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Editorial

सिखों संग न्याय न कर पाए राजीव

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-107

मारवाह को इस जांच को पूरी करने से रोकने के बाद राजीव गांधी सरकार ने उन्हें प्रौन्नत कर दिल्ली पुलिस कमिश्नर बनाया था। वे 1985 से 1988 तक इस पद पर रहे। दिल्ली दंगों के दौरान उनकी नजरों में दोषी अफसरों को मारवाह ने दंडित करने का कोई प्रयास नहीं किया। उनके नेतृत्व में दिल्ली पुलिस ने दंगों के बाद दर्ज कराई गई रिपोर्टों की निष्पक्ष जांच नहीं की, जिसका नतीजा रहा दोषियों का न पकड़ा जाना। वर्ष 2009 में दिल्ली की एक अदालत ने इन दंगों की बाबत दर्ज किए मुकदमे पर अपना फैसला देते हुए जो कहा, वह इन दंगों में कांग्रेस की और दिल्ली पुलिस की सहभागिता का सच सामने लाता है। कोर्ट ने कहा- ‘हालांकि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करते हैं और दिल्ली इसकी राष्ट्रीय राजधानी है, लेकिन सामान्य रूप से 1984 के सिख-विरोधी दंगों की घटनाएं और विशेष रूप से दिल्ली पुलिस और देश की प्रशासनिक मशीनरी द्वारा निभाई गई भूमिका का उल्लेख विश्व के समक्ष हमारे सिर को शर्म से झुका देता है।’

वेद मारवाह आयोग को बंद कर बनाए गए रंगनाथ मिश्रा आयोग ने केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट अगस्त, 1986 में सौंपी थी। रंगनाथ मिश्रा आयोग निष्पक्ष तरीके से जांच करने में सर्वथा विफल रहा। आयोग के समक्ष दिल्ली दंगों के पीड़ितों ने 2905 शपथ पत्र दिए, कानपुर के 675 दंगा पीड़ितों के शपथ-पत्र और बोकारो तथा चास (झारखण्ड) से 172 शपथ-पत्र आयोग के समक्ष दाखिल किए गए थे। इन शपथ-पत्रों में विस्तार से दंगाइयों और उनकी सहायता करने वाले पुलिस अधिकारियों को चिन्हित किया गया था, लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पुलिस के वरिष्ठ अफसरों को क्लीनचिट देते हुए कनिष्ठ पुलिसकर्मियों पर गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार की बात कहकर दंगा पीड़ितों द्वारा किए गए शपथ पत्रों को एक सिरे से खारिज कर डाला। आयोग ने कांग्रेस के वरिष्ठ सांसदों और नेताओं की भूमिका को भी अपनी रिपोर्ट में नकार दिया। कांग्रेस नेता एच.के.एल. भगत पर लगे आरोपों पर आयोग की टिप्पणी हैरान करने वाली थी- ‘श्री एल.के.एल. भगत एक वर्तमान संसद सदस्य और मंत्री हैं। वे ऐसा अभद्र आचरण नहीं कर सकते, जैसे आरोप उन पर लगाए गए हैं।’

तब प्रेस ने मिश्रा आयोग रिपोर्ट की खासी आलोचना की थी। ख्यातिप्राप्त पत्रकार इंद्रजीत बघवार ने आयोग की कार्यशैली पर लिखा था- ‘न्यायमूर्ति रंगनाथन आयोग के गठन बाद ही स्वतंत्र विश्लेषकों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि यह एक व्यर्थ की जांच साबित होगी। एक कठोर जांच कई महत्वपूर्ण लोगों को लील सकती है। स्वयं प्रधानमंत्री राजीव गांधी दंगों के दौरान बड़े पैमाने पर सिखों की हत्या की आधिकारिक जांच कराए जाने के इच्छुक नहीं हैं…उन्होंने एक बार दंगों को ‘मृत मुद्दा’ बताते हुए पुराने जख्मों को दोबारा खोले जाने के खिलाफ तर्क दिया था।’

न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा 1990 में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए थे। 1993 में वे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बनाए गए। 1998 में कांग्रेस की तरफ से उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाया गया था। न्यायमूर्ति मिश्रा की तरह ही इन दंगों की शुरुआती जांच करने वाले आईपीएस अधिकारी वेद मारवाह पर भी कांग्रेस की विशेष कृपा रही। उन्हें 1985 में दिल्ली का पुलिस कमिश्नर, 1988 में नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (एनएसजी) का महानिदेशक और सेवानिवृत्ति के बाद मणिपुर, मिजोरम और झारखण्ड का राज्यपाल बनाकर उपकृत किया गया था। 1989 में उन्हें राजीव गांधी सरकार ने ‘पद्मश्री’ से भी सम्मानित किया था।

