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पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-96

यह सौदा 2.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था जो उस समय का सबसे बड़े हथियार सौदा था। एलन नजिरथ की आत्मकथा से स्पष्ट संकेत मिलता है कि कांति देसाई इस सौदे को जगुआर कम्पनी के पक्ष में करने का काम कर रहे थे, निश्चित ही इन आरोपों और जनता परिवार भीतर मची कलह ने मोरारजी देसाई को कमजोर करने का काम किया। चौधरी चरण सिंह को लगने लगा था कि अब उनके प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा होने का समय आ गया है। 23 दिसम्बर, 1978 को उन्होंने बिहार, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के साथ मिलकर एक विशाल जनसभा का आयोजन नई दिल्ली में किया। इस दिन चौधरी चरण सिंह का 75वां जन्मदिन था। दिल्ली के बोट क्लब मैदान में लाखों की तादात में चौधरी के समर्थकों को उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान से ट्रकों, बैलगाड़ियों, बसों इत्यादि में भरकर लाया गया। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर इस जन्मदिन समारोह में शामिल नहीं हुए थे। न ही जयप्रकाश नारायण और आचार्य जे.बी. कृपलानी को इसमें शामिल होने का न्योता भेजा गया था। यह जनसभा चौधरी चरण सिंह का शक्ति प्रदर्शन भर था जिसके जरिए वे और उनके साथी मोरारजी देसाई को संदेश भेजना चाहते थे कि अब चौधरी के लिए वे अपनी कुर्सी खाली कर दें। जनसंघ पूरी तरह से चरण सिंह के साथ था। अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख समेत सभी जनसंघी नेता मंच में चौधरी के साथ मौजूद रहे। मोरारजी देसाई को अंततः झुकना पड़ा और 24 जनवरी, 1979 को चौधरी ने बतौर उप प्रधानमंत्री दोबारा मोरारजी देसाई की सरकार में वापसी कर ली। सत्ता का संतुलन बनाए रखने के लिए देसाई ने बाबू जगजीवन राम को भी उपप्रधानमंत्री का दर्जा दे डाला था।

चरण सिंह की सरकार में वापसी बाद भी जनता परिवार की आंतरिक कलह थमी नहीं। इंदिरा गांधी को जनता परिवार की इस कलह का पूरा लाभ मिलने लगा था। जयप्रकाश अपने अनुयायियों की उपेक्षा और तिरस्कार से पूरी तरह टूट चुके थे और आम जनता को उनके द्वारा दिखाया गया सम्पूर्ण क्रान्ति का सपना चकनाचूर हो जनाक्रोश का बड़ा कारण बन सड़कों में हिंसा के जरिए अपना प्रतिशोध लेता नजर आने लगा था। चिकमगसूर उपचुनाव जीतने के तुरन्त बाद इंदिरा गांधी विदेश यात्रा पर ब्रिटेन निकल गईं। उनकी यह यात्रा हालांकि पूरी तरह निजी थी लेकिन अपने करीबी मित्र उद्योगपति स्वराज पॉल की मदद से इंदिरा ने इस यात्रा के दौरान ब्रिटिश राजनेताओं संग मुलाकात कर आपातकाल को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट की। ब्रिटेन में पूर्व प्रधानमंत्री की गतिविधियों ने मोरारजी देसाई की चिंताओं में इजाफा करने और उनकी नाराजगी को उग्र करने का काम कर दिखाया। जनता पार्टी सरकार हर कीमत पर इंदिरा गांधी को जेल भेजने के लिए इस कदर उतावली हो चली थी कि उन पर नाना प्रकार के जांच आयोग बनाने का उसने रिकॉर्ड स्थापित कर डाला था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की दिल्ली स्थित एक शाखा से 1971 में धोखाधड़ी कर 60 लाख रुपए हड़पने का प्रयास करने वाले नागरवाला की तिहाड़ जेल में हृदयगति रुक जाने से हुई मौत को संदेहास्पद मानते हुए एक आयोग का गठन जनता सरकार ने किया था। न्यायमूर्ति चिन्नप्पा रेड्डी आयोग ने अक्टूबर 1978 में अपनी जांच पूरी कर नागरवाला की मृत्यु को स्वाभाविक करार दे दिया। 1975 में एक बम विस्फोट में मारे गए तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या के तार इंदिरा से जोड़ते हुए जनता सरकार ने एक अलग जांच आयोग गठित कर दिया। मिश्रा की हत्या का आरोप जब जनता पार्टी के नेताओं ने इंदिरा पर लगाया तब उन्होंने कहा था-‘यदि मेरी भी हत्या हो जाए तो ये लोग उसका आरोप भी मुझ पर ही लगाने से नहीं चूकेंगे।’

