दलित विषयों का गहन अध्ययन करने वाले प्रोफेसर बद्रीनारायण के अनुसार-‘दीनाभाना की घटना ने कांशीराम की आंखें खोल दीं, उन्हें इसका एहसास हुआ कि कैसे ब्राह्माणवाद भारतीय समाज की बुनियाद है। उन्होंने देखा कि ऊपरी जातियां अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए काम करती हैं…इस घटना से जो चीजें सामने आईं, उन्होंने हमेशा के लिए कांशीराम की जिंदगी को बदल दिया। वे बहुत सारे प्रश्नों पर विचार करने लगे, जैसे-इस देश में हमारी पहचान क्या है? हमारे अधिकरों की रक्षा कौन करेगा? यदि कोई न्यायाधीश, कोई अधिकारी और मंत्री हमारे समुदाय का नहीं है, तो कौन हमारी समस्याएं सुनेगा?’
इसके बाद कांशीराम दलितों को संगठित करने की मुहिम में जुट गए। उन्होंने पुणे में दलित वर्ग के शिक्षकों एवं सरकारी कर्मचारियों को एक बैनर तले लाने का काम किया, जो आगे चलकर एक राष्ट्रीय संगठन ‘बामसेफ’ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉइज फेडेरेशन) के रूप में उभरा और 90 के दशक में इसने कांशीराम द्वारा स्थापित राजनीतिक दल ‘बहुजन समाज पार्टी’ को उत्तर प्रदेश में सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। 6 दिसम्बर, 1978 को गठित ‘बामसेफ’ के बाद 1981 में कांशीराम ने ‘दलित-शोषित समाज संघर्ष समिति’ (डीएस-4) की स्थापना की और 1984 में सीधे राजनीति में प्रवेश कर ‘बहुजन समाज पार्टी’ का गठन किया। ‘डीएस-4’ के कार्यकर्ताओं ने दलित जागरण के लिए एक नारा तैयार किया, जो 80 के दशक में स्वर्ण जातियों के उत्पीड़न से त्रस्त दलितों के मध्य खासा लोकप्रिय हुआ था। यह नारा था-‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’। इस नारे में तिलक का अर्थ ब्राह्माण, तराजू का अर्थ बनिया और तलवार का अर्थ क्षत्रियों से था, जिनके उत्पीड़न के खिलाफ अब दलित चेतना मुखर होने लगी थी। 1983-84 में इस संगठन के जरिए कांशीराम ने समूचे देश में साइकिल यात्रा के जरिए दलितों को एक मंच पर लाने का बड़ा अभियान चलाया, जिसका अंत दिल्ली के बोट हाउस क्लब में एक विशाल रैली के जरिए किया गया था। बकौल बद्रीनारायण- ‘जब विशाल साइकिल रैली बोट हाउस क्लब जाने के लिए दिल्ली के लाल किला मैदान में जुटी तो शहर इस रैली को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। पत्रकारों ने जोश से भरे दलित एवं निम्न जातियों के ऐसे विशाल समूह को कभी कवर नहीं किया था जो अपने अधिकारों की दावेदारी करने के लिए जुटे थे। …कांशीराम इस बात को साबित करना चाहते थे कि दलितों को इतने विशाल पैमाने पर लामबंद किया जा सकता है और वे कोशिश कर रहे थे कि वे एक राजनीतिक ताकत के रूप में दिखाई दें।’
अस्सी का दशक साहित्य के जगत में दलित साहित्यकारों की उल्लेखनीय उपस्थिति का दशक भी रहा। कांशीराम इस दौर में दलितों को राजनीति की मुख्यधारा में लाने और उनके हाथों में सत्ता की कुंजी सौंपने का काम युद्धस्तर पर कर रहे थे तो दलित साहित्यकार अपनी मांगों का सशक्त चित्रण अपनी रचनाओं के माध्यम से कर नए मानदण्ड स्थापित करने लगे थे। आजादी पूर्व प्रेमचंद्र, निराला, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल आदि साहित्यकारों ने दलित उत्पीड़न को अपने साहित्य में प्रमुखता देने का काम किया था। प्रेमचंद्र की ‘रंगभूमि’ का मुख्य पात्र सूरदास चमार है तो ‘कर्मभूमि’ का नायक गूदड चमार है। ‘गोदान’ में प्रेमचंद्र सीलिया चमाराइन के मातादीन पंडित द्वारा दैहिक शोषण की बात सामने रखते हैं। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘भूले-बिसरे चित्र’ में भी दलितों की मार्मिक स्थिति का चित्रण गंदालाल चमार की मानसिक गुलामी के जरिए सामने रखा गया है। आजादी के बाद भी मुख्य रूप से गैर-दलित रचनाकारों द्वारा ही दलितों की पीड़ा को स्वर देने का काम किया गया, लेकिन 80 के दशक में दलित चेतना के उभार के बाद सहानुभूति के आधार पर अपनी पीड़ा का चित्रण करने वाले कई सशक्त दलित रचनाकार उभरे। इनमें डी.पी. वरण (उपन्यास ‘अमर ज्योति’, 1982), जयप्रकाश कर्दम (उपन्यास ‘छप्पर’, 1994), प्रेम कपाडिया (उपन्यास, ‘मिट्टी की सौगंध’, 1995), सत्यप्रकाश (उपन्यास, ‘जस-तस भई सबेर’, 1998), मोहनदास नैमिशराय (उपन्यास, मुक्ति पर्व, 1999) आदि प्रमुख हैं। दलित वंदना को सबसे मजबूत स्वर देने का काम ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविताओं, कहानियों, उपन्यास और आत्मकथा के जरिए किया। 1989 में ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता-संग्रह ‘सदियों का संताप’ सामने आया। यह कहा जा सकता है कि ‘सदियों का संताप’ दलित साहित्य और उनकी चेतना के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण रचना है। इस कविता-संग्रह में संकलित दो कविताएं विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। पहली कविता है- ‘कभी सोचा है।’ इस कविता के जरिए वाल्मीकि ने भारतीय वर्ण-व्यवस्था की क्रूरता और अमानवीयता को सीधे-सपाट शब्दों में कुछ यूं सामने रखा है-