इन दंगों की जांच के लिए मिश्रा आयोग के बाद भी कई आयोग और समितियां गठित की गईं, लेकिन दोषियों को सही तरीके से चिन्हित कर सजा दिए जाने की कवायद आज तक अधूरी है। कांग्रेस नेतृत्व ने लगातार आरोपी कांग्रेसी नेताओं को संरक्षण देने का काम बीते 39 बरसों के दौरान किया है। जगदीश टाइटलर और एच.के.एल. भगत तो राजीव गांधी, नरसिम्हा राव व डॉ. मनमोहन सिंह सरकारों में मंत्री तक बनाए गए। 12 अगस्त, 2005 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इन दंगों के लिए लोकसभा में सिख समुदाय से माफी अवश्य मांगी थी। इन दंगों का एक बड़ा असर सिख सम्प्रदाय में अलगाववाद का विस्तार होना रहा। बड़ी तादाद में युवा सिखों ने आतंकवाद की राह पकड़ ली थी। इस कारण पंजाब में आतंकी हिंसा का जबरदस्त विस्तार आने वाले वर्षों में देखने को मिला। कई नए आतंकी संगठन अस्तित्व में आए, जिन्होंने इन दंगों में शामिल बड़े कांग्रेसी नेताओं को अपना निशाना बनाया था। 31 जुलाई, 1985 को ‘खालिस्तान कमांडो फोर्स’ के आतंकियों हरजिंदर सिंह जिंदा, सुखदेव सिंह सुक्खा और रंजीत सिंह गिल ने कांग्रेस सांसद ललित माकन की दिल्ली में दिन-दहाड़े हत्या कर दी थी। सितम्बर, 1985 जिंदा और सुक्खा ने दिल्ली में एक अन्य कांग्रेसी नेता अर्जुन दास की हत्या की थी। अदालतों से सिखों को निराशा ही हाथ लगी। कुल मिलाकर 442 दंगाइयों पर मुकदमा चला था। इनमें से 49 को उम्रकैद और तीन को दस बरस की सजा सुनाई गई थी। पुलिस के किसी भी अधिकारी को उनकी लापरवाही अथवा सहभागिता के लिए आज तक दंडित नहीं किया जा सका है। 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद 2015 में एक विशेष जांच टीम (एसआईटी) का गठन किया गया, जिसकी जांच के उपरांत इन दंगों में शामिल एक आरोपी को 2018 में मृत्युदंड और एक अन्य को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इसी जांच दल की रिपोर्ट के पश्चात् कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को भी दिसम्बर, 2018 में आजीवन कारावास दिया गया।

हालांकि राजीव गांधी पर इन दंगों को लेकर सीधे शामिल होने के कोई आरोप नहीं लगे थे, लेकिन उन पर कांग्रेस नेताओं को बचाने के प्रयास तथा समय रहते दंगों को न रोके जाने का आरोप आज तक चस्पा हुआ है। इन दंगों में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और पुलिस अफसरों की सांठ-गांठ के चश्मदीद गवाह एक अंग्रेजी दैनिक के उस दौरान रिपोर्टर रहे ख्यातिप्राप्त पत्रकार संजय सूरी के शब्दों में- ‘…मेरा मानना है कि इन मौतों के लिए सबसे अधिक जिम्मेवार राजीव गांधी रहे। उन्होंने वह सब नहीं किया, जो इन दंगों को रोकने के लिए उन्हें करना चाहिए था। मारने का आदेश देने में और मारने से रोकने में असफल रहने में फर्क होता है। प्रश्न यह कि दूसरे अपराध से पहला अपराध कितना कमतर है? कम जरूर है, लेकिन कितना? इस विषय पर हम सबकी अपनी-अपनी राय हो सकती है, लेकिन यह राय उन बिंदुओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती, जो स्पष्ट इशारा करते हैं कि भले ही सिखों को मारने के सीधे आदेश नहीं दिए गए हों, तो उन्हें बचाने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया। राजीव गांधी ने अवश्य ही ऐसा कुछ नहीं कहा या किया, जिससे यह माना जा सके कि वे स्वयं इस हिंसा के लिए जिम्मेवार थे, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी कहा या किया, उससे उनके भीतर छिपी हिंसा का पता चलता है। बाद में उनके द्वारा लिए गए फैसलों से भी प्रमाणित होता है कि उन्होंने न्याय नहीं होने दिया।’

