्यकार और शिक्षाविद् कन्हैया लाल माणिक लाल मंुशी संविधान सभा के सदस्य थे। 6 दिसंबर से लेकर 13 दिसंबर तक जीवन और व्यक्तिगत् स्वतंत्रता के मुद्दे पर उन्होंने जोरदार तर्क देते हुए कहा था- ‘यह स्वतंत्रता का सबसे आधारभूत पहलू है। जीवन के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘जब प्रशासन और सरकार व्यक्तिगत् स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की कोशिश करती है, तो यह तभी उचित होगा जब वह समाज के व्यापक हित में हो।’ उन्होंने सामाजिक न्याय ओर व्यक्तिगत् स्वतंत्रता के मध्य संतुलन बनाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था कि ‘संविधान का मुख्य उद्देश्य नागरिकों की रक्षा करना और उनके अधिकारों को सुरक्षित करना है इसलिए हमारा संविधान ऐसा दस्तावेज बनना चाहिए तो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे और उनके जीवन को सार्थक बनाए।’
अनुच्छेद 21 मुंशी तथा उनके साथ शािमल संविधान सभा के उन सदस्यों की बदौलत हमें मिला जो हर कीमत नागरिकों की व्यक्तिगत् स्वतंत्रता के हिमायती थे। के.एम. मुंशी का जिक्र इसलिए क्योंकि आजादी के पिचहत्तर बरस के दौरान इस अनुच्छेद को कमजोर करने के प्रयास लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गुई सरकारों ने जब-जब किए, सुप्रीम कोर्ट ने आगे बढ़कर ऐसे सभी प्रयासों को विफल करने का काम कर मुंशी और उन सरीखे अन्य संविधान सभा के सदस्यों की भावना का सम्मान करते हुए हमारे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकरों की रक्षा की है। आजादी के मात्र 24 बरस बाद ही उस समय की हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस अनुच्छेद 21 में संशोधन कर आम नागरिकों की स्वतंत्रता को बाधित करने का काम किया था। 1976 में आपातकाल के दौरान 39वें संविधान संशोधन के जरिए यह किया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान की मूल भावना के विपरीत तब करार दिया था। आपातकाल हटने के बाद केंद्र में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब 44 वें संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 21 को वापस मूल रूप से बहाल किया गया था।
वर्तमान समय में एक बार फिर इस अनुच्छेद 21 के हनन् की बात चौतरफा देखी-सुनी जा रही है। ऐसे अनेकों मामले हैं जिनमें सत्ता विरोधी व्यक्तियों को, राजनीतिक विरोधियों को तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बिना उचित कानूनी प्रक्रिया अपनाए गिरफ्तार किया गया जिससे न केवल उनकी व्यक्तिगत् स्वतंत्रता का उल्लंघन हुआ, बल्कि उनके मौलिक अधिकार भी प्रभावित हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट को सलाम कि ऐसे कई मामलों में उसने आगे बढ़कर इस दमनकारी प्रक्रिया को रोकने का प्रयास किया है। इस वर्ष जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने धनशोधन से जुड़े एक आरोपी को जमानत नहीं दिए जाने पर कठोर टिप्पणी करते हुए इसे अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खण्ड पीठ ने कहा – ‘अदालतें किसी आरोपी की स्वतंत्रा को लापरवाही से बाधित नहीं कर सकतीं। स्वतंत्रता को इस तरह प्रतिबंधित करना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा, जो हर नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करता है। जब तक वह आतंकवादी नहीं है, तब तक जमानत पर रोक लगाने का कोई कारण नहीं होना चाहिए।’ अदालत ने यह टिप्पणी करते हुए मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपी को जमानत दे दी थी। इसी प्रकार जुलाई में ही न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने आतंकविरोधी कानून ‘यूएपीए’ के तहत गिरफ्तार एक व्यक्ति की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए कहा कि ‘यदि न्यायालय को लगता है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए अधिकारों का हनन हो रहा है तो संवैधानिक न्यायालय को दंडात्मक कानून में वैधानिक प्रावधानों के कारण किसी अभियुक्ति को जमानत देने से नहीं रोका जा सकता है।’ यह कहते हुए कोर्ट ने अभियुक्त को जमानत दे दी थी। गत् माह अगस्त में एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन और व्यक्तिगत् स्वतंत्रता के अधिकार को ‘उच्च संवैधानिक अधिकार’ कहते हुए मनी लॉन्ड्रिंग के एक आरोपी प्रेम प्रकाश को जमानत पर रिहा करने के आदेश दिए। न्यायालय ने अपने विस्तृत आदेश में कहा- ‘मनीष सिसोदिया के फैसले पर भरोसा करते हुए हमने कहा है कि पीएमएलए (धन शोधन कानून) में भी, जमानत एक नियम है और जेल अपवाद है।’ स्मरण रहे दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया कथित आबकारी घोटाले में 17 महीने जेल में रहे थे। अगस्त में ही उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी थी।