तुम महान हो
तुम्हारी जिह्ना से निकला
हर शब्द पवित्र है
मान बैठा था मैं
तुमने पढ़ रखी हैं
ढेरों पुस्तकें
आता है दुहराना शब्दों को
बदलना अर्थों को
सहिष्णुता तुम्हारी पहचान है
वर्ण-व्यवस्था को तुम कहते हो आदर्श
खुश हो जाते हो
साम्यवाद की हार पर
जब टूटता है रूस
तो तुम्हारा सीना 36 हो जाता है
क्योंकि मार्क्सवादियों ने छिनाल बना दिया है
तुम्हारी संस्कृति को
हां, सचमुच तुम सहिष्णु हो
जब दंगों में मारे जाते हैं
अब्दुल और कासिम
कल्लू और बिरजू
तब तुम सत्यनारायण की कथा सुनते हुए
भूल जाते हो अखबार पढ़ना
पूजते हो गांधी के हत्यारे को
तोडते हो इबादतगाह झुंड बनाकर
कभी सोचा है
गंदे नाले के किनारे बसे
वर्ण-व्यवस्था के मारे लोग
इस तरह क्यों जीते हैं
तुम पराए क्यों लगते हो उन्हें
कभी सोचा है?
वर्ण-व्यवस्था का दलित शोषण के मुख्य कारण के रूप में चित्रण कर ‘हमारे हिस्से क्या है’ जैसा प्रश्न करते हुए प्रश्न वे कहते हैं-
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गांव? शहर? देश?
राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है उग्र हिंदुत्व और दलित चेतना के बीते दशक में उभार विश्वनाथ प्रताप सिंह विभिन्न विचारधाराओं वाले राजनीतिक दलों को कांग्रेस के खिलाफ एक मंच पर लाने में सफल तो रहे थे लेकिन यह सफलता ज्यादा समय तक टिकने वाली नहीं थी। 11 अक्टूबर, 1988 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिवस पर गठित नए राजनीतिक दल ‘जनता दल’ का हश्र भी जे.पी. और कृपलानी द्वारा 1977 में बनाई गई जनता पार्टी के समान होने के आसार जनता दल के शुरुआती दिनों में ही नजर आने लगे थे। जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर किसी भी सूरत में विश्वनाथ प्रताप सिंह का नेतृत्व स्वीकारने को राजी नहीं थे। उनका तर्क था कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार में शामिल रहे नेता को कांग्रेस विरोधी दल का नेता कैसे स्वीकारा जा सकता है? वी.पी. सिंह को जनता दल का अध्यक्ष बनाए जाने के लिए बमुश्किल चंद्रशेखर को मनाया जा सका था, लेकिन आम चुनाव के नतीजे आने के बाद चंद्रशेखर खुले तौर पर वी.पी. सिंह की खिलाफत पर उतर गए। इन चुनावों में कांग्रेस 197 सीटें जीतकर सबसे बड़ी संसदीय पार्टी बनी जरूर, लेकिन बहुमत के आंकड़े से बहुत पीछे रह गई। जनता दल 143 सीटें जीतकर दूसरे नम्बर पर रहा। उसे उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 54 सीटों पर सफलता मिली। जबकि 8 सीटें भाजपा तो 3 सीटें वामपंथी दलों के हिस्से आईं। कांग्रेस को यहां भारी नुकसान उठाना पड़ा था। उसे मात्र 15 सीटों पर विजय मिली थी। राजस्थान में कांग्रेस का सबसे बुरा हाल रहा, जहां 25 लोकसभा सीटों में से उसे एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा के साथ ही विधानसभा के लिए भी चुनाव हुए थे। कभी कांग्रेस का गढ़ कहलाए जाने वाले प्रदेश ने विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को पूरी तरह नकारते हुए जनता दल को 422 सीटों में से 198 में जिताकर कांग्रेस को प्रदेश की सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की यह अंतिम सरकार थी। इसके बाद लगातार इस प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार घटता चला गया और वह यहां पूरी तरह से अप्रासंगिक हो गई, लेकिन दक्षिण भारत में कांग्रेस का पलड़ा 1989 के लोकसभा चुनाव में भारी रहा। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में मिली सफलता के चलते कांग्रेस 197 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बन पाई थी। भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन भी खासा शानदार रहा। 1984 में मात्र 2 सीटें जीतने वाली भाजपा ने इस चुनाव में 85 सीटें जीतकर जनता दल को बाहर से समर्थन देने का ऐलान कर केंद्र की सत्ता में दूसरी बार गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त कर दिया।