अटल बिहारी वाजपेयी निसंदेह एक विराट व्यक्तित्व के स्वामी थे। भाजपा को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में स्थापित करने में उनका भारी योगदान है। पैसठ वर्षों तक उनके साथ कंधे से कंधा मिला चलने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने अटल जी की मृत्यु पश्चात जारी अपने संदेश में लिखा कि ‘संघ के प्रचारक, भारतीय जनसंघ की स्थापना, आपातकाल के काले दिनों का संघर्ष, जनता पार्टी का गठन और फिर 1980 में भाजपा का जन्म, मुझे अटल बिहारी वाजपेयी संग अपनी लंबी सहयात्रा हमेशा याद रहेगी।’ आडवाणीजी के इस संदेश के जरिए वाजपेयी जी के राजनीतिक योगदान, विशेषकर भाजपा को शून्य से शिखर तक पहुंचाने की संघर्ष यात्रा को बखूबी समझा जा रहा है। तो चलिए भाजपा के आज सबसे बड़े राजनीतिक दल बनने की कहानी को, इतिहास को बजरिए अटल बिहारी वाजपेयी थोड़ा समझने का प्रयास किया जाए।
शुरुआत भारतीय जनसंघ से होती है जिसकी नींव डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में डाली। वाजपेयी जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। यह वह दौर था जब आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने का काम कांग्रेस को मिला था। 1952 में लोकसभा के लिए हुए पहले आम चुनावों में कांग्रेस को कुल 489 सीटों में से 364 हासिल हुई तो जनसंघ को मात्र तीन। अन्य कम्युनिस्टों और समाजवादियों के खाते में गईं थी। 1957 में हुए दूसरे आम चुनावों में जनसंघ को मात्र चार सीटे मिली। इन चार में से एक सीट पर विजयी होने वाले अटल बिहारी वाजपेयी थे। कांग्रेस ने 371 सीटों पर परचम फहराया था। 1962 के आम चुनाव में स्वयं वाजपेयी हार गए। इस हार से उन्होंने एक बड़ी सीख ली। कांग्रेस को परास्त करने के लिए वाजपेयी ने गठबंधन पर जोर दिया। 1962 में चीन से मिली करारी शिकस्त के बाद जहां नेहरू का करिश्मा कमजोर हुआ, जनसंघ ने विपरीत विचारधारा वाले विपक्षी दलों संग गठबंधन कर लोकसभा के लिए हुए चार उपचुनाव लड़े। हालांकि जिस एक सीट जौनपुर, उत्तर प्रदेश से जनसंघ प्रमुख दीनदयाल उपाध्याय लड़े, गठबंधन वहां हार गया लेकिन राममनोहर लोहिया (फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश), आचार्य कृपलानी (अमरोहा, उत्तर प्रदेश) और मीनू मसानी (राजकोट, गुजरात) से चुनाव जीत गए। गठबंधन के इस पहले प्रयोग से कांग्रेस विरोधी शक्तियों में उत्साह का संचार हुआ। 1967 में जनसंघ, समाजवादी और वामपंथी दलों के संयुक्त विधायक दल ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में सरकार बना डाली। लोकसभा के लिए भी संग चुनाव हुए जिसमें जनसंघ ने पैंतीस सीटें जीत अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूती दी। जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय की रहस्मय परिस्थितियों में हुई मृत्यु पश्चात युवा अटल बिहारी को संगठन की कमान सौंपी गई। यहां यह उल्लेखनीय है कि राजनीतिज्ञ अटल ने दशकों पहले ही गठबंधन के महत्व को पहचान लिय था। क्रिस्टोफी जैफरसेट ने इसका उल्लेख अपनी पुस्तक ‘दि हिन्दु नेशनेलिस्ट मुवमेंट एड़ इंडियन पॉलिटिक्स’ में किया है। वाजपेयी जी के नेतृत्व में जनसंघ ने 1971 का आम चुनाव गठबंधन कर लड़ा। लेकिन इंदिरा गांधी की आमजन में परम् लोकप्रियता चलते गठबंधन मात्र 49 सीट पा सका जिसमें अकेले जनसंघ को 22 सीटें मिली। यानी पैंतीस से घट कर बाइस पहुंच गए। वाजपेयी की लोकतांत्रिक मूल्यों पर गहरी आस्था इसी दौर में देखने को मिलती है जब उन्होंने जनसंध के राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता पार्टी के उपाध्यक्ष भाई महावीर से करवाई ताकि हार के कारणों और स्वयं उनके नेतृत्व की क्षमता पर निष्पक्ष चर्चा हो सके। वाजपेयी ने अपने इन लोकतांत्रिक मूल्यों को अंतिम सांस तक बरकरार रखा। हालांकि यह भी सत्य है कि उनके नेतृत्व को खुली चुनौती देने वाले बलराज मधोक 1972 में ही आडवाणी के पार्टी अध्यक्ष बनने पश्चात बाहर निकाल दिए गए थे। आपातकाल के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्षी दलों की एकता के लिए पहल की जिसका नतीजा जय प्रकाश नारायण की अगुवाई में सामने आया। 