पंजाब की राजनीति में ज्ञानी जैल सिंह की प्रतिद्वंद्विता अपने समकालीन एक अन्य कांग्रेसी नेता दरबारा सिंह से रहा करती थी। कहा जाता है कि दरबारा सिंह को कमजोर करने की मंशा के चलते ज्ञानी जैल सिंह हर तरीके से भिंडरावाला की मदद करने लगे थे, लेकिन जनरैल सिंह आने वाले दिनों में अपने राजनीतिक आकाओं के लिए भस्मासुर के समान होता चला गया था। जैसे- जैसे उसकी लोकप्रियता में इजाफा हुआ, वह निरंकुश और स्वच्छंद होने लगा। 13 अप्रैल, 1978 को निरंकारी सम्प्रदाय का एक सम्मेलन अमृतसर में आयोजित किया गया था। जनरैल सिंह भिंडरावाला ने इस सम्मेलन के खिलाफ अपने अनुयायियों को ललकारा, जिसका नतीजा रहा इस सम्मेलन को परम्परागत सिखों द्वारा जबरन रोके जाने के दौरान भारी हिंसा का होना। निरंकारियों और परम्परागत सिखों के मध्य भड़की हिंसा को काबू करने के लिए पंजाब पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी थी। 16 लोग इस हिंसा के चलते मारे गए। मारे जाने वालों में जनरैल सिंह भिंडरावाला का करीबी फौजा सिंह भी शामिल था।
इस घटना को पंजाब में आतंकवाद का बीज रोपने वाली घटना के तौर पर देखा जाता है, क्योंकि इसके बाद जनरैल सिंह ने अपने सहयोगी फौजा सिंह की मृत्यु का बदला लेने के लिए हथियार उठाने का फैसला कर निरंकारी नेताओं पर जानलेवा हमले करने शुरू कर दिए थे। पंजाब सरकार ने इस हिंसा के लिए निरंकारी प्रमुख बाबा गुरबचन सिंह समेत 60 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया था। जनवरी, 1980 में इन सभी को अदालत ने पर्याप्त सबूत न होने के चलते बरी कर दिया। भिंडरावाला ने इस फैसले को अपने अंदाज में चुनौती देने का फैसला किया और अप्रैल, 1980 में बाबा गुरबचन सिंह की हत्या कर दी गई। पंजाब में इस दौरान तेजी से कानून- व्यवस्था बिगड़ने लगी थी।
फरवरी, 1980 में केंद्र सरकार ने जिन नौ विपक्षी दलों की सरकारों को बर्खास्त किया था, पंजाब की अकाली सरकार उनमें से एक थी। इंदिरा गांधी के इस फैसले ने सिखों की भावना को ठेस पहुंचाने और अलगाववाद की चिंगारी को भड़काने का काम कर दिखाया, लेकिन जून, 1980 में राज्य विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस अकाली दल के हाथों से सत्ता छीनने में सफल हो गई। कहा जाता है कि इन चुनावों के दौरान भिंडारावाला ने कांग्रेस के पक्ष में काम किया था। कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका समेत विश्व के कई देशों में बसे अप्रवासी सिखों ने अब एकजुट होकर पंजाब को अलग राष्ट्र बनाए जाने की मुहिम शुरू कर दी। इस अलगाववादी सोच का नेतृत्व होशियारपुर जिले से ताल्लुक रखने वाला एक दांतों का डॉ. जगजीत सिंह चौहान कर रहा था। चौहान 1967 में पहली बार रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के टिकट पर पंजाब की टांडा विधानसभा सीट से विधायक चुना गया था। अकाली गठबंधन वाली सरकार में उसे कुछ समय के लिए विधानसभा का उपसभापति भी चुना गया था। इसी सरकार में वह बाद में वित्तमंत्री भी बना। 1969 में हुए विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद चौहान ब्रिटेन जा बसा। चौहान भले ही चुनावी राजनीति में कुछ ही बरस तक सक्रिय रहा था, लेकिन अलगाव का बीज उसके भीतर अर्से से अंकुरित हो चुका था। ब्रिटेन में रहते हुए उसने अलग सिख राष्ट्र की अवधारणा को मूर्त रूप देने के प्रयास शुरू कर दिए थे। चौहान को इस दौरान पाकिस्तान से जमकर समर्थन के साथ-साथ मदद मिलने लगी थी। 1971 में नानक साहिब गुरुद्वारा में मत्था टेकने के बहाने वह पाकिस्तान-यात्रा पर गया, जहां उसकी मुलाकात पाकिस्तानी सैन्य शासक जनरल याहया खान से हुई थी। याहया खान ने अपने भारत-विरोधी एजेंडे के लिए चौहान को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1971 में चौहान ने भारत की सम्प्रभुता को खुली चुनौती देते हुए अमेरिकी दैनिक ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में एक विज्ञापन प्रकाशित कर अलग सिख राष्ट्र ‘खालिस्तान’ बनाए जाने की बात कही। इसके बाद अप्रवासी सिखों के उस वर्ग का, जो अलग सिख राष्ट्र के पक्षधर थे, चौहान नेता बन गया। उसे भारी तादाद में ऐसे अप्रवासी सिखों ने धन उपलब्ध कराना शुरू कर दिया था।