मोरारजी देसाई सरकार इंदिरा गांधी के खिलाफ इस कदर प्रतिशोध की भावना से भरी हुई थी कि एक पूर्व प्रधानमंत्री पर चार मुर्गी और दो अण्डे चुराने तक का आरोप उसके द्वारा गठित एक जांच आयोग ‘त्रिखा कमीशन’ द्वारा लगा दिया गया। इंदिरा गांधी पर इसको लेकर मुकदमा पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में दर्ज किया गया और उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट तक जारी कर दिए गए थे। इंदिरा को मणिपुर की एक अदालत में पेश होकर इस मामले में जमानत लेनी पड़ी थी।

यह प्रतिशोध का चरम दौर था जब वे दोबारा लोकसभा की सदस्य बनीं। हर कीमत पर उन्हें दण्डित करने की मंशा चलते जनता पार्टी ने अब उनकी लोकसभा सदस्यता समाप्त करने के लिए संसद की विशेषाधिकार समिति का सहारा लिया। पूर्व प्रधानमंत्री पर आरोप था कि उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री अपने पुत्र संजय गांधी की कम्पनी मारुति उद्योग की जांच को प्रभावित करने का काम किया है। इस आरोप की जांच का जिम्मा संसद की विशेषाधिकार समिति को सौंपा गया था जिसने अपनी रिपोर्ट में इन आरोपों को सही करार दिया। 19 दिसम्बर, 1978 को संसद में इंदिरा को दण्डित करने का प्रस्ताव पेश किया गया। उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को सिरे से नकारते हुए भारी हो-हल्ले के मध्य अपनी बात सदन में रखी-‘मैं एक मामूली शख्सियत हूं, लेकिन मैं कुछ मूल्यों और उद्देश्यों के लिए हमेशा खड़ी रही हूं। मुझे अपमानित करने का हर प्रयास पलट कर वापस आएगा और मुझे दी गई हर सजा मेरे लिए शक्ति का स्रोत बनेगी…इस सदन का माहौल ‘एलिस इन वंडर लैंड’ की तरह है जहां सभी एक स्वर में कहते हैं-‘इसके सिर को काट डालो।’ मेरा सिर आपके हाथों में है। मैंने अपना सामान कई महीनों से तैयार रखा है। उसमें केवल सर्दियों का सामान रखना बाकी है।’

