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Editorial

सार्थक जुनून को सलाम

कुछ लोग जुनूनी होते हैं। किसी लक्ष्य को भेदने का पैशन मुझ सरीखों को खासा सुकून देता है। मैं अपनी गिनती उनमें करता हूं जो बहुत कुछ करने की इच्छा तो रखते हैं लेकिन उस इच्छा को पाने के लिए सही समय में सही कदम उठाने का साहस नहीं कर पाते। आज एक ऐसे ही जुनूनी पर कुछ बात लेकिन उससे पहले, अब दिवंगत, एक ऐसे ही जुनूनी के विचारों से युवा पीढ़ी को अवगत कराना चाहता हूं जिन्हें जानना और समझना 75 बरस के होने जा रहे राष्ट्र को बचाए-बनाए रखने के लिए बेहद आवश्यक है।
हमारे देश में एक से बढ़कर एक विचारक पैदा हुए हैं। एक से बढ़कर एक समाज सुधारक, तपस्वी हमारी धरती में जन्में हैं। हम ऐसे सभी विचारकों, तपस्वियों का बेहद सम्मान करते हैं। इनकी याद में हम स्मारक बनाते हैं, मूर्तियां बनाते हैं, सड़क-चैराहों को इनके नाम समर्पित करते हैं, इनकी पुण्यतिथि में भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर अपने कर्तव्य की पूर्ति करते हैं। हम ऐसा करने में माहिर हैं, शातिर हैं। इन महापुरुषों के विचारों पर, इनके कहे पर, हम रंचमात्र भी ध्यान देने, उसे आत्मसात् करने की कोई चेष्टा नहीं करते हैं। नतीजा आजादी के मात्र 74 वर्ष के भीतर-भीतर हम पूरी तरह भ्रष्ट-त्रस्त राष्ट्र में तब्दील हो चले हैं। क्या इस स्थिति के लिए केवल और केवल हमारे राजनेता जिम्मेदार हैं या फिर इस अद्योगति की स्थिति के लिए हम, आम नागरिक, क्या जिम्मेदार नहीं? तो चलिए इस बार थोड़ी चर्चा इस पर की जाए ताकि समझा और समझाया जा सके कि मुल्क की वर्तमान दशा और दिशा के लिए हम, यानी भारत के आम नागरिक कितने जिम्मेदार हैं और अपने गलत किए को हम कैसे सुधार सकते हैं।
ध्वंस और निर्माण की शक्तियों को जगाने के उद्देश्य से, मुर्दा कौम में प्राण फूंकने के लिए एक अघोरी साधु की श्मशान साधना का भाव लिए भारतीय राजनीति के क्षितिज पर डाॅ राममनोहर लोहिया धूमकेतु की भांति प्रकट हुए। डाॅ लोहिया अद्भुत विचारक थे। उनमें चिंतन था, सोच भी था और सोच के साथ दुख था। देश की आजादी के मात्र कुछ बरस बाद ही लोहिया ने हमें, हमारा भविष्य बता डाला था। लोकसभा में उनके दिए गए भाषणों को पढ़िए, आप जान जायेंगे डाॅ लोहिया को, उनकी दूर दृष्टि को। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा ‘समूचा हिंदुस्तान कीचड़ का तालाब है जिसमें कहीं-कहीं कमल उग आए हैं। कुछ जगह पर अय्याशी के आधुनिकतम तरीकों के सचिवालय, हवाई अड्डे, होटल, सिनेमाघर और महल बनाए गए हैं और इनका इस्तेमाल इसी तरीके के बने-ठने लोग-लुगाई करते हंै। लेकिन कुल आबादी के एक हजारवें हिस्से से भी इनका कोई सरोकार नहीं है। बाकी तो गरीब, उदास, दुखी, नंगे और भूखे हैं।’ उनका यह कथन 1963 से 1967 के मध्य लोकसभा सदस्य काल का है। वर्तमान परिदृश्य से इसकी तुलना करिए तो स्पष्ट हो उठेगा कि लगभग साठ बरस पहले कही गई बात आज कितनी सार्थक, कितनी प्रासंगिक है। केंद्र सरकार दिल्ली में बीस हजार करोड़ से अधिक धनराशि का एक प्रोजेक्ट शुरू कर चुकी है। देश के लिए नई संसद, प्रधानमंत्री एवं मंत्रियों के लिए भव्य आवास, कार्यालय आदि इस प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं। सरकार बल्लभ भाई पटेल की आदमकद मूर्ति कई हजार करोड़ खर्चा करके पहले ही बनवाई जा चुकी है। अयोध्या में भव्य राममंदिर बनाया जा रहा है। नए-नए एक्सप्रेस वे, हवाई अड्डे बनाए जा रहे हैं। इन भव्य भवनों, हवाई अड्डों के चारों तरफ कीचड़ में धंसा आम हिंदुस्तानी का हिंदुस्तान है। इस कीचड़ के लिए हमारे राजनेता, हमारे बुद्धिजीवी, हमारे धर्मगुरु इत्यादि से कहीं अधिक हम स्वयं जिम्मेदार हैं। स्वयं को हम मनुष्य बना नहीं पाए। केवल मनुष्य योनि में जन्म लेने भर से मनुष्य नहीं बना जा सकता। हमने मनुष्य होने की अनिवार्य शर्त को माना नहीं। मनुष्यता को खुद हमने त्यागा है। मनुष्य होने की अनिवार्य शर्त मानवीयता का होना है। हमने इसे ही छोड़ दिया है। हम धर्म, संप्रदाय, जाति जैसे विकारों की चपेट में बंधे जा रहे हैं। जितने हम इनके बंधन में बंध रहे हैं उतने ही अमानवीय हो रहे हैं। सवाल उठता है, उठना चाहिए कि ऐसा क्या कहा जाए कि हम मनुष्य बने रह सकें? ऐसा क्या किया जाए कि हम कीचड़ में धंसे हिंदुस्तान को बाहर निकाल सकें ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य संवर सके? मैं फिर आपको लोहिया के विचारों की तरफ ले जाता हूं। लोहिया कहते थे, ‘हमारी इस अद्योदशा के लिए मुख्य रूप से चार कारण जिम्मेदार हैं:
1. धर्म, जाति, वंश और भाषा का राजनीति में साधन के रूप में प्रयोग
2. समग्र दष्टि और विवेकशील आचार-विचार का अभाव
3. कथनी में प्रगतिशीलता और करनी में प्रतिगामी रवैया
4. यूरोपियों की नकल करने वाली महंगी रुचियों तथा आदतों के गुलाम, सफेदपोश मध्यवर्ग की राजनीति तथा नौकरशाही पर मजबूत पकड़।’