इंदिरा गांधी द्वारा अकाली सरकार को बर्खास्त किए जाने के बाद विश्वभर में फैले सिख समुदाय के लोगों में भारी बेचैनी और नाराजगी देखने को मिलती है। इस नाराजगी का नतीजा रहा अप्रैल, 1980 में चौहान और समर्थकों द्वारा अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में बैठकर ‘नेशनल काउंसिल ऑफ खालिस्तान’ के गठन की घोषणा करना, जिसका प्रमुख जगजीत सिंह चौहान को बनाया गया था। लेकिन तत्कालीन केंद्र सरकार अलगाववाद की इस चिंगारी को समय रहते बुझा देने के बजाय अकाली राजनीति को बेअसर करने और पंजाब में येन-केन-प्रकारेण अपनी सत्ता स्थापित करने में उलझी रही। अकाली दल की कमान इस दौरान संत हरचरण सिंह लोंगोवाल के हाथों में थी। लोंगोवाल ने भिंडरावाला के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर स्वर्ण मंदिर को अपनी राजनीति का केंद्र बनाने का फैसला किया। वे अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को केंद्र सरकार के साथ असहयोग आंदोलन शुरू करने, चण्डीगढ़ को पंजाब के हवाले करने और ‘आनंदपुर साहिब प्रस्ताव’ को लागू करने की बाबत निर्देश स्वर्ण मंदिर के भीतर से जारी करने लगे। स्वर्ण मंदिर के ही एक हिस्से का इस्तेमाल भिंडरावाला भी करने लगा था।
इस कालखण्ड में पंजाब की समस्या के साथ-साथ असम में असमी बनाम गैर-असमी मुद्दा भी केंद्र सरकार के लिए बड़ी समस्या बनकर उभरने लगा। अलग आदिवासी राज्य की मांग भी शिबू सोरेन के नेतृत्व में हिंसक होने लगी थी। नागालैंड में एक बार फिर से अलगाववादी शक्तियां फिजो नागा नेशनल काउंसिल के नेतृत्व में सक्रिय हो चली थी। नाना प्रकार की समस्याओं से जूझ रही कांग्रेस को संजय गांधी की कमी खासी अखरने लगी थी। संजय गांधी की विमान दुर्घटना में हुई आकस्मिक मृत्यु के बाद इंदिरा ने अपने बड़े बेटे राजीव गांधी को कांग्रेस में शामिल होने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। राजीव पूरी तरह गैर-राजनीतिक व्यक्ति थे। उनकी पत्नी सोनिया गांधी किसी भी कीमत पर राजीव को राजनीति का हिस्सा नहीं बनने देना चाहती थीं। कई महीनों की पारिवारिक रस्साकशी के बाद अंततः राजीव ने राजनीति के अखाड़े में उतरने का निर्णय ले ही लिया। 5 मई, 1981 को उन्होंने इस बात की औपचारिक घोषणा करते हुए अपने भाई संजय गांधी के निधन से रिक्त हुई अमेठी सीट से उपचुनाव लड़ने के लिए हामी भर दी। 17 अगस्त, 1981 में उन्होंने बतौर संसद सदस्य अपने पद की शपथ ली। इस उपचुनाव में उन्होंने दिग्गज समाजवादी नेता शरद यादव को 237,000 मतों से पराजित किया था। राजीव गांधी आने वाले समय में उन सभी समस्याओं पंजाब, असम, नागालैंड, झारखण्ड इत्यादि से जूझने वाले थे, जिनके चलते 80 का दशक भारी हिंसा और लोकतंत्र के लिए संकट वाला काल बना।
असम में समस्या के मूल में था-विभाजन के दौरान वहां भारी संख्या में शरणार्थियों का आ बसना। 1947 से 1951 के मध्य असम में लगभग पौने तीन लाख शरणार्थी आ बसे थे। इनमें से बहुसंख्यक बंगाली हिंदू थे, जो आजादी से पहले पूर्वी बंगाल के नागरिक हुआ करते थे। 1971 में बांग्लादेश के गठन के दौरान भी भारी संख्या में बंगालीभाषी हिंदू और मुसलमान असम में आ बसे। इन अवैध शरणार्थियों की संख्या 1980 में 20 लाख के करीब जा पहुंची थी। असम के मूल निवासियों में इन शरणार्थियों को लेकर असंतोष आजादी के बाद से ही देखने को मिलता है। कई बार इस असंतोष ने हिंसक रूप भी ले लिया था। केंद्र सरकार ने अवैध रूप से आ बसे विदेशियों को चिन्हित करने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन ऐसे सभी प्रयास जिनमें 1951 में राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) की व्यवस्था लागू करना, 1964 में विदेशी प्राधिकरण का गठन इत्यादि शामिल हैं। ये सभी प्रयास इस समस्या का निराकरण कर पाने में पूरी तरह विफल रहे। 