1977 के आम चुनाव में इस गठबंधन को बड़ी सफलता मिली। वे वाजपेयी ही थे जिन्होंने जनता पार्टी की सरकार बनाने की राह के रोड़े दूर करने की नीयत से केंद्र सरकार में जनसंघ के कम मंत्री होने की बात स्वीकारी बावजूद इसके की जनता पार्टी के टिकट पर विजयी होने वाले प्रत्याशियों में ज्यादा जनसंघ के थे। बतौर विदेश मंत्री रहते अटल ने अपनी प्रशासनिक क्षमता और राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए चीन संग भारत के संघ सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की। जनता पार्टी का प्रयोग हालांकि लंबा नहीं टिक सका। 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की वापसी के बाद जनता पार्टी टूटी और जनसंघ के नए रूप यानी भाजपा का जन्म हुआ। मुझे याद है तब एक नारा बहुत गूंजा था- ‘भाजपा की तीन धरोहर अटल आडवाणी मुरली मनोहर।’ इन तीनों में अकेले अटल ऐसे थे जिनकी सर्व स्वीकार्यता तब भी थी, आजीवन रही। अटल जी ने इस नव गठित पार्टी के पहले अधिवेशन में जो हुंकार भरी थी- ‘अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा,’ आज वह सत्य प्रमाणित हुआ है। 1984 के आम चुनाव लेकिन भाजपा के लिए बड़ा आघात रहे। मात्र दो सीटों पर वह विजयी रही। सभी दिग्गज चुनाव हार गए। महसाना (गुजरात) से डॉ. ए.के. पटेल और जंगा रेड्डी (आंध्र प्रदेश) से भाजपा के टिकट पर जीत सके थे। यहीं से भाजपा में उग्र हिन्दुत्व का दौर शुरू हुआ। 1986 में आडवाणी ने पार्टी की कमान संभालने के साथ ही शाहबानो प्रकरण के जरिए धर्म आधारित राजनीति की नींव रखी। 1988 में दोबारा अध्यक्ष चुने जाने के साथ ही आडवाणी ने राम जन्म भूमि को मुद्दा बनाने का अभियान छेड़ दिया। निश्चित ही आडवाणी की रणनीति ने ही भाजपा को दो सीटों से 1989 के आम चुनाव में 89 सीटों तक पहुंचा दिया। लेकिन पार्टी के सर्वमान्य नेता अटल ही बने रहे। भाजपा की केंद्र में पहली सरकार जब 1996 में बनी तो अटल को ही नेतृत्व सौंपा गया ताकि संसद में बहुमत पाने के लिए नए सहयोगी जोड़े जा सकें। मात्र तेरह दिन की इस सरकार को लेकिन अटल बिहारी बचा न सके। 1998 में एनडीए गठबंधन बना भाजपा ने दोबारा सरकार बनाई जो मात्र तेरह माह चल पाई। जयललिता के समर्थन वापसी के चलते यह सरकार गिरी, दोबारा चुनाव हुए और अटल बिहारी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद को शपथ ली। सरकार पूरे पांच बरस चली जरूर लेकिन इन पांच बरसों की सत्ता ने अटल जी के छवि को खास प्रभावित भी कर डाला। आज जब वे नहीं हैं, चारों तरफ उनके महिमामंडन की होड़ लगी है। जो उनके प्रधानमंत्रित्वकाल पर कुछ अप्रिय प्रश्न उठा रहे है। उन्हें गरियाया जारहा है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि उनके व्यक्तित्व का समग्र आकलन हो। अटल जी के प्रधानमंत्रित्वकाल में ही रक्षा सौदों में दलाली का स्टिंग ऑपरेशन सामने आया था। अपने चाल-चरित्र और चेहरे पर नाज करने वाली भाजपा के राष्ट्रीय अध्यख कैमरे की निगाहों में नकद रिश्वत लेते पूरे देश ने देखे। बंगारू लक्ष्मण ने तो तब प्रधानमंत्री कार्यालय तक के इसमें शामिल होने की बात कह डाली थी। हालांकि इस्तीफा बंगारू लक्ष्मण का भी हुआ और तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज का भी, लेकिन अटल जी की छवि पर दाग तो लगा ही लगा। अटल सरकार ने सरकारी उपक्रमों के निजीकरण को बढ़ावा अपनी स्थापित स्वदेशी