यदि हम ईमानदारी से आकलन करें तो निश्चित रूप से पाएंगे कि ये चार कारण ही हमारी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। यदि इसे हम स्वीकारते हैं तो फिर निदान भी हमें ही इसका निकालना होगा। निदान है, राजनीति को दुरुस्त करना। अब राजनीति को दुरुस्त करना इतना आसान तो है नहीं। इसे सुधारने के लिए सबसे जरूरी है स्वयं को सुधारा जाए। पहले खुद को धर्म, जाति, वंश इत्यादि बुराइयों से दूर किया जाए ताकि राजनीति इनके भंवर जाल में हमें फांस आगे से अपना उल्लू सीधा न कर पाए।

चलिए इस भंवर जाल को तात्कालिक संदर्भ के जरिए समझने का प्रयास करते हैं, साथ ही आपका परिचय अपने एक जुनूनी मित्र से भी कराता हूं। उत्तराखण्ड समेत देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। उत्तराखण्ड की राजनीति को लोहिया के बताए चार कारणों की कसौटी पर यदि परखा जाए तो सब कुछ शीशे के समान पारदर्शी हो उठेंगे। हम अपने क्षेत्र में प्रत्याशियों का चयन करते समय धर्म, जाति, वंश सरीखी बेड़ियों में बंध जाते हैं। स्थापित राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार का चुनाव करते समय इन्हीं फैक्टर्स को सामने रखते हैं। विधानसभा विशेष में धर्म और जाति के समीकरण देख प्रत्याशी तय किए जाते हैं। योग्यता को कभी आधार नहीं बनाया जाता। इन समीकरणों में जो खरा उतरता है उसे ही ये राजनीतिक दल अपना टिकट देते हैं। हम, यानी इनके मतदाता इसी आधार पर इन्हें अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। अन्य कई फैक्टर भी इस चयन प्रक्रिया में हमारी सोच को प्रभावित करते आए हैं, मसलन पैसा, शराब इत्यादि। सोचिए जब इस प्रकार के साधनों का उपयोग कर कोई जनप्रतिनिधि बनेगा तो भला वह जनता का क्या भला करेगा? वह साम-दाम, दंड-भेद का सहारा लेकर खुद के विकास की यात्रा पर निकलेगा, ‘सबका साथ, सबका विकास’ सरीखे नारे बस नारे बनकर रह जाएंगे। ऐसा आजादी के बाद से ही होना शुरू हो चला है, ऐसा अब अपने चरम पर है। यह स्थापित सत्य है कि चरम पर पहुंचने के बाद ढलान का सफर शुरू होता है। मैं समझता हूं अब इस प्रकार के दुराचरणों का चरम आ चुका है। अब इनके गिरने का समय सामने है। यदि हम थोड़ा भी चेत जायें तो इस प्रकार के दुराचरणों को हम दूर कर एक नई शुरुआत कर सकते हैं।
एक ऐसा ही प्रयास मेरी करीबी मित्र श्वेता मासीवाल करने जा रही हैं। श्वेता इस बार अपने गृह क्षेत्र रामनगर से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। मैं श्वेता के इस साहस को सलाम करता हूं। मेरा दृढ़ मत है कि जनसरोकारों से लबरेज, पढ़े-लिखे लोगों को राजनीतिक हस्तक्षेप अवश्य करना चाहिए। श्वेता उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। वे अपने भाई स्व. सुदीप मासीवाल की स्मृित में बनाए गए ‘वत्सल फाउंडेशन’ के जरिए लगातार जनसरोकारी कार्यों में सक्रिय रहती आई हैं। लाॅकडाउन के दौरान श्वेता ने महाराष्ट्र में रह रहे अप्रवासी उत्तराखण्डियों के लिए