1979 में इस असंतोष को एक बड़े सामाजिक आंदोलन में बदलने का काम असम के कुछ युवा छात्र नेताओं ने कर डाला। इन छात्र नेताओं ने ‘ऑल असम स्टूडेंट फेडरेशन’ (आसू) का गठन कर केंद्र सरकार पर अवैध रूप से आ बसे विदेशी नागरिकों को चिन्हित करने, उनका मतदाता अधिकार समाप्त करने और उन्हें असम से निकाल बाहर करने के लिए पहले शांतिपूर्ण जनांदोलन और बाद में हिंसा का सहारा लेकर राज्य में कानून-व्यवस्था को पूरी तरह चरमराने का काम कर दिखाया था। हालात इस कदर बेकाबू हुए कि केंद्र को अप्रैल, 1980 में समूचे असम प्रदेश को ‘अशान्त क्षेत्र’ घोषित करना पड़ा था। रामचंद्र गुहा उन दिनों के असम की स्थिति को अंग्रेजी पत्रिका ‘इंडिया टुडे’ की एक रिपोर्ट के हवाले से सामने रखते हैंµआंदोलन ने निःसंदेह विकराल रूप ले लिया था। अब यह एक साक्षर अथवा मुखर तक ही सीमित नहीं रह गया था
…विदेशी विरोधी भावना के अलावा आंदोलन में अब कई अन्य खतरनाक बीज भी रोपित होने लगे हैंµबंगाली-विरोधी, वामपंथ-विरोधी, मुस्लिम-विरोधी, गैर-असमिया विरोधी और धीरे-धीरे, लेकिन स्पष्ट रूप से भारत के विरोधी।
1980 में ही एक बार फिर से नागालैंड में पृथकतावादी आतंकी गतिविधियों की शुरुआत होने लगी थी। 1975 में आपातकाल के दौरान केंद्र सरकार नागा विद्रोही के साथ एक समझौता, जिसे ‘शिलांग समझौता’ कहकर पुकारा जाता है, कर पाने में सफल रही थी। इस समझौते के अनुसार नागा विद्रोही के संगठन नागा नेशनल काउंसिल ने बगैर शर्त हथियार त्यागने और भारतीय संविधान के प्रति पूर्ण आस्था रखने पर अपनी सहमति दे दी थी। नागा नेशनल काउंसिल का एक धड़ा, जिसका नेतृत्व इस संगठन में दूसरे नम्बर की हैसियत रखने वाले थुइगलेंग मुइवा के हाथों में था, इस समझौते से संतुष्ट नहीं हुआ। मुइवा को नागालैंड में भारत के खिलाफ मुहिम छेड़े रखने के लिए चीन द्वारा लगातार उकसाया जा रहा था। 1980 में मुइवा ने एक अलग भूमिगत संगठन ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड’ (एनएससीएन) बनाकर एक बार फिर से इस क्षेत्र में भारत-विरोधी अभियान को हवा देनी शुरू कर दी। मुइवा का मानना था कि नागा तभी आजाद हो सकते हैं, जब भारत का विघटन हो जाए। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मुइवा ने कश्मीरी और खालिस्तानी आतंकवादी संगठनों के साथ सम्बंध भी मजबूत करने शुरू कर दिए थे।
इतनी समस्याएं मानो कम नहीं थीं कि देश के विभिन्न हिस्सों में मजहबी तनाव तेज होने और कई स्थानों पर दंगों की घटनाएं केंद्र सरकार के लिए अलग तरह का संकट पैदा करने लगीं। आम चुनाव में मिली हार के बाद जनता परिवार में नाना प्रकार के मतभेद तेजी से उभर रहे थे। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर कांग्रेस विरोधी संगठनों ने 1977 में जिस जनता पार्टी का गठन किया, उसमें जनसंघ भी शामिल था। यह पूरी तरह बेमेल खिचड़ी के समान गठबंधन था, जिसका तात्कालिक उद्देश्य इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करना मात्र था। जनता पार्टी में जनसंघ के मुद्दे पर टकराव उसके गठनकाल से होना शुरू हो गया था। जनता परिवार में शामिल समाजवादी धड़े ने जनसंघ पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अपने सम्बंधों को पूरी तरह समाप्त कर दे। 1978 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने जनसंघी नेताओं के संग दोहरी सदस्यता को लेकर बहस छेड़ दी थी। उनका कहना था कि जनता पार्टी में शामिल जनसंघी नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी में से किसी एक को चुने, दोहरी सदस्यता मान्य नहीं होगी।