क्रमांक राज्य दंगे मारे गए
1. आंध्र प्रदेश 4 27
2. असम 1 07
3. दिल्ली 08 0
4. गुजरात 26 99
5. कर्नाटक 22 88
6. केरल 02 03
7. मध्य प्रदेश 05 21
8. महाराष्ट्र 03 04
9. राजस्थान 13 52
10. तमिलनाडु 01 06
11. त्रिपुरा 01 0
12. उत्तर प्रदेश 28 224
13. पश्चिम बंगाल 02 06
14. बिहार 08 19
(स्रोतः Divided we stand – A Dossier on Masjid- Mandir Conflict, Prepared by Delhi Forum, 1992
लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा तुरंत बाद भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापस लिए जाने का पत्र राष्ट्रपति को सौंप दिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राष्ट्रपति से संसद में बहुमत सिद्ध करने के लिए समय मांगा। वे इस मुगालते में थे कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद उन्हें संसद में पिछड़ी जाति के सांसदों का समर्थन मिलेगा-ही-मिलेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उल्टा जनता दल के भीतर ही नेतृत्व के मुद्दे पर दो फाड़ हो गया। राष्ट्रपति ने 7 नवम्बर, 1990 के दिन वी.पी. सिंह को संसद में बहुमत साबित करने के निर्देश दिए। कांग्रेस ने खुली घोषणा कर दी थी कि वी.पी. सिंह के स्थान पर यदि जनता दल नया नेता चुनता है, तो पार्टी उसे प्रधानमंत्री बनाने के लिए समर्थन दे देगी। 5 नवम्बर को जनता दल के 140 सांसदों में से 47 ने वी.पी. के नेतृत्व में अविश्वास प्रकट करते हुए नई पार्टी जनता दल (समाजवादी) के गठन का ऐलान कर दिया। इस पार्टी का नेतृत्व चंद्रशेखर को सौंपा गया था। 7 नवम्बर को जैसा अपेक्षित था, वी.पी. सिंह सरकार लोकसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाई और केंद्र में नई सरकार बनने की कवायद तेज हो गई। 10 नवम्बर, 1990 को कांग्रेस के बाहरी समर्थन से मात्र 63 सांसदों (16 सांसदों ने विश्वासमत के बाद चंद्रशेखर के समाजवादी जनता दल का दामन थाम लिया था) वाले दल की सरकार का गठन हो गया और चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली।
विश्वनाथ प्रताप सिंह का बतौर प्रधानमंत्री कार्यकाल मात्र 11 महीनों का रहा। इन 11 महीनों में उनका अधिकांश समय अपनी अल्पमत की सरकार को बचाए रखने और जनता दल की आंतरिक रार को सुलझाने में बीता। राजीव गांधी सरकार में बतौर वित्तमंत्री और उसके बाद रक्षामंत्री रहते वी.पी. सिंह की छवि एक कड़क और मजबूत निर्णय क्षमता वाले नेता की बनी थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी कार्यशैली एक ऐसे लाचार और कमजोर राजनेता की नजर आती है जो किसी भी कीमत पर सत्ता को पाने और बचाए रखने को आतुर था। उनके मंत्री मंडलीय सचिव रहे वरिष्ठ नौकरशाह बी.जी. देशमुख के अनुसार- वह निश्चित रूप से एक चतुर राजनीतिज्ञ और कभी-कभी चालाक व्यक्ति थे। भ्रष्टाचार के लिए राजीव गांधी को निशाना बनाने वाला उनका अभियान कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने की एक बड़ी रणनीति थी। फिर देवीलाल द्वारा प्रधानमंत्री के रूप में उनका नामांकन अपने आप में राजनीतिक धूर्तता थी, जिस कारण चंद्रशेखर का नाराज होना पूरी तरह से जायज था। लोकसभा चुनावों के लिए उनके द्वारा भाजपा के साथ सीटों के लिए तालमेल राजनीतिक रूप से एक सोची-समझी रणनीति थी, हालांकि उन्होंने कभी भी भाजपा के साथ संयुक्त रूप से चुनावी मंच साझा नहीं किया …फिर जब उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के नाम पर भाजपा की राजनीति को समझा तो उसके जवाब में उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए मंडल कार्ड खेल डाला। अक्टूबर, 1990 में जब उन्हें एहसास हो गया कि अब उनकी सरकार के दिन लद गए हैं और संसद में उनकी हार निश्चित है तो एक बार फिर से उन्होंने राजनीतिक चालबाजी का सहारा लेते हुए खुद को ऐसे राजनेता के तौर पर सामने रखने का प्रयास किया, जो अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए सत्ता त्यागने तक के लिए तैयार था।