अपनी क्षमता से कहीं अधिक संघर्ष किया। लाॅकडाउन के चलते सड़क पर आ चुके अपने प्रदेशवासियों के लिए उन्होंने रहने, खाने-पीने की व्यवस्था तो की ही, एक बुलंद आवाज बन उन्होंने ऐसो के लिए महाराष्ट्र से उत्तराखण्ड के लिए विशेष ट्रेन भी चलवाने के अभियान को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया। वे लगातार उत्तराखण्ड के दुर्गम इलाकों में अपनी संस्था ‘वत्सल फाउंडेशन’ के जरिए मेडिकल कैंप इत्यादि लगाती रहती हैं। अन्ना आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की है। मैं आम आदमी पार्टी के अपने मित्रों को हमेशा सलाह देता था कि वे अपनी पार्टी की कमान उत्तराखण्ड में श्वेता को सौंप दें। मेरी इस मंशा के पीछे यह सद्इच्छा मात्र थी कि एक जन आंदोलन के गर्भ से निकले राजनीतिक दल का हमारे प्रदेश में नेतृत्व सही हाथों में हो। ऐसा लेकिन हो न सका। हालांकि यह मेरी इच्छा थी। श्वेता ने कभी ऐसा कोई प्रयास करने के लिए मुझे कहा नहीं था। विवाह पश्चात मुंबई जा बसी श्वेता का उत्तराखण्ड प्रेम मुझे संकेत देता था कि आज नहीं तो कल श्वेता उत्तराखण्ड के राजनीतिक परिदृश्य में हस्तक्षेप जरूर करेंगी। खांटी राष्ट्रीय ‘स्वयं सेवक संघ’ की पृष्ठभूमि वाले परिवार में जन्मीं श्वेता ने ऐसा कर भी दिखाया है। मेरे लिए सबसे ज्यादा खुशी की बात यह कि धर्म और जाति की राजनीति से उन्होंने परहेज करते हुए अपनी पहचान एक ऐसे युवा बतौर स्थापित की है जो इन संकुचित बंधनों से परे मात्र जनसरोकारी मुद्दों पर कुछ सार्थक करने का माद्दा रखते हैं। आज के समय में इतना भर भी कर पाना, कर पाने का साहस करना एक जोखिम भरा कदम है। इसलिए श्वेता को साधुवाद। श्वेता ने तो एक कदम आगे बढ़ा अपनी इच्छा शक्ति, अपने संकल्प का प्रदर्शन कर दिया है, अब रामनगर विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं को तय करना होगा कि वे भविष्य की राजनीति को कैसी देखना चाहते हैं। यदि वे चाहते हैं कि आने वाले पांच बरस भी वे बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते रहें, यदि वे चाहते हैं कि अगले पांच बरस तक उनकी जद्दोजहद का केंद्र वे ही मुद्दे हों जिनसे निजात पाने के लिए अलग राज्य की लंबी लड़ाई लड़ी गई थी तो उन्हें जाति और धर्म के आधार पर ही अपना मत डालना चाहिए, जैसा आज तक करते आए हैं। अन्यथा एक ईमानदार और जनसरोकारी राजनीति की शुरुआत करने का सुनहरा अवसर उनके सामने हैं। जाति और धर्म की गोलबंदी से बाहर आकर उन्हें खुलेमन से श्वेता का साथ देना चाहिए। क्या पता उनका ऐसा करना उत्तराखण्ड में स्वच्छ राजनीति का पथ प्रदर्शक बन जाए और सही अर्थों में देवभूमि का सपना साकार हो उठे।
डाॅ लोहिया कहते थे ‘हिंदुस्तान की सामान्य जनता यदि अपने में भरोसा करना शुरू करे तो देश की राजनीति में ईमानदारी का रंग चढ़ जाएगा।’ रामनगर की जनता लोहिया के कथन को मूर्त रूप देने का कारण बन जाए, शायद।

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