नीति के खिलाफ जा कर दिया। उनकी सरकार की आर्थिक नीतियें के चलते लाखां लघु उद्योग बंद हुए। संघ से जुड़े भारतीय मजदूर संध ने तब इसका भारी विरोध किया था। दत्तोपंत ठेंगड़ी ने तब स्पष्ट कहा था कि सार्वजनिक उद्योग को सरकार जानबूझ कर कमजोर कर रही है ताकि उनका निजीकरण किया जा सके। यही वह समय था जब स्वदेशी जागरण मंच के गुरुमूर्ति ने अटल जी पर बड़ा हमला बोलते हुए उन्हें ‘मुखौटा’ करार दिया था। आज अटल जी को याद करते समय अधिकांश यूटीआई घोटाले भूल रहे हैं जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की संदिग्ध भूमिका पर शिव सेना ने बड़ा हो-हल्ला मचाया था। तब इस प्रकरण की आंच अटल जी के परिवार तक पहुंची थी। उनके दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य का नाम उछला था। अटल जी ने तब खुद के इस्तीफे की बात कह सभी का मुंह तो बंद कर दिया लेकिन वे कमजोर हड्डी के साबित हुए। 1999 में ग्राहम स्टेंस और उनके दो बेटों की बजरंग दल कार्यकर्ताओं द्वारा जिंदा जला देने और तीन बरस बाद 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुए नरसंहार प्रसंग में अटल बिहारी वाजपेयी कमजोर साबित हुए। हालांकि उनके प्रशंसको का विशाल वर्ग यह कहते नहीं थकता कि उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म ना निभाने की बात कह लताड़ा था लेकिन यह अटल सत्य है कि तब वे स्वयं का राजधर्म ना निभा सके थे। गुजरात में सरकारी तंत की दंगों के दौरान घोर उदासीनता, विफलता या फिर जैसा मोदी सरकार पर आरोप लगा, सहभागिता का सही दंड राज्य सरकार की बर्खास्ती था जिसका साहस अटल जी ना कर सके। कारण बहुत स्पष्ट है, अपनी तमाम उदारवादी छवि और बहुत हद तक उदार सोच के बावजूद अटल जी भलीभांति जानते थे कि वे प्रधानमंत्री राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बदौलत बने हैं जिसका मुख्य लक्ष्य भारत को हिंद राष्ट्र बनाना है। वे जानते थे संघ के बाहर उनके लिए, उनकी राजनीति के लिए कोई जमीन नहीं है। इसलिए स्वयं की छवि को बचाने मात्र के लिए उन्होंने भले ही नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी लेकिन साथ ही यह भी जोड़ना नहीं भूले कि मोदी उस धर्म का पालन कर भी रहे हैं।
निश्चित ही अटल बिहारी वाजपेयी बतौर प्रधानमंत्री कई मामलों में अपनी अद्भुत छाप छोड़ पाने में सफल रहे। उनके शासनकाल में इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में बड़ा काम हुआ। राष्ट्रीय राजमार्गों के नेटवर्क को स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के जरिए मजबूत किया गया। उन्होंने पाकिस्तान संग संबंध सुधारने का हर संभव प्रयास किया। कश्मीर पर उनकी नीति की प्रशंसा महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला भी खुलकर करते हैं। अटल जी की लोकतांत्रिक मूल्यों में गहरी आस्था थी। इसे उनके घोर आलोचक भी बिना हिचक स्वीकारते हैं। वे फ्री प्रेस के बड़े पैंरोकार थे और अपनी आलोचना करने वालों से भी पूरी सहजता और आत्मियता से मिलते थे। उन्होंने कभी भी सरकारी तंत्र के जरिए अपने अथवा अपनी सरकार के आलोचकों को डराने-धमकाने का काम नहीं किया लेकिन जब उनका और उनके प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल का निष्पक्ष मूल्यांकन किया जाएगा तो एक बात स्पष्ट सामने आएगी कि जिस प्रकार राजीव गांधी के दामन से 1984 के सिख विरोधी दंगों का दाग नहीं धुल सकता, जिस प्रकार 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाते समय नरसिम्हा राव की निष्क्रिष्यता का सच झुठलाया नहीं जा सकता, ठीक उसी प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी 2002 के दंगों बाद राजधर्म स्वयं ना निभा सके, इस सच से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।