प्रधानमंत्री पद से हटने के कुछ समय के बाद वी.पी. सक्रिय राजनीति को अलविदा कहकर चित्रकारी और कविता-लेखन में जुट गए थे। उनका स्वास्थ खराब रहने लगा था। 1998 में उन्हें कैंसर सरीख प्राणघातक रोग हो गया। उनकी एक किडनी भी पूरी तरह से खराब हो चुकी थी, लेकिन लम्बे अर्से तक राजनीति से दूर रहे वी.पी. सिंह सामाजिक आंदोलनों में लेकिन शिरकत करते रहते थे। उन्होंने किसानों की बात रखने के लिए एक संगठन का गठन ‘किसान मंच’ के नाम से किया था। इस संगठन के जरिए उन्होंने किसानों के हितों की मांग करते हुए कई आंदोलन भी किए। वी.पी. हालांकि सक्रिय राजनीति से किनारा कर चुके थे, लेकिन उनका मन राजनीति में ही रमता था। चित्रकारी और कविताओं के साथ-साथ वे राजनीतिक मामलों में भी सक्रिय रहते और दक्षिणपंथी ताकतों के उभार को रोकने का प्रयास करते रहते थे। 2002 के आस-पास वे एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा से इतर एक तीसरे राजनीतिक मोर्चे के गठन की कवायद में शामिल हो गए। इस दौरान मेरी उनसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर लम्बी बातचीत हुई जिसे साप्ताहिक ‘दि संडे पोस्ट’ के 6 जनवरी, 2002 के अंक में प्रकाशित किया गया था। इस साक्षात्कार के दौरान वी.पी. सिंह ने दक्षिणपंथ के उभार को देश की एकता और अखंडता बताते हुए कहा था-सबसे बड़ी ताकत या शक्ति देश की एकता है। इसी आपसदारी को बनाए रखें। यह मेरा सभी देशवासियों को नववर्ष का संदेश है कि भारत की एकता और अखण्डता सभी धर्मों के आपसी सद्भाव और आपसी भाईचारे पर टिकी है। हर देशवासी का यह प्रथम कर्तव्य है कि वह इस सद्भाव को बनाए रखे। जिस दिन साम्प्रदायिकता और फिरकापरस्त ताकतें हावी हो गईं उसी दिन यह देश टूट जाएगा। इसे बचाए रखने की जिम्मेदारी पूरे देश की है।
मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री ने सामाजिक न्याय का लक्ष्य पूरा न कर पाने की बात भी अपने इस साक्षात्कार के दौरान पूरी साफगोई से स्वीकारी थी- मैं समझता हूं कि सामाजिक न्याय का अर्थ यह है कि जितने भी वंचित वर्ग हैं, दलित हैं, पिछड़े हैं, उच्च वर्ग के भी जो पिछडे़ लोग हैं, जातियों को काटते हुए सबको इकट्ठा कर उनको हिस्सेदारी दी जाए। यह शिरकत की लड़ाई थी और इसके दूसरे चरण में शिक्षा का प्रसार कर शैक्षिक पिछड़ेपन को खत्म करना लक्ष्य होना चाहिए था। यह न होकर सामाजिक न्याय की लड़ाई जातीय समीकरणों में फंसकर अपने मूल आधार से हटकर लक्ष्य से भटक गई।लम्बी बीमारी के बाद सामाजिक न्याय के मसीहा बनने की चाह रखने वाले वी.पी. का निधन 27 नवम्बर, 2008 को हो गया। इतिहास वी.पी. सिंह को क्या सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर याद रखेगा या फिर एक ऐसे कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री के तौर पर जिसने अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए मंडल कार्ड का इस्तेमाल करने, दक्षिणपंथी ताकतों के साथ समझौता करने और यहां तक कि कपटपूर्ण तरीकों के जरिए प्रधानमंत्री चुने जाने तक से परहेज नहीं किया था, यह इतिहास के गर्भ में छिपा है।