लोकसभा ने उन्हें विशेषाधिकार हनन का दोषी करार देते हुए उनकी संसद सदस्यता रद्द कर दी और उन्हें  सदन से सीधे दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल भेज दिया गया। उनको जेल भेजा जाना दोबारा की गई ऐसी गलती थी जिसका खामियाजा मोरारजी देसाई को अपनी गद्दी की कीमत देकर चुकानी पड़ी थी। इंदिरा गांधी की लोकप्रियता अब परवान चढ़ने लगी थी। 19 दिसम्बर 1978 की शाम जेल भेजी गईं पूर्व प्रधानमंत्री के लिए अगली सुबह खासी रोमांचकारी रही। इस दिन उनके दो समर्थकों ने कुछ ऐसा कर दिखाया जिसकी कल्पना तक करना असम्भव-सा था। भोलानाथ पाण्डेय और देवेंद्र पाण्डेय नामक दो नवयुवकों ने इंडियन एयर लाइंस की कलकत्ता (अब कोलकाता) से लखनऊ जा रही फ्लाइट संख्या 410 का अपहरण कर लिया। इन दो अपहरणकर्ताओं ने इंदिरा गांधी की तत्काल रिहाई और उन पर और उनके पुत्र संजय गांधी पर चल रहे सभी मुकदमों को तत्काल बंद किए जाने की मांग केंद्र सरकार से करते हुए लखनऊ के बजाए इस हवाई जहाज को वाराणसी एयर पोर्ट पर उतारने का आदेश पायलट को दिया। जहाज में 132 यात्री सवार थे। इस अपहरण को इन दोनों ने नकली बंदूकों के सहारे अंजाम दिया और कुछ घण्टे बाद ही प्रेस की मौजूदगी में आत्मसमर्पण भी कर डाला था। 1980 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी बाद इन दोनों को ईनाम स्वरूप उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव कांग्रेस ने लड़वा विधायक बनाया था। भोलानाथ पाण्डेय और देवेंद्र पाण्डेय कई बार विधायक बने और कांग्रेस राज में फले-फूले। इंदिरा का एक सप्ताह तिहाड़ में बीता, जब तक वह वापस लौटीं जनता परिवार का झगड़ा चरम पर पहुंच चुका था। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बनने के लिए इतने उतावले हो चले थे कि उन्होंने कांग्रेस (इंदिरा) संग गुपचुप सम्पर्क कर अपने लिए रास्ता बनाने की मुहिम शुरू कर डाली। जेल से वापस लौटी इंदिरा को चरण सिंह ने अपने पोते के नामकरण संस्कार में शामिल होने का न्योता भेज इंदिरा की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने में देर नहीं लगाई। मोरारजी देसाई इससे तिलमिला गए थे। आपातकाल के दौरान की घटनाओं और शाह आयोग की रिपोर्ट बाद विशेष अदालतों के गठन का कानून पारित कर इंदिरा गांधी को शिकंजे में लेने की तैयारियों ने अब जोर पकड़ लिया। 27 फरवरी, 1979 को ‘किस्सा कुर्सी का’ प्रकरण में दिल्ली की एक अदालत ने संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल को दोषी करार देते हुए दो वर्ष के कारावास की सजा सुना दी। दोनों को ही हालांकि जमानत पर रिहा कर दिया गया लेकिन उनके खिलाफ घेराबंदी अब कसने लगी थी। 31 मई 1979 को मारुति कंपनी मामले में भी संजय गांधी को अदालत ने दोषी करार दे डाला। इंदिरा गांधी समझ चुकी थीं कि यदि मोरारजी देसाई सरकार बनी रही तो संजय गांधी को बचा पाना असम्भव हो जाएगा। चरण सिंह के करीबी राजनारायण के जरिए इंदिरा ने मोरारजी देसाई के खिलाफ चक्रव्यूह रचने में देर नहीं लगाई। जनता पार्टी के बीच शुरुआती काल से ही मचे घमासान का असर शासन व्यवस्था पर स्पष्ट पड़ता नजर आने लगा था। सरकार की चौतरफा नाकामी को मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस(एस) ने 11 जुलाई 1979 को संसद में मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव पेश कर दिया। राजनारायण के जरिए इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह को पहले से ही साध रखा था। मोरारजी देसाई इससे पहले की संभल पाते जनता परिवार में बगावत तेज हो गई। जॉर्ज फर्नांडिज और हेमवती नंदन बहुगुणा समेत जनता पार्टी में शामिल समाजवादी विचारधारा के सांसदों ने पार्टी से इस्तीफा देने का ऐलान कर दिया। जॉर्ज और हेमवती नंदन ने केंद्रीय मंत्रिमण्डल से भी इस्तीफा दे मोरारजी देसाई के समक्ष त्यागपत्र देने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा। 15 जुलाई की शाम प्रधानमंत्री ने पद त्याग दिया। अब नई सरकार के गठन को लेकर राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होने का समय था। जगजीवन राम जनता पार्टी के नए अध्यक्ष तब तक बन चुके थे।­­­ प्रेस की खबरों और सत्ता के गलियारों में कयास लगाए जाने लगे थे कि राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी किसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे। कांग्रेस(एस) ने अपने सांसदों का समर्थन चरण सिंह को दिए जाने की घोषणा कर राष्ट्रपति से आग्रह किया कि चौधरी चरण सिंह को मौका दिया जाए। तब तक कांग्रेस(आई) ने भी चरण सिंह को बाहर से समर्थन दिए जाने का फैसला ले लिया था। अंततः 27 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षा पूरी हुई और वे एक ऐसी सरकार बना पाने में सफल हो गए जो इंदिरा गांधी की मेहरबानी पर टिकी थी। वह मेहरबानी मात्र 23 दिन तक बनी रही। इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को स्पष्ट संदेश दे दिया था कि उनका समर्थन इस बात पर निर्भर करता है कि उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस लिए जाएं और विशेष अदालतों को तुरंत समाप्त किया जाए। 20 अगस्त को लोकसभा में राष्ट्रपति के निर्देश अनुसार चरण सिंह को अपनी सरकार का बहुमत साबित करना था। इंदिरा की शर्तें मानने में चरण सिंह हीला-हवाली करने लगे जिसके चलते 19 अगस्त को इंदिरा गांधी ने सरकार को दिए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। चरण सिंह इस तरह से आजाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए जिन्हें पद संभालने के मात्र 23 दिन बाद ही बगैर संसद का सामना किए इस्तीफा देना पड़ा। 22 अगस्त 1979 को राष्ट्रपति ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री चरण सिंह की सलाह पर लोकसभा भंगकर नए चुनाव कराने की आज्ञा जारी कर दी। इस तरह से जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति का सपना चकनाचूर हो मात्र ढाई बरस में धूल- धूसरित हो गया। इंदिरा गांधी ने जनता पार्टी सरकार के पतन पर टिप्पणी करते हुए कहा था-‘शेर की तरह दहाड़ती हुई आई जनता सरकार बिना चूहे की चीख निकाले चली गई।’

क्रमशः 

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