सिख समुदाय की भावनाएं इन दंगों के चलते किस कदर आहत हुई होंगी, इसे भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ के निदेशक रह चुके आईपीएस अधिकारी ए.एस. दुलत के कथन से समझा जा सकता है। दुलत उन दिनों मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आईबी के बतौर राज्य प्रमुख तैनात थे। 31 अक्टूबर के दिन वे दिल्ली में थे, जब उन्हें तत्काल भोपाल वापस जाने को कहा गया। दुलत तमिलनाडु एक्सप्रेस ट्रेन से भोपाल के लिए रवाना हुए। गुड़गांव के आस-पास दंगाइयों ने ट्रेन को रोकने का प्रयास किया। धोलपुर (राजस्थान) में जबरन इस ट्रेन को रोक लिया गया और दंगाई सिखों को हर डिब्बे में घुसकर तलाशने लगे। वे नारा लगा रहे थे-‘मारो सालों को’। बकौल दुलत दो सिखों को इन दंगाइयों ने विनम्रतापूर्वक टेªन में ही मार डाला। दुलत स्वयं सिख थे, लेकिन वे पगड़ी नहीं पहनते थे। इसी के चलते उन्हें दंगाई पहचान नहीं पाए और उनकी जान बच गई। अपनी पुस्तक ‘ए लाइफ इन शैडोज’ में वे लिखते हैं- ‘कई रातों तक मैं सो नहीं पाया। मैं जिससे गुजरा, उसकी बाबत मुझे बुरे सपने आते थे। यह मेरे जीवन का वह समय था, जो व्यक्तिगत रूप से बेहद कष्टदायक था। ईमानदारी से कहूं, तो 1984 की इस शरद ऋतु में पहली बार मैंने खुद को एक सिख के रूप में पहचानना शुरू किया। मुझे लगने लगा कि सबसे पहले मैं एक सिख हूं। इससे पहले मैं स्वयं को केवल एक भारतीय मानता आया था, लेकिन अब जब मैंने उत्तर भारत में सिखों की निर्मम हत्या होते देखी, तो मैं उनके डर और उनके भीतर के क्रोध को समझ पाया।’

राजीव ने सत्ता संभालने के साथ ही केंद्र सरकार और कांग्रेस संगठन की कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने के प्रयास शुरू किए। उन्होंने अपनी टीम में तकनीकी विशेषज्ञ युवाओं को तरजीह देने और दून स्कूल (देहरादून) में अपने सहपाठी रहे गैर-राजनीतिज्ञों को शामिल कर स्पष्ट संदेश दिया कि उनकी कार्यशैली इंदिरा गांधी की कार्यशैली से भिन्न रहने वाली है। राजीव अपनी कोर टीम में अरुण सिंह और अरुण नेहरू को शामिल कर विपक्षी दलों की आलोचना के शिकार पहले ही दिन से बनने लगे थे। अरुण नेहरू राजनीति में प्रवेश करने से पहले एक अंतरराष्ट्रीय कम्पनी जेनसन एंड निकोलसन में काम करते थे। यह कम्पनी पेंट बनाने का काम करती है। अरुण सिंह बूट पॉलिश बनाने वाली अंतरराष्ट्रीय कम्पनी रेकिट एंड कोलमैन के भारतीय बाजार का काम देखते थे। इन दोनों का नए प्रधानमंत्री की कोर टीम का हिस्सा बनने को लेकर भाजपा नेता और ख्यातिप्राप्त वकील राम जेठमलानी मजाक उड़ाते हुए तब कहा करते थे कि भारत को एक प्लेन वाला, एक पेंट वाला और एक बूट-पॉलिश वाला चला रहे हैं, लेकिन राजीव की छवि आम जनता में एक नवीन उत्साह और उम्मीदों का संचार करने लगी थी। उनके द्वारा अपनी टीम में राजनीति से इतर विषय विशेषज्ञों को शामिल किए जाने को आम तौर पर सराहा गया था। बकौल मिनहाज मर्चेंट- ‘राजीव गांधी की टेक्नोक्रेट्स वाली टीम संजय गांधी के साथियों की बनिस्पत एक स्वागत योग्य बदलाव प्रतीत होती थी। संजय के साथियों में कई बाहुबली, सत्ता के दलाल, चाटुकार या सीधे-सीधे ठग शामिल थे। राजीव द्वारा चयनित सलाहकारों से स्पष्ट होता है कि वे किस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति को लागू करना चाहते थे। हालांकि यह तब कह पाना सम्भव नहीं था कि उनके मैनेजर से राजनेता बने साथी भारतीय राजनीति को समझ पाएंगे और उसमें खुद को स्थापित कर पाएंगे, लेकिन अधिकांश भारतीयों का मानना था कि संजय के बाहुबलियों की तुलना में राजीव की टीम हर दृष्टि से बेहतर है।’

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एस.के. झा ने आकाशवाणी को 1984 में दिए एक साक्षात्कार में राजीव की बाबत कहा- ‘राजीव गांधी के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात उनका स्वतंत्रता संग्राम वाली पीढ़ी से न होना है। इसके कारण वे अतीत से एक प्रकार की दूरी रखते हैं, इससे एक नयापन आया है। उनकी पृष्ठभूमि और व्यक्तित्व आधुनिक सोच वाली है, जो 20वीं सदी के प्रथमकाल वाली सोच से इतर भारत के लिए 21वीं सदी वाले विचार रखती है।’

क्रमशः

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