विश्वनाथ प्रताप सिंह के स्थान पर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर स्वयं कांग्रेस का हिस्सा रह चुके थे। समाजवादी विचारों से प्रभावित चंद्रशेखर ने अपनी राजनीतिक यात्रा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर शुरू की थी। 1962 में बतौर निर्दलीय प्रत्याशी राज्यसभा सदस्य बने चंद्रशेखर 1964 में कांग्रेस में शिामल हो गए थे। कांग्रेस के भीतर उनकी गिनती समाजवादी विचारों वाले ऐसे नेताओं में की जाती थी, जिन्हें युवा तुर्क कहकर पुकारा जाता था। कांग्रेस के भीतर रहकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नीतियों का चंद्रशेखर विरोध करते थे। जयप्रकाश नारायण द्वारा 1974 में बिहार छात्र आंदोलन की कमान संभालने के दौर में चंद्रशेखर ने खुलकर जे.पी. का साथ दिया था। 1975 में आपातकाल लागू किए जाने के बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव से पहले वे गठित जनता पार्टी के अध्यक्ष चुने गए थे। जनता सरकार में उन्होंने मंत्री पद न लेकर संगठन का अध्यक्ष बने रहना तय किया था। 1980 में हुए मध्यावधि चुनावों में जनता पार्टी का प्रदर्शन खासा खराब रहा और वह केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई थी। चंद्रशेखर न तो पार्टी को टूटने से बचा पाए और न ही उसका जनाधार बचा पाने- बना पाने में सफल रहे। 1977 में बलिया (उत्तर प्रदेश) लोकसभा सीट जीतने वाले चंद्रशेखर 1980 में दोबारा इसी सीट से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए थे, लेकिन 1984 में वे स्वयं का चुनाव भी हार गए और उनके नेतृत्व वाली जनता पार्टी मात्र 10 लोकसभा सीट जीतकर हाशिए पर जा पहुंची। मई, 1988 में उन्होंने पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था। इसी वर्ष जनता पार्टी और कई अन्य दलों के विलय के बाद जनता दल अस्तित्व में आया, जिसकी कमान विश्वनाथ प्रताप सिंह को सौंपी गई थी।
बतौर प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का कार्यकाल बेहद संक्षिप्त रहा। कांग्रेस पार्टी ने एक मामूली से मुद्दे को आधार बनाते हुए चंद्रशेखर सराकर से अपना समर्थन वापस लिए जाने का निर्णय मार्च, 1991 में ले लिया, जिसके चलते 6 मार्च, 1991 को चंद्रशेखर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे के बाद देश में मध्यावधि चुनाव कराए गए। चंद्रशेखर इस दौरान 21 जून, 1991 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे थे। उनके इस संक्षिप्त कार्यकाल में देश ‘भुगतान संतुलन घाटा’ (Balance fo payment deficit) की चपेट में आ गया था। सरल भाषा में इसका अर्थ है-अधिक आयात और कम निर्यात होने के कारण विदेशी कर्जदाताओं को समय पर भुगतान न कर पाने की स्थिति। भारत आजादी के उपरांत पहली बार इतने गम्भीर आर्थिक संकट के जाल में आ फंसा था। इस संकट के मूल में 1985 के बाद से भारत की आयात पर निर्भरता बढ़ने के साथ-साथ सोवियत संघ का विघटन, खाड़ी युद्ध की शुरुआत समेत कई अंतरराष्ट्रीय कारण शामिल थे। सोवियत संघ के साथ भारत का व्यापार भारतीय मुद्रा में होता था, जिसके चलते उसकी अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम थी, लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद स्थिति बदल गई और अपनी आवश्यक वस्तुओं के आयात को सुचारू रखने के लिए अमेरिका और यूरोपीय मुल्कों के साथ व्यापार में तेजी आई जिसका सीधा असर हमारे विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ने लगा था।