संविधान निर्माताओं ने सोचा नहीं होगा कि बमुश्किल और लंबे संघर्ष बाद मिली आजादी को आजाद देश में ही विभिन्न दमनकारी कानूनों के जरिए कमजोर करने का काम किया जाएगा। ‘जेल नहीं बल्कि जमानत’ सिद्धांत अनुच्छेद 21 में दिए गए निजी स्वतंत्रता के अधिकार को दृष्टिगत् रखते हुए ही उच्चतम् न्यायालय द्वारा समय-समय पर याद दिलाया जाता है। सुप्रीम कोर्ट को सलाम क्योंकि जब कभी भी दमनकारी सत्ता ने संविधान के विपरीत जा आम नागरिक को मिले मौलिक अधिकारों को कुचलने का काम किया, न्यायालय ने आगे बढ़कर संविधान की रक्षा की है। उच्चतम् न्यायालय ने बीते दिनों अनुच्छेद 21 की बाबत दिए गए अपने फैसलों चलते मुझे न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना का स्मरण करा दिया। न्यायमूर्ति खन्ना मेरी दृष्टि में ‘भारतरत्न’ सम्मान के सबसे योग्य व्यक्ति थे और अब जबकि मरणोप्रांत भी यह सम्मान दिया जाने लगा तो हंसराज खन्ना को इससे सम्मानित किया जाना चाहिए। यदि भविष्य में कोई केंद्र सरकार ऐसा निर्णय लेती है तो यह न्यायमूर्ति खन्ना का नहीं, बल्कि भारतरत्न सम्मान का सम्मान होगा न्यायमूर्ति खन्ना वह महान न्यायाधीश थे जिन्होंने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का अभूतपूर्व काम तब किया था जब न्यायपालिका का शीष्र स्तर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तानाशाही के आगे नतमस्तक हो चला था। ‘एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला’ मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने फैसला सुनाया था कि आपात स्थिति में अनुच्छेद 21 में दिए गए मौलिक अधिकार को राष्ट्रहित में स्थगित किया जा सकता है। इस पीठ के पांच सदस्यों में अकेले न्यायमूर्ति खन्ना ऐसे न्यायाधीश थे जिन्होंने अपने साथी चार न्यायाधीशों से सहमत न हो अलग से अपना निर्णय सुनाते हुए मौलिक अधिकारों को सर्वोपरि माना था। इससे पहले 1973 में भी ‘केवलानंद भारती बनाम केरल सरकार’ मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट की जिस 13 सदस्यीय पीठ ने यह फैसला दिया था कि संविधान के मौलिक स्वरूप को संसद संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से बदला नहीं जा सकता है, न्यायमूर्ति खन्ना उस पीठ के सदस्य थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी न्यायमूर्ति खन्ना से इस कदर नाराज थीं कि उन्हें मुख्य न्यायाधीश नहीं बनने दिया गया और उनसे जूनियर रहे न्यायमूर्ति एच.एम. बेग को तब भारत का नया मुख्य न्यायाधीश इंदिरा सरकार ने बना न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डालने का काम किया था। न्यायमूर्ति खन्ना की बाबत अमेरिकी दैनिक ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने लिखा था- ‘जब भी यदि भारत अपनी आजादी और लोकतंत्र को वापस पाता है और अपनी आजादी के प्रथम अठारह वर्षों की गौरवपूर्ण पहचान को वापस पाता है तो निश्चित रूप से कोई न कोई सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना का स्मारक अवश्य बनाएगा। वह न्यायमूर्ति खन्ना ही थे जिन्होंने इस सप्ताह राजनीतिक विरोधियों को बगैर अदालती सुनवाई जेल में डालने के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के अधिकार को सही ठहराने वाले फैसले से असहमति जताते हुए निडरता से स्वतंत्रता के पक्ष में अपनी बात कही।’
वर्तमान समय में हमारे देश को न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना सरीखे न्यायाधीशों की सख्त अवश्यकता है जो संविधान की मूल भावना को बनाए रखने वाले फैसले दे सकें। अनुच्छेद 21 की गरिमा बनाए रखने वाले सुप्रीम कोर्ट का पुनः सलाम।